| शब्द का अर्थ | 
					
				| सींक					 : | स्त्री० [सं० इषीका] १. मूँज, सरपत आदि जातियों के पौधों का सीधा पतला डंठल जिसमें फूल या घूआ लगता है। २. किसी प्रकार की वनस्पति का बहुत पतला और लंबा डंठल। लंबा तिनका। ३. सुई की तरह का कोई पतला और लंबा खंड या टुकड़ा। ४. नाक में पहनने का कील या लौंग नाम का गहना। ५. किसी चीज पर की पतली लंबी धारी। | 
			
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				| सींक-पार					 : | स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बत्तख। | 
			
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				| सींकर					 : | पुं० [हिं० सींक] सींक में लगा हुआ फूल या घूआ। | 
			
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				| सींक-सलाई					 : | वि० [हिं०] पेड़ पौधों की वह बहुत पतली और सबसे छोटी उपशाखा या टहनी जिसमें पत्तियाँ और फूल लगते हैं। | 
			
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				| सींकिया					 : | वि० [हिं० सींक] १. सींक सा पतला। २. बहुत अधिक दुबला पतला। कमजोर। जैसे—सीकिया पहलवान। ३. जिसमें सींकों के आकार की लंबी-लंबी धारियाँ या रेखाएँ हो। जैसे—सींकिया कपडा़, सींकिया छपाई। पुं० एक प्रकार का रंगीन कपड़ा जिसमें सींकों के आकार की लंबी-लंबी धारियाँ होती है। | 
			
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				| सींकिया पहलवान					 : | पुं० [हिं०] दुबला पतला आदमी जो अपने को बहुत बड़ा शक्तिशाली समझता हो। (व्यंग्य और परिहास) | 
			
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				| सींग					 : | पुं० [सं० श्रृंग] १. वे कठोर, लंबे और नुकीले अवयव जो खुरवाले पशुओं के सिर पर दोनों ओर निकलते हैं। विषाण। जैसे—गौ, बैल या हिरन के सींग। मुहा०—सींग जमना या निकलना=साधारण सी बात के लिए भी लड़ने को उद्यत या प्रवृत होना। सिर पर सींग होना=कोई विशेषता होना। (परिहास) सींग लगाना=अभिमान बल, या महत्व प्रदर्षित करने के लिए कोई अनोखा और नया काम या बात करना। (किसी के) कहीं सींग समाना=कहीं रहने पर गुजारा या निर्वाह होना। ठिकाना लगना। (आश्चर्यसूचक) जैसे—तुम अभी से इतने उद्दंड हो, तुम्हारे सींग कहाँ समाएँगे। कहा०—सींग कटाकर बछड़ो में मिलना= वयस्क या वृद्ध हो जाने पर भी लड़कों में खेलना अथवा उनका सा आचरण या व्यवहार करना। २. हाथ का अंगूठा जो प्रायः उपेक्षा सूचित करने के लिए दूसरों को दिखाया जाता है। और अशिष्ट लोगों में पुरुषेन्द्रिय का प्रताक माना जाता है। क्रि० प्र०—दिखाना। मुहा०—सींग पर मारना, रखना या समझना=बहुत ही उपेक्षित तथा तुच्छ समझना। ३. सिंगी नाम का बाजा। पुं० [सं० शार्ग्ङ] धनुष की प्रत्यंचा। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सींगडा					 : | पुं० [हिं० सींग+ड़ा (प्रत्य०)] १. ऐसा पशु जिसके सिर पर सींग हो। २. सिंगी नामक बाजा। ३. वह चोंगा या सींग जिसमें प्राचीन काल में बारूद रखते थे। | 
			
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				| सींगण					 : | पुं० [सं० सींग] सींग का बना हुआ नरसिंहा नाम का बाजा। (राज०) | 
			
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				| सींगदाना					 : | पुं०=मूँग-फली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सींगना					 : | स० [हिं० सींग] चुराए हुए पशु पकड़ने के लिए उनकी सींग देखना और उनकी पहचान करना। | 
			
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				| सींगरी					 : | स्त्री० [देश] १. एक प्रकार का पौधा। २. उक्त पौधे की फली। सींगर। | 
			
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				| सींगी					 : | स्त्री० [हिं० सींग] १. वह पोला सींग जिससे जर्राह शरीर का दूषित रक्त खीचते हैं। क्रि० प्र०—लगाना। २. सिंधी नाम का बाजा। ३. छोटी नदियों तथा तालाबों में होने वाली एक प्रकार की मछली जिसके मुँह के दोनों ओर सींग सदृश पतले लंबे काँटे होते हैं। | 
			
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				| सींघन					 : | पुं० [देश०] घोड़ों के माथे पर ऐसा टीका या निशान जिसमें दो या अधिक भौंरियाँ होती है। | 
			
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				| सींच					 : | स्त्री० [हिं० सींचना] १. सींचने की क्रिया या भाव। सिंचाई। २. छिड़काव। | 
			
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				| सींचना					 : | स० [स० सिंचन] १. खेतों में या जमीन पर बोई हुई चीजों की जड़ों तक पहुँचाने के लिए पानी गिराना, डालना या बहाना। आबपाशी करना। २. तर करना। भिगोना। | 
			
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				| सींचाण					 : | पुं०=सचान (बाज पक्षी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सींची					 : | स्त्री० [हिं० सींचना] खेतों या फसल को पानी से सींचने का समय। | 
			
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				| सींड़					 : | पुं० [सं० शिंवण या सिंहाण] नाम के अन्दर से निकलने वाला कफयुक्त मल। | 
			
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				| सींथ					 : | स्त्री० [सं० सीमंत] स्त्रियों की सिर की मांग। मुहा—(किसी स्त्री का) सींथ भरना=किसी स्त्री की माँग में सिंदूर डालकर उससे विवाह करना। पत्नी बनाना। | 
			
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				| सींव					 : | स्त्री० [सं० सीमा] १. सीमा। २. मर्यादा। मुदा०—(किसी की) सींव काटना=सीमा या मर्यादा का उलंघन करके किसी को दबाना या पीड़ित करना। | 
			
