बी ए - एम ए >> भारत में राष्ट्रवाद भारत में राष्ट्रवादडॉ. शालिनी मिश्रा
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राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP-2020) के अनुरूप भारतीय विश्वविद्यालयों के बी.ए. सेमेस्टर-5 के पाठ्यक्रमानुसार
विद्रोह के कारण
1757 में प्लासी के युद्ध के बाद से ही अंग्रेजों की लगातार दमनकारी नीतियाँ और विस्तारवाद के कारण स्थानीय शासक तथा जनता भी परेशान थी। ब्रिटिश नीतियों के परिणामस्वरूप भारतीयों में असन्तोष की भावना बढ़ती चली गयी तथा 1857 के विद्रोह के रूप में व्यक्त हुई। कोई भी घटना अचानक से घटित नहीं होती है, उसके कई कारण होते हैं जो समानान्तर अपनी भूमिका निभाते हैं और एक पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं। परन्तु तात्कालिक कारण के बिना इस असंतोष की आग का भड़कना असम्भव होता है। जब समस्त कारण एक साथ उभरने लगे तभी मेरठ में फूटे आक्रोश ने क्रान्ति का स्वरूप धारण कर लिया। 1857 ई. में विद्रोह के निम्नलिखित कारण थे -
(1) राजनीतिक एवं प्रशासनिक कारण - अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति 1857 की क्रान्ति का प्रमुख राजनैतिक कारण था। लार्ड डलहौजी ने अपने प्रशासन काल में अनेक रियासतों को जबरन ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बनाने का प्रयत्न किया। इससे लोगों में असन्तोष की भावना बढ़ने लगी। असन्तोष के साथ असुरक्षा की भावना भी जाग्रत होने लगी। इसका प्रभाव सिर्फ शासक वर्ग ही नहीं बल्कि सामंत वर्ग, सैनिकों एवं जन सामान्य पर भी पड़ा। यह प्रभाव भारतीयों में डर के रूप में व्याप्त हो गया, अब भारतीय शासक अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हो गये।
अब सब संगठित होने लगे। नाना साहब, होल्कर, सिंधिया, असम, जयपुर, जोधपुर, रीवा, बड़ौदा, भुज, कच्छ, नागपुर, हैदराबाद, मैसूर, शोलापुर, कोल्हापुर, सतारा, इन्दौर आदि राज्यों के शासक अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित हो चुके थे। ऐसी परिस्थितियाँ बन चुकी थीं कि लोगों का तीव्र असन्तोष, राज्यों का विलय नये अंग्रेजी शासन की आशंका ने भारतीय प्रजा के मन मस्तिष्क को भयभीत कर रखा था। प्रजा अंग्रेजों को समर्थन नहीं दे रही थी विदेशी प्रजा ने अग्रेजों के विरुद्ध अपने शासक का साथ दिया जो अभी तक अंग्रेजों की नीतियों के समक्ष पंगु बन गये थे।
अंग्रेजों का मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के साथ किया जाने वाला दुर्व्यवहार हिन्दू और मुस्लिम दोनों पक्षों के लिये स्वीकार्य नहीं था। अत: धीरे-धीरे राजनैतिक असन्तोष गहरा होता चला गया जो 1857 के विद्रोह का प्रमुख कारण बना। इस व्यपगत नीति के तहत सभी स्थानीय शासकों को दबाव में लेकर उनसे उनके राज्य छीने जाने लगे थे। विभिन्न राज्यों के शासकों को पद से हटा वहाँ अंग्रेजी शासन लागू कर दिया गया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं दिया गया।
सतारा (1848), जैतपुर, संबलपुर एवं बुन्देलखण्ड (1849), बालाघाट (1850), उदयपुर (1852), झाँसी (1853), नागपुर (1954), अवध (1856) अंग्रेजी शासन द्वारा हड़प लिये गये। इससे शासक वर्ग तो कुपित था ही सैनिकों, अनुचरों एवं अनेक अधिकारियों की सेवायें समाप्त कर दी गयीं। इससे लोगों में जहाँ असन्तोष व्याप्त था वहीं राज्य साजिश का केन्द्र बनने लगे।
डलहौजी ने अंग्रेज समर्थक राज्यों को भी नहीं छोडा। कुशासन का आरोप लगा अवध को भी हस्तगत कर लिया गया। अब यह भी स्पष्ट हो गया कि अंग्रेजों से मित्रवत सम्बन्ध रखने का भी कोई महत्व नहीं था। पंजाब पर भी अधिकार करने के बाद राजकुमार दलीप सिंह को ईसाई बनाकर इंग्लैण्ड भेज दिया गया तथा कोहिनूर हीरे को भी अंग्रेजों ने हड़प लिया था। अमृतसर के दरबार साहब में जूते पहन कर पहुँचे डलहौजी ने सिखों के पवित्र स्थल का अपमान किया। इससे सिख भी अंग्रेजों से रुष्ट हो गये। डलहौजी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र (नाना साहब) के साथ भी इसी प्रकार की नीति अपनाई। नाना साहब को पेन्शन देना भी बन्द कर दिया गया। उनकी बिठूर की जागीर पर भी अंग्रेजों ने अधिकार करने का प्रयास किया अत: नाना साहब भी अंग्रेजों के विरोधी हो गये।
