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सिंहा  : स्त्री० [सं०] १. करेमू का साग। २. कटाई। भटकटैया। ३. बहती। बन-भाँटा। पुं० १. नाग देवता। २. सिंह लग्न। ३. वह समय जब सूर्य इस लग्न में रहता है। पुं०=नर-सिंघा (बाजा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंहाण (क)  : पुं० [सं० सिंघ+आनच् पृषो० सिद्ध] १. लोहे पर लगने वाला जंग या मोर्चा। २. नाक में से निकलने वाला मल। रेंट। सीड़।
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सिंहानन  : पुं० [सं० ब० स०] १. काला सँभालू। काली निर्गुंडी। २. अड़ूसा। वि० सिंह के समान मुख वाला।
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सिंहारव  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटक पद्धति का एक राग।
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सिंहार-हार  : पुं०=हर-सिंगार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सिंहाली  : स्त्री० [सं० सिंह+लच्+ङीप] १. सिंहली पीपल। सैंहली। २. दे० ‘सिहली’।
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सिंहावलोकन  : पुं० [सं०] १. सिंह की तरह पीछे देखते हुए आगे बढ़ना। २. किये हुए कामों या बीती हुई बातों का स्वरूप जानने या बतलाने के लिए उन पर द्रष्टिपात करना। ३. संक्षेप में पिछली बातों का दिग्दर्शन या वर्णन। (रिट्रास्पेक्शन) ४. कविता में ऐसी रचना जिसमें किसी चरण के अन्त में आये हुए कुछ शब्दों से फिर उसके बाद वाले चरण का आरंभ किया जाता है। जैसे—यदि पहले चरण के अंत में ‘पारिजात’ हो और उसके बाद वाले चरण का आरंभ भी ‘पारिजात’ से हो तो यह सिंहावलोकन कहलायगा। ५. साहित्य में, यमक अलंकार का एक प्रकार या भेद जिसमें छंद का अंत भी उसी शब्द से किया जाता है जिससे उसका आरंभ होता है।
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सिंहावलोकनिक  : वि० [सं०] १. सिंहावलोकन के रूप में या उसके सिद्धान्त से संबंध रखने वाला। जिसमें सिंहावलोकन होता हो। (रिट्रासपेक्टिव) २. दे० ‘प्रतिवर्ती’।
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सिंहावलोकित  : भू० कृ० [सं०] जिसका या जिसके संबंध में सिंहावलोकन हुआ हो। (रिट्रास्पेक्टेड)
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सिंहासन  : पुं० [सं० सिंह+आसन, मध्य० स०] १. राजाओं के बैठने या देवमूर्तियों की स्थापना के लिये बना हुआ एक विशेष प्रकार का आसन जो चौकी के आकार का होता है और जिसके दोनों ओर शेर के मुख की आक्रति बनी होता है। २. देवताओं का एक प्रकार का आसन जो कमल के पत्ते के आकार का होता है। ३. काम-शास्त्र में, सोलह प्रकार के रति बंधों में से एक। ४. चंदन, रोली आदि का वह टीका या तिलक जो दोनों के लिये बना हुआ एक विशेष प्रकार का आसन जो चौकी के आकार का होता है और जिसके दोनों ओर शेर के मुख की आक्रति बनी होता है। २. देवताओं का एक प्रकार का आसन जो कमल के पत्ते के आकार का होती है। ३. काम-शास्त्र में, सोलह प्रकार के रति बंधों में से एक। ४. चंदन, रोली आदि का वह टीका या तिलक जो दोनों भौंहों के बीच में लगाया जाता है। ५. लोहे की कीट। मंडूर। ६. फलित ज्योतिष में, एक प्रकार का चक्र जिसमें मनुष्य की आकृति में विभक्त २७ कोठे या खाने होते हैं। इन कोठों या खानों में नक्षत्रों के नाम भरे जाते हैं और उनसे शुभाशुभ फल जाना जाता है।
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सिंहास्य  : पुं० [सं० ब० स०] १. अड़ूसा। २. कचनार। ३. एक बड़ी मछली।
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