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				| सी					 : | स्त्री० [अनु०] वह शब्द जो अत्यंत पीड़ा, प्रसन्नता या रसास्वाद के समय मुँह से निकलता है। शीत्कार। सिसकारी। मुहा०—सी करना=असहमति या असंतोष प्रकट करना। स्त्री० [सं० सीत] बीज बोने की क्रिया। बोआई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० हिं० सा का स्त्री०। जैसे—जरा सी बात। पुं०=शीत।(शरदी)। | 
			
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				| सीक					 : | पुं० १. =शीत। २. =शिव। स्त्री०=सीमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीक					 : | पुं० [सं० इषीक] तीर। उदा०—सींक धनुष सायक संधाना।—तुलसी स्त्री० सींक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीकचा					 : | पुं० [हिं० सीखचा] १ सीखचा। लोहे का छड़। २ बरामदे आदि के किनारे आड़ के लिए लगाया हुआ लकड़ी का वह ढाँचा जिसमें छड़ लगे होते हैं। | 
			
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				| सीकर					 : | पुं० [सं० सीक सींचना)+अन्] १. पानी की बूँदे। जल-कण। २. पसीने की बूँदे। स्वेद-कर्ण। पुं०=सिक्कड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीकल					 : | पुं० [देश०] डाल का पका हुआ आम। स्त्री० दे० ‘सिकली’। | 
			
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				| सीकस					 : | पुं० [देश०] ऊसर। | 
			
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				| सीका					 : | पुं० [सं० शीर्षक] सोने का एक आभूषण जो सिर पर पहना जाता है। पुं० [स्त्री० अल्पा० सीकी]=छींका। पुं०=सींका। पुं० [देश०] चवन्नी। (दलाल)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीका-काई					 : | स्त्री० [?] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी फलियाँ रीठे की तरह सिर के बाल आदि मलने के काम आती हैं। | 
			
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				| सीकी					 : | स्त्री० [हिं० सीका] चवन्नी। (दलाल)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीकुर					 : | पुं० [सं०शूक] गेहूँ, जौं, धान आदि की बालों में निकलने वाला सूत की तरह पतले और नुकीले अंग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीख					 : | स्त्री० [सं० शिक्षा] १. शिक्षा। तालीम। २. लिखाई हुई अच्छी बात। ३. अनुभव से प्राप्त होने वाला ज्ञान। ४. परामर्श। स्त्री० [फा० सीख] १. लोहे की सलाई। २. तीली। ३. लह कबाब जो लोहे की सलाई पर चिरका कर आग पर भूना जाता है। | 
			
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				| सीखचा					 : | पुं० [फा० सीखचः] १. लोहे की सीख जिस पर माँस लपेटकर भूनते हैं। २. लोहे का पतला लंबा छड़ जो खिड़कियों दरवाजों आदि में आड़ या रोक के लिए लगाया जाता है। | 
			
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				| सीखन					 : | स्त्री० [हिं० सीखना] शिक्षा। सीख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीखना					 : | स० [सं० शिक्षण, प्रा० सिक्खण] १. किसी से कला विद्या आदि का ज्ञान या शिक्षा प्राप्त करना। जैसे—अँगरेजी या संस्कृत सीखना, चित्रकारी या सिलाई सीखना। २. स्वयं अभ्यास या अनुभव से कोई क्रिया, शिल्प या विद्या सीखना। जैसे—लड़का बोलना सीख रहा है। ३. किसी प्रकार का कटु अनुभव होने पर भविष्य में सचेत रहने की शिक्षा ग्रहण करना। जैसे—सौ रुपये गवाँकर तुम यह तो सीख गए कि अनजान आदमियों का विश्वास नहीं करना चाहिए। संयो० क्रि०—जाना-लेना। | 
			
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				| सीगा					 : | पुं० [अ० सीगः] १. साँचा। ढाँचा। २. कार्य व्यापार आदि का कोई विशिष्ट विभाग। ३. मुसलमानों मे विवाह के समय कहे जाने वाले कुछ विशिष्ट अरबी वाक्य। क्रि० प्र०—पढ़ना। | 
			
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				| सीझना					 : | अ० [सं० सिद्ध] [भाव० सीझ] १. आँच पर पकना या गलना। २. आग में पड़कर भस्म होना। जलना। जैसे—लै करसी प्रयाग कब सीझै।—तुलसी। ३. शारीरिक कष्ट सहना। दुःख भोगना। ४. तपस्या करना। ५. इमारत आदि के काम के लिए वृक्ष की ताजी कटी हुई लकड़ी का कुछ दिनों तक पड़े रहकर सूखना और पक्का या टिकाऊ होना। (सीज़निंग) ६. सूखे हुए चमड़े का मसाले आदि में भीगकर मुलायम और टिकाऊ होना। (टैनिंग) ७. दलाली ब्याज, लाभ आदि के रूप में कुछ धन मिलना या उसकी प्राप्ति का निश्चित हो जाना। (दलाल)। जैसे—(क) बात की बात में पाँच रुपये सीझ गए। (ख) इस रोजगार में रुपए सैकड़ों का ब्याज सीझता है। | 
			
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				| सीट					 : | स्त्री० [अं०] बैठने का स्थान। आसन। स्त्री० [हिं० सीटना=घमंड भरी बातें कहना] सीटने की क्रिया या भाव। पद—सीट-पटाँग। | 
			
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				| सीटना					 : | स० [अनु०] बढ़-बढ़कर बातें करना। डींग हाकना। शेखी बघारना। | 
			
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				| सीट-पटाँग					 : | स्त्री० [हिं० सीटना+ (ऊँट) पर टाँग] बहुत बढ़-बढ़कर की जाने वाली बातें। आत्म-प्रशंसा की घमंड भरी बात। डींग। | 
			
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				| सीटी					 : | स्त्री० [सं० शीत] १. वह पतला महीन शब्द जो होंठों को गोल सिकोड़कर नीचे की ओर आघात के साथ वायु निकालने से होता है। २. किसी विशिष्ट क्रिया से द्वारा कहीं से उत्पन्न होने वाला उक्त प्रकार का शब्द। जैसे—रेल की सीटी। मुहा—सीटी देना=बुलाने या संकेत करने के लिए उक्त प्रकार का शब्द उत्पन्न करना। ३. एक प्रकार का छोटा उपकरण या बाजा जिसमें मुँह से हवा भरने पर उक्त प्रकार का शब्द निकलता है। क्रि प्र०—बजाना। | 
			
