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शैक्षिक तकनीकी एवं कम्प्यूटर अनुदेशन

जे सी अग्रवाल

एस पी कुलश्रेष्ठ

प्रकाशक : अग्रवाल पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :424
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2534
आईएसबीएन :9789385079665

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चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ एवं डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद के दो वर्षीय बी. एड. के नवीनतम् पाठ्यक्रमानुसार


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सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी
Information and Communication Technology

आज के वैज्ञानिक युग में तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ ज्ञान का भी विस्फोट हुआ है। तीव्र गति से बढ़ते हुए ज्ञान को संचित करने, व्यवस्थित करने, नियन्त्रण एवं संप्रेषित करने के लिए विकसित सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के ज्ञान एवं उपयोग की आवश्यकता है। सूचना शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया जाता है, जैसे

साधारण जानकारी प्राप्त करना।
प्राप्त जानकारी या सूचना को दूसरों तक पहुँचाना।
सम्बन्धित आँकड़ों का संग्रह एवं आदान-प्रदान करना।

उदाहरणार्थ-यदि हम यह जानना चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश के विभिन्न विद्यालयों में बारहवीं कक्षा का परिणाम कैसा रहा, तो इस जानकारी को प्राप्त करने के लिए हमें विद्यालयों के परीक्षा परिणाम सम्बन्धी आँकड़े एकत्रित करने होंगे तथा उनका सार्थक विश्लेषण कर निष्कर्ष निकालना होगा। इस दृष्टि से 'सूचना' शब्द की परिभाषा निम्न प्रकार की जा सकती है

"सूचना से अभिप्राय उन आँकड़ों से है जिनका प्रयोग किसी निष्कर्ष तक पहुँचने में किया जाता है। सूचनाएँ एकत्रित करने का कार्य हम विभिन्न माध्यमों से कर सकते है जिनका वर्णन इसी अध्याय में आगे दिया गया है।

सूचनाओं से सम्बन्धित निम्नलिखित बातें अत्यन्त आवश्यक हैं—

1. सभी स्रोतों से सूचनाएँ प्राप्त करना।
2. उन्हें सुरक्षित रखना।
3. समय पर उनका उचित उपयोग करना।
4. सूचनाओं का विश्वसनीय (Reliable) एवं वैध (Valid) होना
5. एकत्रित की गई सूचनाओं का सभी दृष्टियों से पूर्ण होना।
6. सूचनाओं का अपने शुद्ध एवं मूलरूप में उपलब्ध होना।

सूचना प्राप्ति के घटक (साधन)
[COMPONENTS (SOURCES) OF INFORMATION RECEIVING|

सूचना प्राप्त करने के अग्रलिखित स्रोत व घटक (साधन) हैं
 
1. मुद्रित संचार साधन–पाठ्य-पुस्तके, सन्दर्भ ग्रन्थों, पाठ्यक्रम से सम्बन्धित पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, वाचनालय तथा अन्य सार्वजनिक वाचनालय।
2. प्रत्यक्ष जानकारी देने वाले साधन-बाग-बगीचे, नदी, पर्वत, ऐतिहासिक एवं भौगोलिक स्थान, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक अनुभव इत्यादि।
3. दृश्य-श्रव्य साधन-चित्र, चार्ट, रेडियो, टेलीविजन आदि। उपर्युक्त के अतिरिक्त शिक्षकों. सहपाठियों, सहकर्मियों, अभिभावकों, परिजनों तथा समाज के सदस्यों द्वारा भी औपचारिक व अनौपचारिक रूप से सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।

सम्प्रेषण "सम्प्रेषण' शब्द के अन्तर्गत 'प्रेषण एवं प्रेषित करना क्रियाएँ सम्मिलित हैं। अतः सम्प्रेषण का तात्पर्य सूचनाओं अर्थात किसी भाव या विचार को दूसरों तक पहुँचाना है। पत्र, टेलीफोन, टेलीग्राम, फैक्स इत्यादि द्वारा संदेश प्रेषित करना जैसे-वाक्यों का प्रयोग अधिकांशतः दैनिक जीवन में करते रहते हैं। यह प्रेषण एक पक्षीय होता है क्योंकि इसमें विचार, सूचना या संदेश सूचना प्राप्त करने वाले व्यक्ति तक केवल पहुँचाने की बात है। सम्प्रेषण इससे कुछ अधिक व्यापक प्रत्यय है। इसमें विचार, सूचना या संदेह भेजने का धैर्य एक पक्षीय न होकर द्वि-या बहुपक्षीय बन जाता है। सम्प्रेषण में क्रिया स्रोत (भेजने वाला) तथा प्राप्तकर्ता दोनों के मध्य समान रूप से वितरित होती है तथा इसकी सफलता के उत्तरदायी भी दोनों ही होते हैं। यहाँ विचारों तथा भावों का एक तरफा हस्तान्तरण न होकर पारस्परिक रूप से आदान-प्रदान होता है। इस प्रकार सम्प्रेषण को एक सहयोगात्मक प्रक्रिया भी कहा जाता है।