1854-56 के क्रीमिया युद्ध और उसके परिणामों को देखकर उस युद्ध मंी भाग लेने वाले अजीमुल्ला खाँ और अन्य सैनिकों के मन में विश्वास हो गया कि अंग्रेजों को भी परास्त किया जा सकता है। अतः भारतीयों को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रेरणा मिल गई।
यही अनेक कारण थे जब असन्तोष विद्रोह का रूप लेने की तैयारी करने लगा। यही राजनैतिक असन्तोष 1857 के विद्रोह का मुख्य कारण बना।
(2) सामाजिक कारण - ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के विस्तार के साथ अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ अमानवीय व्यवहार प्रारम्भ कर दिया। लोगों में इस बात को लेकर गुस्सा भड़कने लगा था। भारत में पश्चिमी सभ्यता का लगातार विकास हो रहा था। अंग्रेजी रहन-सहन, व्यवहार, उद्योगों आदि के कारण भारतीय सामाजिक मूल्य आहत होने लगे। भारतीयों को हीन सिद्ध करते हुये अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का अंग्रेजों का कदम कहीं न कहीं भारतीयों के मन में असन्तोष को बढ़ावा दे रहा था।
भारतीय परम्पराओं से जुड़ी सामाजिक गतिविधियों पर अंग्रेजों द्वारा हस्तक्षेप किया जाने लगा। अंग्रेजी भाषा एवं पश्चिमी व्यवहार समाज में पाँव पसारने लगे। इससे पुरातन विचारधारा आहत होने लगी तथा लोगों में इससे असन्तोष व्याप्त हो गया तथा यह गुस्सा थोड़े समयान्तराल पश्चात् विद्रोह के रूप में परिवर्तित हो गया।
(3) धार्मिक कारण - अंग्रेजों को अपने धर्म और उससे जुड़ी मान्यताओं पर गर्व था। वे उन्हें सर्वश्रेष्ठ मानते थे तथा भारतीय धर्म एवं परम्पराओं को हीन दृष्टि से देखते थे। 1813 में ईसाई मिशनरियों को भारत में स्थापित करने की अनुमति मिल गई । इससे अब अंग्रेज अपने धर्म का प्रचार प्रसार करने लगे। अब ईसाई धर्म को स्वीकार करने के लिये लोगों को प्रलोभन दिया जाने लगा। शिक्षण संस्थाओं में ईसाई धर्म की शिक्षा दी जाने लगी। शिक्षण संस्थाओं पर मिशनरियों का प्रभाव बढ़ने लगा, जो लोगों को ईसाई बनाने का उद्देश्य पूरा करने लगे। बाइबिल व ईसाई धर्म की सर्वोच्चता सिद्ध की जाने लगी। अकाल पीड़ितों, बन्दियों, विधवाओं, अनाथ बालकों व पिछड़ी जाति के लोगों को सबसे पहले ईसाई बनाया जाना प्रारम्भ कर दिया गया।
भारत के निवासियों में हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही थे। दोनों ही धार्मिक विवाद को ध्यान में रखते हुये अंग्रेजी संस्कृति के प्रसार से अपने धर्म के अस्तित्व को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से अंग्रेजों के विरुद्ध हो गये। इस धार्मिक प्रचार से हिन्दू और मुसलमान दोनों वर्ग असन्तुष्ट हो गये। सरकारी स्कूलों में बाइबिल का अध्ययन अनिवार्य था। भारतीयों को लोभ देकर धर्म से विमुख किया जाने लगा, इसलिये लोग सरकारी सुधारों को भी संदेह की दृष्टि से देखने लगे। भारतीयों में भय और संदेह व्याप्त हो गया कि उनके धर्म और संस्कृति को अंग्रेज समूल नष्ट कर देंगे। इससे धार्मिक असन्तोष की भावना जन्म लेने लगी। यह असन्तोष मौके की तलाश में ही था जो 1857 के विद्रोह की परिस्थितियों में उन्हें मिल गया।