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				| सीठ					 : | स्त्री०=सीठी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीठना					 : | पुं० [सं० अशिष्ट, प्रा० असिट्ठ+ना (प्रत्य०)] एक प्रकार के गीत जो स्त्रियाँ विवाह के अवसर पर गाती हैं और जिनके द्वारा संबंधियों का उपहास करती हैं। | 
			
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				| सीठनी					 : | स्त्री०=सीठना। | 
			
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				| सीठा					 : | वि० [सं० शिष्ट, प्रा० सिट्ट=बचा हुआ] [भाव० सीठापन] बिना रस या स्वाद का। नीरस। फीका। | 
			
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				| सीठी					 : | स्त्री० [प्रा० सिट्ठ] १. पत्ते, फाँक, फल आदि का वह अंश जो रस निचोड़ लेने पर शेष बचता है। जैसे—मौसम्मी की सीठी। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी वस्तु जो सारहीन हो। | 
			
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				| सीड़					 : | स्त्री०[सं० शीत] १. वह तरी या नमी जो आस-पास में पानी की अधिकता के कारण कहीं उत्पन्न हो जाती है। सील। सीलन। २. ठंडक। उदा०—कीन्हेसी धूप, सीड़ औ छाँहा।—जायसी। | 
			
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				| सीढ़ी					 : | स्त्री० [सं० श्रेणी] १. वास्तु कला में वह रचना अथवा रचनाओं का समूह जिस या जिन पर क्रमशः पैर रखकर ऊपर चढ़ा या नीचे उतरा जाता है। २. बाँस के दो बल्लों या काठ के लंबे ठुकड़ों का बना लंबा ढांचा जिसमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर पैर रखने के लिए डंडे लगे रहते हैं। और जिसके सहारे किसी ऊँचे स्थान पर चढते हैं। पद-सीढ़ी का डंडा=पैर रखने के लिए सीढ़ी में बना हुआ स्थान। २. लाक्षणिक रूप में, उन्नति या बढ़ाव के मार्ग पर पड़ने वाली विभिन्न स्थितियों में से प्रत्येक स्थिति। मुहा०—सीढ़ी-सीढ़ी चढना=क्रम-क्रम से ऊपर की ओर बढना धीरे-धीरे उन्नति करना। ३. छापे आदि यंत्रो में काठ की सीढ़ी के आकार का वह खंड जिस पर से होकर बेलन आदि आगे-पीछे आते जाते हैं। ४. किसी प्रकार के यंत्र में उक्त आकार प्रकार का कोई अंश या खंड। | 
			
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				| सीढ़ीनुमा					 : | वि० [हिं०+फा०] जो देखने में सीढ़ियों की तरह बराबर एक के बाद एक ऊँचा होता गया हो। सम-समुन्नत। (टेरेस-लाइक) | 
			
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				| सीत					 : | पुं० [?] बहुत ही थोड़ा सा अंश। उदा०—हाँड़ी के चावलों की एक सीत थी।—वृन्दावनलाल। पुं०=शीत (सरदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीत-पकड़					 : | पुं० [सं० शीत+हिं० पकड़ना] १. शीत द्वारा ग्रस्त होने का रोग। २. हाथियों का एक रोग जो उन्हें सरदी लगने से होता है। | 
			
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				| सीतल					 : | वि०=शीतल। | 
			
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				| सीतल-चीनी					 : | स्त्री० दे० ‘कबाब चीनी’। | 
			
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				| सीतल-पाटी					 : | स्त्री०[सं० शीतल+हिं० पाटी] १. पूर्वी बंगाल और असम के जंगलो में होने वाली एक प्रकार की झाड़ी जिससे चटाइयाँ बनती हैं। २. उक्त झाड़ी के डंठलों से बनी हुई चटाई। ३. एक प्रकार का धारीदार कपड़ा। | 
			
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				| सीतल-बुकनी					 : | स्त्री० [सं० शीतल+हिं० बुकनी] १. सत्तू। सतुआ। २. साधुओं की परिभाषा में संतों की बानी जो हृदय को शीतल करती है। | 
			
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				| सीतला					 : | स्त्री०=शीतला। | 
			
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				| सीता					 : | स्त्री० [सं√षिज्ञ् (बाँधना)+क्त बाहु० दीर्घ-टाप] १. वह रेखाकार गड्ढा जो जमीन जोतते समय तल के फाल के धँसने से बनता है। कूंड। २. मिथिला के राजा सीरध्वज जनक की कन्या जो रामचन्द्र को ब्याही थी। जानकी। वैदेही। पद—सीता की रसोई= (क) बच्चों के खेलने के लिए बने हुए रसोई के छोटे-छोटे बरतन। (ख) एक प्रकार का गोदना। सीता की पंजीरी=कर्पूर बल्ली नाम की लता। ३. वह भूमि जिस पर राजा की खेती होती हो। राजा की निज की भूमि। सीर। ४. वह अन्न जो प्राचीन भारत में सीताध्यज प्रजा से लेकर एकत्र करता था। ५. दाक्षायणी देवी का एक नाम या रूप। ६. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगड़, तगड़, मगड़, यगड़ और रगड़ होते हैं। ७. आकाश गंगा की उन चार धाराओं में से एक जो मेरु पर्वत पर गिरने के उपरान्त हो जाती है। ८. मदिरा। शराब। ९. पाताल गारुणी नाम की लता। ककही या कंघी नाम का पौधा। | 
			
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				| सीता-जानि					 : | पुं० [सं० ब० स०] श्रीरामचन्द्र। | 
			
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				| सीतात्यय					 : | पुं० [सं०] किसानों पर होने वाला जुर्माना। खेती के संबंध का जुरमाना। (कौ०) | 
			
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				| सीताधर					 : | पुं० [सं० सीता√घृ+अच्] सीता (हल) धारण करनेवाला बलराम। | 
			
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				| सीताध्यक्ष					 : | पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में वह राज-अधिकारी जो राजा की निजी भूमि में खेतीबारी आदि का प्रबंध करता था। | 
			
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				| सीता-नाथ					 : | पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र। | 
			
