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भारत में राष्ट्रवाद

डॉ. शालिनी मिश्रा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1122
आईएसबीएन :9781613017593

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP-2020) के अनुरूप भारतीय विश्वविद्यालयों के बी.ए. सेमेस्टर-5 के पाठ्यक्रमानुसार

1857 के विद्रोह की प्रकृति

1857 के विद्रोह के विषय में इतिहासकारों में अनेक मतभेद हैं। यह विद्रोह कैसा था? इसका स्वरूप क्या था? इस विषय में जितने मत हैं, उतने ही नये प्रश्न भी खड़े हो जाते हैं। क्या यह विद्रोह पूर्व नियोजित था? क्या यह एक सिपाही विद्रोह था? आम जनता की क्या भूमिका थी? समाज पर इस विद्रोह की क्या प्रतिक्रिया थी? आदि विचारात्मक प्रश्न उठते है अतः इन प्रश्नों की जिज्ञासा को शान्त करना भी अत्यन्त आवश्यक है।

कार्ल मार्क्स ने अपने लेखों में 1857 के इस महत्वपूर्ण विद्रोह को स्वतन्त्रता हेतु किये गये राष्ट्रवादी संघर्ष के रूप में अंकित किया है। कुछ मार्क्सवादी लेखकों ने इस घटना को शोषण की सामंती व्यवस्था के खिलाफ किसान विद्रोह के रूप में वर्णित किया। महान क्रान्तिकारी विनायक दामोदर सावरकर ने इस विद्रोह को स्वतन्त्रता हेतु पहला संग्राम बताया।

इस क्रान्ति की शताब्दी पर डॉ० रमेश चन्द्र मजूमदार ने 'सिपाही विद्रोह' और अपनी एक अन्य पुस्तक में इस विद्रोह के विषय में लिखा और उसका प्रकाशन कार्य करवाया, उसमें भी इसे सिपाही विद्रोह कहा गया। इसके अतिरिक्त कुछ स्थानों पर सिपाहियों के साथ कुछ विशिष्ट एवं कुछ सामान्य लोग भी शामिल हुये। इन विशिष्ट लोगों में स्थानीय जमींदार, तालुकेदार और कुछ सामंत थे, अत: इसे सामन्ती प्रतिक्रिया भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य विचारकों के अनुसार इसे निम्नलिखित रूप में भी व्यक्त किया गया है-

(1) बर्बरता और सभ्यता के मध्य संघर्ष - टी. आर. होम्स (T. R. Holmes) के विचार से अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर बर्बर कार्यवाही किये जाने पर भारतीय उसे सहन न कर सके तथा उन्होंने विद्रोह कर दिया। होम्स के इस मत को स्वीकार करना कुछ कठिन है। भारतीय बर्बर नहीं थे। भारतीयों की संस्कृति प्राचीन काल से ही सबसे सभ्य संस्कृति के रूप में अपनी विशिष्टता बनाये हुये थी। अत: इसे सभ्यता और बर्बरता के मध्य संघर्ष नहीं कहा जा सकता।

(2) धार्मिक संघर्ष - सर जेम्स आउट्रम और रीज जैसे लेखकों ने इसे धार्मिकता के साथ जोड़ने का प्रयास किया परन्तु यह सत्य नहीं हो सकता। रीज इस विद्रोह को ईसाइयों के विरुद्ध संघर्ष तथा आउट्रम ने इसे मुसलमानों का अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष माना पर यह सत्य नहीं हो सकता। इस विद्रोह में हिन्दू और मुस्लिम दोनों वर्गों ने मिलकर धार्मिक समन्वयता के साथ प्रतिभाग किया। भारतीयों ने कभी भी विद्रोह में धार्मिक पक्ष को महत्व नहीं दिया। उन्होंने इसे कभी धार्मिक विद्रोह नहीं बनने दिया ।

इन सभी विचारों में 'सैनिक विद्रोह' का विचार अधिक मान्य है। डॉ० मजूमदार, सर जॉन लारेंस आदि इस मत को मानने वाले हैं। स्मिथ भी इसे सैनिक विद्रोह मानते थे जो संयुक्त रूप से भारतीय सैनिकों की अनुशासनहीनता एवं सैनिक अधिकारियों की मूर्खता का परिणाम मानते हैं।

डा. एस. एन. सेन ने भी अपनी पुस्तक 'एट्टीन फिफ्टी सेवेन' में तर्क दिया कि "यह आन्दोलन पूर्व नियोजित न था। इसका संचालन न तो भारत के राजनैतिक दल ने किया और न ही किसी अंग्रेज विरोधी विदेशी शक्ति ने। इसका आरम्भ सिपाहियों के असन्तोष से हुआ तथा जनसाधारण में व्याप्त असन्तोष से इसे बल मिला।"