(4) आर्थिक कारण - अंग्रेज भारत का आर्थिक रूप से भी शोषण कर रहे थे। एक व्यापारिक कम्पनी से कार्य करना प्रारम्भ करने वाली कम्पनी राजनैतिक सत्ता का लाभ उठाने के लिये लालायित हो गयी थी। सदैव ही अंग्रेजों का ध्येय अधिक से अधिक लाभ उठाना ही रहा है। अंग्रेजों की व्यापारिक नीति ने भारत के व्यापार तथा उद्योग धन्धों को नष्ट करने का सफलतम् प्रयास किया। भारत के कच्चे माल पर बहुत कम निर्यात कर था तथा आयात कर बहुत अधिक था। भारत से भेजा जाने वाला सूती व रेशमी कपड़ा इस कारण धीरे-धीरे बन्द हो गया। इस प्रकार भारत का कपड़ा उद्योग और कपड़ा व्यापार धीरे-धीरे समाप्ति की ओर चल पड़ा। लाखों व्यक्ति बेरोजगार हो गये। कुटीर उद्योगों पर भी चोट की जाने लगी। औद्योगिक क्रान्ति के परिणाम स्वरूप इंग्लैण्ड में कारखानों की स्थापना हो चुकी थी अत: उपनिवेश उनके लिये महत्वपूर्ण थे। यहाँ से कच्चा माल सस्ते दामों में खरीद कर वहाँ भेजा जाता था।
अंग्रेज भारतीयों से दोहरा फायदा वसूल करते थे । भारत का व्यापार, उद्योग तो नष्ट होने ही लगा उसी के साथ अंग्रेजों की भू-राजस्व नीतियां ऐसी थी कि किसान वर्ग भुखमरी की कगार पर पहुँच गया। सरकार ने वंशानुगत भूमिपतियों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया। कर-मुक्त भूमि भी सरकार के अधिकार में थी। ऐसे में किसान वर्ग के साथ जमींदार वर्ग भी परेशान था। किसानों पर कर का बोझ बढ़ने लगा। इस समय कुल उपज का 55% सरकारी कर के रूप में देने का आदेश था। अंग्रेजों की आर्थिक-व्यापारिक नीतियों ने भारतीय समाज के लोगों की स्थिति को शोचनीय बना दिया। 1790 से 1857 के मध्य 12 बड़े अकाल भी पड़े जिसमें किसानों को कोई भी सुविधा प्रदान नहीं की गई। अब भारतीयों ने ब्रिटिश शासन को जड़ से उखाड़ फेकने का मन बना लिया। आर्थिक शोषण से उनके मन व्यथित हो चुके थे जिसने 1857 की क्रान्ति में बढ़ते असन्तोष के साथ शामिल होने का मन बना लिया।
(5) सैन्य कारण - अनेक ऐसे कारण थे कि अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिक अंग्रेजी शासन से असन्तुष्ट थे। इन सैनिकों में असन्तोष व्याप्त था। इन सैनिकों की स्थिति काफी खराब थी। अवध विलय से अवध के सैनिक जो अंग्रेजी सेना में थे वे नाराज हो गये। पंजाब के लोगों को जो सेना में थे उन्हें दाढ़ी-मूँछ और बाल बनवाने हेतु मजबूर किया गया। रहन-सहन में भी भारतीय सैनिक अपने धर्म के नष्ट हो जाने से भी भयमीत थे। सेना में भारतीयों को पदोन्नति नहीं दी जाती थी। बहुत कम पदोन्नति के अवसर भारतीयों को मिलते थे। सूबेदार से ज्यादा बड़ा पद उन्हें नहीं दिया जाता था। अंग्रेजी सैनिकों की तुलना में भारतीयो को बेतन भी कम मिलता था। वर्दी एवं खाने के पैसे भी उनके बेतन से काट दिये जाते थे।
भारतीय सैनिकों को आवश्यकता पड़ने पर भारत से बाहर भी भेजा जाता था जिसे उस समय का भारतीय समाज धर्म और परम्पराओं के नाम पर स्वीकार नहीं करता था। अंग्रेज भारतीय सैनिकों के साथ उचित व्यवहार नहीं करते थे। इससे भारतीय सैनिकों में असन्तोष फैल गया। समय-समय पर अनेक सैनिक विद्रोह हुये परन्तु अंग्रेजी सरकार ने कठोरतापूर्वक इसका दमन कर दिया। यहाँ असन्तोष समाप्त नहीं हुआ बल्कि दबे पांव बढ़ता ही गया। 1857 में चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग के दबाव पड़ते ही विस्फोट स्वरूप यह विद्रोह फूट पड़ा।
(6) तात्कालिक कारण - असन्तोष तो प्रत्येक क्षेत्र में घट रही राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सैनिक घटनाओं से लगातार बढ़ ही रहा था परन्तु इसमें चिंगारी का काम 1856 में भारतीय व्यवस्था में कम्पनी सरकार ने पुरानी बन्दूकों को हटाकर नवीन 'एनफील्ड राइफल' का प्रयोग करने की बात ने किया। इसमें जो कारतूस प्रयोग किये जाते थे उन्हें राइफल में डालने से पहले मुँह से खोलना पड़ता था। 1857 में बंगाल में यह प्रचार हुआ कि इस कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी है जिससे भारतीय हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही धर्म से भ्रष्ट हो जायेंगें। इस कारतूस और राइफल का प्रशिक्षण बंगाल में दमदम क्षेत्र में चल रहा था। इस बात ने आग में घी का काम किया और विद्रोह का प्रारम्भ हो गया।
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