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				| सीता-पति					 : | पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र। | 
			
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				| सीता-फल					 : | पुं० [सं० मध्य० स० ब० स०] १. शरीफा। २. कुम्हड़ा। | 
			
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				| सीता-यज्ञ					 : | पुं० [सं० मध्य० स०] प्राचीन भारत में हल जोतने के समय होने वाला एक प्रकार का यज्ञ। | 
			
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				| सीता-रमण					 : | पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र। | 
			
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				| सीतारवन, सीतारौन					 : | पुं०=सीता रमण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीता-वट					 : | पुं० [सं० मध्य० स०] १. प्रयाग और चित्रकूट के बीच स्थित एक वट वृक्ष जिसके नीचे राम और सीता विश्राम किया था। २. उक्त वृक्ष के आस पास का स्थान। | 
			
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				| सीतावर					 : | पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र। | 
			
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				| सीता-वल्लभ					 : | पुं० [सं० ष० त०] श्रीरामचन्द्र। | 
			
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				| सीताहार					 : | पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का पौधा। | 
			
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				| सीत्कार					 : | पुं० [सं०] मुँह से निकलने वाला सी-सी शब्द जो शीघ्रता पूर्वक साँस खीचने या लेने से होता है। सी-सी ध्वनि। विशेष—यह ध्वनि अत्यधिक आनन्द, पीड़ा, या सरदी के फलस्वरूप होती है। | 
			
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				| सीत्कृति					 : | स्त्री० [सं०] सीत्कार। (दे०) | 
			
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				| सीत्य					 : | पुं० [सं० सीत+यत्] १. धान्य। धान। २. खेत। | 
			
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				| सीथ					 : | पुं० [सं० सिक्थ] उबाले या पकाये हुए अन्न का दाना। | 
			
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				| सीद					 : | पुं० [सं०√सद् (नष्ट करना) जिच्० सद्] १. ब्याज या रुपये देने का धंधा। २. सूदखोरी। कुसीद। | 
			
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				| सीदना					 : | अ० [सं० सीदति] १. दुःख पाना। कष्ट झेलना। २. नष्ट होना। स० १. दुःख देना। २. नष्ट करना। | 
			
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				| सीदिया					 : | पुं० [?] दक्षिण-पूर्वी यूरोप का एक प्राचीन देश जिसकी ठीक सीमाएं अभी तक निर्धारित नहीं हुई हैं। कहते हैं कि शक लोग मूलतः यहीं के निवासी थे और यहीं से भारत आये थे। | 
			
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				| सीदी					 : | पुं० [सीदिया देश] सीदिया देश का अर्थात शक जाति का मनुष्य। वि० सीदिया नामक देश का। | 
			
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				| सीद्य					 : | पुं० [सं०√सद् (नष्ट करना)+यत् सद-सीद] १. आलस्य। काहिली। २. शथिलता। सुस्ती। ३. अकर्मण्ता। निकम्मापन। | 
			
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				| सीघमान					 : | वि० [सं० सीघ से] ठंडा या सुस्त पड़ा हुआ। | 
			
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				| सीध					 : | स्त्री० [सं० सिद्धि] १. सीधे होने की अवस्था गुण या भाव। २. सीधे या ठीक सामने का विस्तार या स्थिति। जैसे—बस इसी सीध में चले जाओ, आगे एक कुआँ मिलेगा। पद—सीध में=किसी बिंदु से अमुक ओर सीधे। मुहा०—सीध बाँधना= (क) सड़क क्यारी आदि बनाने के लिए पहले सीधी रेखा बनाना। (ख) सीधी रेखा स्थिर करना। ३. निशाना। लक्ष्य। मुहा—सीध बाँधना।=निशाना या लक्ष्य साधना। | 
			
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				| सीधा					 : | वि० [सं० शुद्ध, व्रज, सूधा, सूधो] [स्त्री० सीधी, भाव० सिधाई, सीधापन] १. जो बिना घूमें, झुके या मुड़े कुछ दूर तक किसी एक ही ओर चला गया हो। जिसमें फेर या घुमाव न हो। सरल। ऋजु। ‘टेढ़ा’ का विपर्याय। जैसे—सीधी लकड़ी। सीधा रास्ता। २. जो ठीक एक ही ओर प्रवृत्त हो। जो ठीक लक्ष्य की ओर हो। जैसे—सीधा निशाना। मुहा०—सीधी सुनाना=साफ-साफ कहना। खरी बात कहना। ३. (व्यक्ति) जो कपटी कुटिल या धूर्त न हो। निष्कपट और सरल प्रकृति का। पद—सीधा-सादा=जो कुछ भी छल कपट न जानता हो। ४. शांत और सुशील। भला। जैसे—सीधा आदमी। सीधी गौ। ५. (व्यवहार) जिसमें उद्दंडता, कपट या छल न हो। पद-सीधी तरह=शिष्टता और सभ्यतापूर्वक। जैसे—पहले उसे सीधी तरह समझाकर देखो। सीधे सुभाव (या स्वभाव)=मन में बिना कोई छल कपट रखे। सरल और सहज भाव से। जैसे—मैंने उन लोगों को सीधे सुभाव क्षमा दिया था। सीधे-से=स्पष्ट रूप से। जैसे—उन्होने सीधे से कह दिया था कि मैं यह काम नहीं करूँगा। मुहा०—(किसी को) सीधा करना=कठोर व्यवहार करके अथवा दंड देकर किसी को अपने अनुकूल बनाना या ठीक रास्ते पर लाना। ६. अच्छा, अनुकूल और लाभदायक। जैसे—जब भाग्य सीधा होगा या सीधे दिन आएँगे) तब सब बातें आप से आप ठीक हो जायँगी। ७. (संबंध) जिसमें और किसी प्रकार का अंतर्भाव, फेर या लगाव न हो। प्रत्यक्ष। पद—सीधा-सीधा=सुगम और प्रत्यक्ष। ८. (कार्य) जिसके संपादन या साधन में कोई कठिनता या जटिलता न हो। सरल और सुगम। आसान। सहज। जैसे—सीधी काम। ९. (बात या विषय) जिसे समझने में कोई कठिनता न हो। जैसे—सीधी बात,सीधा सवाल। १॰. (पदार्थ) जिसका अगला या ऊपरी भाग सामने या ठीक जगह पर हो। ‘उल्टा’ का विपर्याय। जैसे—सीधा करके पहनों । ११. दाहिना। दक्षिण। जैसे—सीधे हाथ से रुपये दे दो। क्रि वि०-ठीक सामने की ओर (सम्मुख)। पुं०किसी पदार्थ के आगे, ऊपर या सामने का भाग। उलटा का विपर्याय (आबवर्स) जैसे-इस कपड़े में जल्दी सीधे या उल्टे का पता नहीं चलता। पुं०[असिद्ध] बिना पका हुआ अन्न जो प्रायः ब्राह्मणों आदि को भोजन बनाने के लिए दिया जाता है। | 
			