अनेक विद्वानों ने यह समर्थन प्रस्तुत किया कि यह सैनिकों द्वारा किया गया विद्रोह था। इस विद्रोह में शामिल लोगों में राष्ट्रीयता की भावना व्याप्त नहीं थी। ये सभी व्यक्तिगत या स्थानीय स्वार्थ से प्रेरित थे। इसमें भाग लेने वाले सभी लोग किसी न किसी उद्देश्य को लेकर इसमें शामिल हुये थे। इस विद्रोह का क्षेत्र भी सीमित था अतः इसे सिपाही विद्रोह मानना ही उचित होगा।

आधुनिक भारतीय इतिहासकार यूरोपीय इतिहासकारों एवं कुछ भारतीय इतिहासकारों के मत से सहमत नहीं हैं कि 1857 का यह विद्रोह मात्र एक सैनिक विद्रोह था। सावरकर ने इसे अपनी पुस्तक में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी है। उनका मानना था कि कहीं न कहीं यहीं से लोगों के मन में विदेशी ताकत के विरुद्ध उठ खड़े होने की शुरुवात हुई। इस विद्रोह का उद्देश्य स्वराज्य था अशोक मेहता, ईश्वरी प्रसाद, प्रो. एस. बी. चौधरी आदि अनेक इतिहासकार इसे प्रथम संग्राम जो कि स्वतन्त्रता के उद्देश्य को लेकर किया गया था, मानते हैं। इस विद्रोह में सैनिकों ने अधिक संख्या में भाग लिया था परन्तु इसके अतिरिक्त बहुत अधिक संख्या में जनसाधारण भी इसमें शामिल था। सैनिक ही नहीं साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया तथा काफी संख्या में हताहत भी हुये।

1857 के जुलाई माह में लखनऊ में 'फतेह इस्लाम' नामक प्रकाशित एक पत्रिका में यह कहा गया था कि "प्रत्येक नगर के लोगों को चाहिये कि वे चाहे मुसलमान हों या हिन्दू अपने नगर के लिये एक नेता बनाकर इस दुष्ट कौम पर एक साथ आक्रमण कर दें। अगर एक ही दिन आक्रमण किया जाता है तो बहुत ही अच्छा होगा। अगर यह न हो सके तो आक्रमण एक ही मास में दो चार दिनों के अन्तर पर सब जगह होना चाहिये ताकि इन शापग्रस्त लोगों (अंग्रेजों) को नगर में एकत्रित होने का अवसर न मिले, वे थोड़ी-थोड़ी संख्या में इधर-उधर बंटे रहें और सरलता से उन्हें नष्ट किया जा सके।"

इससे यह स्पष्ट होता है कि इसमें हिन्दू मुस्लिम दोनों ही वर्गों ने मिलकर कार्य किया तथा डा. ईश्वरी शरण का कथन भी सत्य प्रतीत होता है कि यह विद्रोह कहीं न कहीं पूर्व नियोजित था। इस प्रकार पूर्ण रूप से योजनाबद्ध तरीके से गाँव-गाँव, शहर-शहर राष्ट्र के प्रति भावनाओं को जोड़ने का कार्य किया गया। ऐसा करने वाले देशभक्त राष्ट्रीयता के हित में प्रयास कर रहे थे। जहाँ तक प्रश्न उठता है डॉ. मजूमदार और डॉ. सेन के विचारों का उसे स्वीकार करना सम्भव नहीं प्रतीत होता। इस सन्दर्भ में हर्डीकर का कथन सबसे महत्वपूर्ण है कि "ये दोनों इतिहासकार इस क्रान्ति के पीछे की योजना, संगठन एवं कार्यक्रम को नहीं देखते।" इससे इस बात की पुष्टि हो जाती है कि राष्ट्रवादी विचारों से ओत-प्रोत योजनाबद्ध तरीके से जन साधारण का सहयोग लेते हुये कुछ विशिष्ट लोगों ने इस विद्रोह के कार्यक्रम को निर्धारित किया तथा इसे स्थानीय विद्रोह तक सीमित न रख लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत में इसे क्रियान्वित किया।

हम आज भी इस विषय को लेकर मतभेद उत्पन्न कर रहे है जबकि इंग्लैण्ड से प्रसिद्ध रुढ़िवादी नेता डिजरैली ने भी इसे 1857 में ही स्वीकार कर लिया था तथा हाउस ऑफ कामन्स में कहा, "यह आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलन था न कि सैनिक या सिपाही विद्रोह।"

यहाँ इस विद्रोह का स्वरूप स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि यह विद्रोह राष्ट्रीयता से ओत प्रोत 'प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम' का रूप था।

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