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				| सीधापन					 : | पुं० [हिं० सीधा+पन (प्रत्य०)] १. सीधा होने की अवस्था, गुण या भाव। सिधाई। २. व्यवहारगत वह विशेषतः जिसमें किसी प्रकार का छल-बल नहीं होता। | 
			
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				| सीधु					 : | पुं० [सं०] १. गुड़ या ईख के रस से बना हुआ मद्य। गुड़ की शराब। २. अमृत। | 
			
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				| सीधु-गंध					 : | पुं० [सं०] मौलसिरी। बकुल। | 
			
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				| सीधुप					 : | पुं० [सं०] मद्यप। | 
			
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				| सीधु-पुष्प					 : | पुं० [सं०] १. कदंब। कदम। २. बकुल। मौलसिरी। | 
			
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				| सीधु-रस					 : | पुं० [सं० ब० स०] आम का पेड़। | 
			
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				| सीधे					 : | अव्य० [हिं० सीधा] १. ठीक ऊपर की ओर उठे हुए बल में। जैसे—सीधे खड़े हो। २. सीध में। बराबर सामने की ओर। सम्मुख। ३. बिना बीच में इधर उधर घूमे या मुड़े हुए। जैसे—इसी सड़क से सीधे चले जाओ। ४. बिना बीच में कहीं ठहरे या रुके हुए। जैसे—पहले तुम सीधे उन्हीं के पास जाओ। नरमी या शिष्ट व्यवहार से। जैसे—वह सीधे रुपए न देगा। ६. शान्त भाव से। जैसे—सीधे बैठो। | 
			
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				| सीध					 : | पुं० [सं०√षिध् (गमन करना आदि)+रक्-पृषो० दीर्घ] गुदा। मलद्वार। | 
			
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				| सीन					 : | पुं० [अं०] १. दृश्य। २. रंगमंच का परदा जिस पर अनेक प्रकार के दृश्य अंकित रहते हैं। | 
			
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				| सीनरी					 : | स्त्री० [अं०] प्राकृतिक दृश्य। | 
			
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				| सीना					 : | स० [सं० सीवन] १. सुई-धागे या सूजे-रस्सी आदि की सहायता से दो या अधिक कपड़े, कागज, टाट, नाइलन, प्लास्टिक, माँस, चमड़े आदि के टुकड़ों के साथ जोड़ना। जैसे—फटी हुई धोती सीना, कापी या किताब सीना, जूता सीना। २. सिलाई करना। जैसे—कमीज या पजामा सीना। पद—सीना-पिरोना=सिलाई, बेलबूटे आदि का काम करना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, दो पक्षों के मत भेद दूर करना। पुं० [फा० सीनः] १. छाती। वक्षस्थल। मुहा०—(किसी को) सीने से लगाना=प्रेम पूर्वक गले लगाना। आलिंगन करना। २. स्त्री० का स्तन। पुं०=सीवाँ (कीड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीना कोबी					 : | स्त्री० [फा० सीन-कोबी] छाती पीटते हुए शोक प्रकट करना। | 
			
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				| सीना-जोर					 : | वि० [फा० सीनःजोर] [भाव० सीना-जोरी] १. अपने बल के जोर पर या अभिमान से दूसरों से जबरदस्ती काम कराने वाला। जबरदस्त। २. अत्याचारी। | 
			
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				| सीना-जोरी					 : | स्त्री० [फा० सीनःजोरी] १. जबरदस्ती। २. अत्याचार। | 
			
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				| सीना-तोड़					 : | पुं० [हिं० सीना+तोड़ना] कुस्ती का एक पेंच। | 
			
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				| सीना-पनाह					 : | पुं० [फा०] जहाज के निचले खंड में लंबाई के बल दोनो ओर का किनारा। (लश०) | 
			
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				| सीना-बंद					 : | पुं० [फा० सीनबन्द] १. सीना बाँधने वाला वस्त्र या पट्टी। २. अंगिया। चोली। ३. एक प्रकार की कुरती जिसे सदरी भी कहते हैं। ४. पट्टी विशेषतः घोड़े की पेटी। ५. ऐसा घोड़ा जिसका अगला पैर लंगड़ाता हो। | 
			
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				| सीना-बाँह					 : | स्त्री० [हिं० सीना+बाँह] एक प्रकार की कसरत। | 
			
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				| सीना-मोढ़ा					 : | पुं० [फा० सीनः=छाती+हिं० मोढ़ा=कन्धा] छाती, कन्धों आदि का विचार जो प्रायः व्यक्तियों, विशेषतः पशुओं के पराक्रम, बल आदि का अनुमान लगाने के लिए होता है। जैसे—घोड़े, बकरे आदि का दाम, उनके सीने मोढ़े पर ही लगता है। | 
			
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				| सीनियर					 : | वि० [अं०] १. बड़ा। वयस्क। २. पद मर्यादा आदि में श्रेष्ठ। प्रवर। ज्येष्ठ। | 
			
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				| सीनी					 : | स्त्री० [फा०] १. तश्तरी। थाली। २. छोटी नाव। | 
			
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				| सीनेट					 : | स्त्री० [अं०] १. विश्वविद्यालय की प्रबंध कारिणी सभा। २. अमेरिका की राज्य सभा। | 
			
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				| सीनेटर					 : | पुं० [अं०] सीनेट का सदस्य। | 
			
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				| सीप					 : | पुं० [सं० शुक्ति, प्रा० सुक्ति] [स्त्री० अल्पा० सीपी] १. घोंघे, शंख आदि के वर्ग का और कठार आवरण के भीतर रहने वाला एक जल-जन्तु जो छोटे तालाबों और झीलों से लेकर बड़े-बड़े समुद्रों तक में पाया जाता है। शुक्ति। मुक्ता माता। २. उक्त जल-जन्तु का सफेद कड़ा और चमकीला आवरण या संपुट जो बटन चाकू आदि के दस्ते आदि बनाने के काम में आता है, और जिससे छोटे बच्चों को दूध पिलाया जाता है। ३. एक प्रकार का लंबोतर पात्र जिसमें देव-पूजा, तर्पण आदि के लिए जल रखा जाता है। | 
			
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				| सीपति					 : | पुं०=श्रीपति (विष्णु)। | 
			
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				| सीपर					 : | पुं०=सिपर (ढाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीप-सुत					 : | पुं० [हिं० सीप+सं० सुत] मोती। | 
			
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				| सीपिज					 : | वि० सीप या सीपी से उत्पन्न पुं० [हिं० सीपी+सं० ज] सीपी से उत्पन्न अर्थात मोती। | 
			
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				| सीपी					 : | स्त्री० हिं०‘सीप’ का स्त्री० अल्पा०। | 
			
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				| सीबी					 : | स्त्री० [अनु० सी-सी] सीत्कार। (दे०) | 
			
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				| सीमंत					 : | पुं० [सं०] १. सीमा रेखा। २. स्त्रियों की सिर के माँग। ३. शरीर में हड्डियों का जोड़। ४. दे० ‘सीमंतोन्नयन’। | 
			
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				| सीमंतक					 : | पुं० [सं० सीमंत√कृ (करना)+क] १. माँग निकालने की क्रिया। २. सिंदूर जो स्त्रियों की माँग में डालते हैं। ३. जैन-पुराणों के अनुसार एक नरक। ४. उक्त नरक का वासी। ५. एक प्रकार का मणिक रत्न। | 
			
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				| सीमंतवान (वन्)					 : | वि० [सं० सीमंत+मतुप-य=व-नुभ-दीर्घ] [स्त्री० सीमंतवती] जिसके सिर के बालों में माँग निकली हो। | 
			
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				| सीमंतित					 : | भू० कृ० [सं० सीमंत+इतच्] सीमंत के रूप में लाया हुआ। माँग निकाला हुआ। जैसे—सीमंतित केश। | 
			
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				| सीमंतिनी					 : | स्त्री० [सं० सीमंत+इनि-ङीपं] १. स्त्री। २. नारी। विशेष-स्त्रियाँ माँग निकालती है, इससे उन्हे सीमंतिनी कहते हैं। २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। | 
			
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				| सीमंतोन्नयन					 : | पुं० [सं० ब० स०] द्विजों के दस संस्कारों में से तीसरा संस्कार जो गर्भाधान के चौथे, छठे, आठवें महीने होता है, तथा जिसमें गर्भवती स्त्री के सिर के बालों में माँग निकाली जाती है। | 
			
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				| सीम					 : | पुं० [सं० सीमा] सीमा। हद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—सीम काँड़ना या चरना= (क)अपने अधिकारों का उल्लंघन करते हुए दूसरे के अधिकार-क्षेत्र में अतिक्रमण करना। (ख) जोर जबरदस्ती करना। पुं० [फा०] चाँदी। | 
			
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				| सीमक					 : | पुं० [सं० सीम+कन्] सीमा। हद। | 
			
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				| सीमल					 : | पुं०=सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीम-लिंग					 : | पुं० [सं० ष० त०] प्रदेश की सीमा का चिन्ह। हद का निशान। | 
			
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				| सीमांकन					 : | पुं० [सं० सीमा+अंकन, ष० त०] [भू० कृ० सीमांकित] अधिकार, कार्य, क्षेत्र आदि के अलग-अलग विभाग करके उनकी सीमा निर्धारित या निश्चित करना। (डिमार्केशन) | 
			
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				| सीमांकित					 : | भू० कृ० [सं०] जिसका सीमांकन हुआ हो। (डिमार्केटेड) | 
			
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				| सीमांत					 : | पुं० [ १. वह स्थान जहाँ किसी सीमा का अंत होता हो। वह जगह जहाँ तक हद पहुँचती हो। सरहद। (फ्रन्टियर) २. गाँव की सीमा। सिवाना। ३. सीमा पर का प्रदेश। | 
			
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				| सीमांत-पूजन					 : | पुं० [सं० ष० त०] वर का वह पूजन या स्वागत जो बरात आने के समय वधू पक्ष की ओर से गाँव की सीमा पर होता है। | 
			
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				| सीमांत-बंध					 : | पुं० [सं० ष० त० ब० स०] आचरण संबंधी नियम या मर्यादा। | 
			
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				| सीमा					 : | स्त्री० [सं०] १. किसी प्रदेश या स्थान के चारों ओर की विस्तार की अंतिम रेखा या स्थान। हद। सरहद। (बाउंडरी) मुहा—सीमा बंद करना=ऐसी राजनीतिक व्यवस्था करना कि देश की सीमा पर से आदमियों और माल का आना जाना रुक जाय। २. किसी विस्तार की अंतिम लंबाई या घेरा। (बार्डर) जैसे—सीमा के प्रदेश। ३. वह अंतिम स्थान जहाँ तक कोई बात या काम हो सकता हो। या होना उचित हो। नियम या मर्यादा की हद। (लिमिट) मुहा—सीमा से बाहर जाना=उचित से अधिक बढ़ जाना। (निषिद्ध) ४. भाँग। विजया। | 
			
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				| सीमा कर					 : | पुं० [सं० ष० त०] वह कर जो किसी प्रदेश की सीमा पर आने-जाने वाले व्यक्तियों या सामान पर लगता है। (टरमिनल टैक्स) | 
			
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				| सीमा-चौकी					 : | स्त्री० [सं०+हिं०] सीमा पर स्थित वह स्थान जहाँ सीमा रक्षा के निमित्त सैनिक रखे जातें हों। | 
			
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				| सीमातिक्रमण					 : | पुं० [सं० ष० त०] अपनी सीमा का उल्लंघन करके दूसरे के प्रदेश में किया जाने वाला अनाधिकार प्रवेश। | 
			
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				| सीमातिक्रमणोत्सव					 : | पुं० [सं०] प्राचीन भारत में युद्ध यात्रा के समय सीमा पार करने का उत्सव। विजय-यात्रा। विजयोत्सव। | 
			
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				| सीमापाल					 : | पुं० [सं०] सीमा प्रान्त का रक्षक अधिकारी। | 
			
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				| सीमाब					 : | पुं० [फा०] पारा। पारद। | 
			
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				| सीमा-बद्ध					 : | भू० कृ० [सं०] १. जिसकी सीमा निश्चित कर दी गई हो। हद के भीतर किया हुआ। जैसे—सीमा बद्ध प्रदेश। २. सीमाओं अर्थात मर्यादाओं से बँधा हुआ। | 
			
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				| सीमा-शुल्क					 : | पुं० [वह कर या शुल्क जो किसी राज्य की सीमा पर कुछ विशिष्ट प्रकार के पदार्थों या उनके आयात या निर्यात के समय लिया जाता है। (ड्यूटी) | 
			
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				| सीमा-संधि					 : | स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ पर दो या अनेक देशों राज्यों आदि की सीमाएँ मिलती हों। | 
			
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				| सीमा-सेतु					 : | पुं० [सं० मध्य० स०] वह पुश्ता या मेड़ जो सीमा निश्चित करने के लिए बनाई जाती है। | 
			
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				| सीमिक					 : | पुं० [सं०√स्वम् (शब्द करना)+किनन्-संतृप्ता+दीर्घ] १. एक प्रकार का वृक्ष। २. दीमक। ३. दीमकों की बाँबी। | 
			
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				| सीमिका					 : | स्त्री० [सं० सीमिक+टाप्] १. दीमक। २. चींटी। च्यूँटी। | 
			
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				| सीमित					 : | भू० कृ० [सं०] १. सीमाओं से बँधा हुआ। २. जिसका प्रभाव या विस्तार एक निश्चित सीमा के अंतर्गत हो। २. राजनीति शास्त्र में जिस पर सांविधानिक बंधन लगे हों। परम का विरुद्धार्थक। (लिमिटेड) जैसे—सीमित राज्य-तंत्र। | 
			
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				| सीमी					 : | वि० [फा०] चाँदी का बना हुआ। | 
			
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				| सीमेंट					 : | पुं० [अं०] दीवारों आदि की चुनाई में काम आने वाला एक चूर्ण जिसमें बालू मिलाने पर गारा बनता है तथा जो जुड़ाई और प्लास्तर के काम आता है एवं सूखने पर बहुत कड़ा और मजबूत हो जाता है। | 
			
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				| सीय					 : | स्त्री० [सं० सीता] सीता। जानकी। पुं० [सं० शीत] ठंढ़। वि० ठंढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
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				| सीयन					 : | स्त्री०=सीवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
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				| सीयरा					 : | वि०=सीयरा (ठंढ़ा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीर					 : | पुं० [सं०] १. हल। २. जोता जाने वाला बैल। ३. सूर्य। ४. आक। मदार। स्त्री० १. वह जमीन जिसे भूस्वामी या जमींदार स्वयं जोतता या अपनी ओर से किसी दूसरे से जोतवाता आ रहा हो, अर्थात जिस पर उसकी निज की खेती होती हो। २. हिस्सेदारी। साझेदारी। स्त्री० [सं० शिरा] रक्तवाहिनी नाड़ी। नस। मुहा०—सीर खुलवाना=नस्तर से शरीर का दूषित रक्त निकलवाना। पुं० [?] १. चौंपायों का एक संक्रामक रोग। २. पानी का ऐसा बहाव जो किनारे की जमीन काटता हो। (लश०) वि०=सियरा (ठंढ़ा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीरक					 : | पुं० [सं० सीर+कन्] १. हल। २. सूर्य। ३. शिशुमार। सूँस। वि० [हिं० सीरा] ठंढ़ा या शीतल करनेवाला। | 
			
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				| सीरख					 : | पुं०=शीर्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीरत					 : | स्त्री० [अं०] १. प्रकृति। स्वभाव। २. गुण। विशेषता। | 
			
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				| सीर-धर					 : | वि० [सं० ष० त०] हल धारण करने वाला। पुं० बलराम का एक नाम। | 
			
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				| सीर-ध्वज					 : | पुं० [सं० ब० स०] राजा जनक का पहला और वास्तविक और पहला नाम। २. बलराम। | 
			
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				| सीरन					 : | पुं० [?] बच्चों का एक प्रकार का पहनावा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीरनी					 : | स्त्री० [फा० शीरीनी] मिठाई। (दे०‘सिरनी’) | 
			
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				| सीर-पाणि					 : | पुं० [सं० ब० स०] बलराम का एक नाम। | 
			
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				| सीर-भृत					 : | पुं० [सं० सीर√भृ (सुरक्षित रखना आदि)+क्विप्-तुक्] १. हल चलाने वाला अर्थात खेतिहर या हलवाहा। २. बलराम। | 
			
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				| सीरम					 : | पुं० [अं०] कुछ विशिष्ट प्रकार के प्राणियों और मनुष्यों के शरीर के रक्त में से निकला हुआ एक तरल पदार्थ जिसमें कुछ विशिष्ट रोगों का आक्रमण रोकने की शक्ति होती है। और इसीलिए जो दूसरे प्राणियों या व्यक्तियों के शरीर में उन्हें किसी रोग से रक्षित रखने के उद्देश्य से सूई के द्वारा प्रविष्ट किया जाता है। | 
			
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				| सीरवाह (क)					 : | पुं० [सं०] १. हल चलाने या जोतने वाला। हलवाहा। २. जमींदार की ओर से उसकी खेती का प्रबंध करनेवाला। कारिन्दा। | 
			
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				| सीरष					 : | पुं०=शीर्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीरा					 : | स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी। वि० [सं० शीतल० प्रा० सीअड़] [स्त्री० सीरी] १. ठंढ़ा। शीतल। २. धीर और शान्त प्रकृति वाला। पुं० [फा० शीरः] १.चीनी आदि का पकाया हुआ शीरा। २. मोहन-भोग। हलुआ। पुं०१.=सिरा (शीर्ष या सिरहाना)। २. =सिरहाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीरायुध					 : | पुं० [सं० ब० स०] बलराम। | 
			
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				| सीरियल					 : | पुं० [अं०] १. वह लंबी कहानी या लेख जो कई बार और कई हिस्सों में प्रकाशित हो। २. ऐसी कहानी या लेख जो सिनेमा में उक्त प्रकार से कई भागों में विभक्त करके दिखाया जाता हो। | 
			
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				| सीरी (रिन्)					 : | पुं० [सं०] (हल धारण करने वाला) बलराम। वि० हिं० ‘सीरा’ का स्त्री०। | 
			
				|  | समानार्थी शब्द- 
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				| सीरीज़					 : | स्त्री० [सं०] १. किसी एक क्रम में पूर्वा पर घटित होने वाली घटनाओं का समाहार या समूह। २. पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में किसी एक प्रकाशन संस्था द्वारा प्रकाशित वह पुस्तक माला जिसका विषय, मूल्य या जिल्द समान हो। | 
			
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				| सीलंध					 : | स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मछली। | 
			
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				| सील					 : | स्त्री० [सं० शलाका] लकड़ी का एक हाथ लंबा औजार जिस पर चूड़ियाँ गोल और सुडौल की जाती हैं। स्त्री=सीड़। पुं०=शील। स्त्री० [अं०] १. पत्रों आदि पर लगाई जाने वाली मोहर। छाप। मुद्रा। २. प्रायः ठंढ़े देशों के समुद्रों में रहने वाला एक प्रकार का बड़ा स्तनपायी चौपाया जो मछलियाँ खाकर रहता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीलना					 : | अ० [हिं० सील] १. सील से युक्त या प्रभावित होना। जैसे—दीवार या फर्श सीलना। २. सील या नमी के कारण ठंढ़ा होकर विकृत होना। | 
			
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				| सीला					 : | पुं०=सिला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीवँ					 : | स्त्री०=सीमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीवक					 : | वि० पुं० [सं०] सीने वाला। सिलाई करनेवाला। | 
			
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				| सीवड़ा (ड़ो)					 : | पुं०[सं० सीमांत] ग्राम का सीमांत। सिवाना। (ङि०) | 
			
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				| सीवन					 : | पुं० [सं०√षिवु (सीना)+ल्यूट्-अन] १. सीने का काम। सिलाई। २. सीने के कारण पड़े हुए टाँके। सिलाई के जोड़। उदा०—सीवन को उधेड़कर देखोगे क्यों मेरी कन्या को।—पन्त। ४. दरज। दरार। संधि। स्त्री०=सीवनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीवना					 : | सं०=सीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीवनी					 : | स्त्री० [सं० सीवन+ङीप्] वह रेखा जो लिंग के नीचे से गुदा तक जाती है। सीवन। | 
			
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				| सीवाँ					 : | पुं० [सं० सीमिक] एक प्रकार का कीड़ा जो ऊनी कपड़ों को काट डालता है। | 
			
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				| सीवी					 : | स्त्री०=सीबी (सीत्कार)। | 
			
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				| सीव्य					 : | वि० [सं० षिवु (सीना)+यत् (क्यप्)] जो सीया जा सके। सीये जाने के योग्य। | 
			
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				| सीस					 : | पुं० [सं० शीर्ष] १. सिर। माथा। मस्तक। २. कंधा। (ङि०) ३. अंतरीप। (लश०) पुं०=सीसा (धातु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीसक					 : | पुं० [सं०] ‘सीसा’ नामक धातु। | 
			
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				| सीसज					 : | पुं० [सं०] सिंदूर। वि० सीसा नामक धातु से उत्पन्न या बना हुआ। | 
			
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				| सीस-ताज					 : | पुं० [हिं० सीज+फा० ताज] वह टोपी या ढक्कन जो शिकार पकड़ने के लिए पाले हुए जानवरों के सिर चढा रहता है। और शिकार के समय उतारा या खोला जाता है। कुलहा। | 
			
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				| सीस-त्रान					 : | पुं०=शिरस्त्राण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीस-पत्र					 : | पुं० [सं०] सीसा नामक धातु। | 
			
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				| सीस-फूल					 : | पुं० [हिं० सीस+फूल] सिर पर पहनने का फूल के आकार का एक गहना। | 
			
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				| सीसम					 : | पुं०=शीशम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीस-महल					 : | पुं०=शीश-महल। | 
			
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				| सीसर					 : | [सं० सीस√रा (रोना)+क] १. देवताओं की सरमा नाम की कुतिया का पति। (पाराशर गृह्यसूत्र) २. एक प्रकार का बालग्रह जिसका रूप कुत्ते का-सा कहा गया है। | 
			
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				| सीसल					 : | पुं०=राम-बाँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीसा					 : | पुं०[सं०सीसम] मटमैले रंग की धातु जो अपेक्षया बहुत भारी या वजनी होती है। (लेड) पुं०=शीशा। | 
			
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				| सीसी					 : | स्त्री० [अनु०] १. सी-सी शब्द। २. दे० ‘सीत्कार’। स्त्री० शीशी। | 
			
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				| सीसों					 : | पुं०=शीशम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीसोपधातु					 : | पुं० [सं०] सिंदूर या इंगुर जिसे सीसे की उपधातु माना गया है। | 
			
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				| सीस्तान					 : | पुं० [फा०] ईरान के दक्षिण में स्थित एक प्रदेश। | 
			
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				| सीह					 : | स्त्री० [सं० सीधु=मघ] महक। गंध। पुं० १.=सिंह। २. =सेही। (साही-जन्तु) ३.=शीत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| सीस-गोस					 : | पुं०=स्याह-गोश। | 
			
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				| सीहण (णी)					 : | स्त्री० [सं० सिहनी] १. सिंह की मादा। शेरनी। उदा०—‘सीहण रण साकै नहीं, सीह जणे रणसूर’।—बाँकीदास। | 
			
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				| सीहुँड़					 : | पुं० [सं० सीहुँड़+वृषो दीर्घा] सेहुँड़। थूहर। | 
			
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