विचार के आदान-प्रदान के लिए शाब्दिक एवं अशाब्दिक (Verbal and Non-Verbal) दोनों ही प्रकार के संकेतों का प्रयोग किया जाता है। शाब्दिक संकेतों के अन्तर्गत भाषा का प्रयोग किया जाता है जिसे प्राप्तकर्ता आसानी से समझ सकता है और अशाब्दिक के अन्तर्गत चित्रों, संकेतों, चिह्नों, इत्यादि का प्रयोग किया जाता है।

सम्प्रेषण के प्रकार

(TYPES OF COMMUNICATION) सम्प्रेषण निम्नलिखित प्रकार का हो सकता है

(1) शाब्दिक सम्प्रेषण (Verbal Communication)-कक्षा-कक्ष की परिस्थितियों में शिक्षक एवं विद्यार्थियों के मध्य सम्प्रेषण को इस प्रकार को देखा जा सकता है। कक्षा में शिक्षक सूचनाओं व विचारों को मौखिक एवं लिखित दोनों ही रूपों में विद्यार्थियों तक पहुँचाता है। शाब्दिक सम्प्रेषण में उसी भाषा का प्रयोग किया जाता है जो सरल एवं सुगम्य हो, स्रोत तथा प्राप्तकर्ता दोनों को ही उसके प्रयोग में कठिनाई न हो।
(2) अशाब्दिक सम्प्रेषण (Non-Verbal Communication)-भाषा प्रयोग में कुशल होने के उपरान्त भी हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अशाब्दिक सम्प्रेषण का प्रयोग करते ही रहते हैं। जिन लोगों को भाषा का ज्ञान नहीं होता या वे सुनने बोलने, पढ़ने, लिखने आदि में असमर्थ होते है, उनके द्वारा सम्प्रेषण के इसी रूप का प्रयोग किया जाता है। अशाब्दिक सम्प्रेषण के कई प्रकार होते हैं

(1) मुख मुद्रा (Facial Expressions)
 (2) आँखों की भाषा (Linguage of Eyes)
 (3) शारीरिक भाषा (Body Language)
 (4) वाणी या ध्वनि संकेत (Sound Symbols)
 (5) सकेतात्मक कूट भाषा इत्यादि (Symbolic Code Language)
 
(3) स्वाभाविक सम्प्रेषण (Natural Communication)-जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों का समूह बिना किसी कृत्रिम साधन या उपकरण की सहायता से स्वाभाविक रूप से विचारों तथा भावों का आदान-प्रदान करते हैं, तो उसे प्राकृतिक या स्वाभाविक सम्प्रेषण कहते हैं। इस प्रकार के सम्प्रेषण के निम्नलिखित रूप हो सकते हैं—

(1) द्विवैयक्तिक सम्प्रेषण (One to One Communication)
(2) लघु समूह सम्प्रेषण (Small Group Communication)
(3) दीर्घ समूह सम्प्रेषण (Large Group Communication)
(4) सार्वजनिक सम्प्रेषण (Public Communication)
(5) संगठन या संस्थागत सम्प्रेषण (Organisation or Institutional Communication)|

(4) यान्त्रिक सम्प्रेषण (Mechanical Communication)-जब व्यक्ति या समूह द्वारा सम्पन्न सम्प्रेषण में यन्त्रों या मशीनों का प्रयोग किया जाता है, तो उसे यान्त्रिक या मशीनी सम्प्रेषण कहा जाता है। इस सम्प्रेषण का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक होता है। रेडियो, ऑडियो, टेलीफोन, टेलीप्रिन्टर, पेजिंग, फिल्म, सिनेमा, वीडियो रिकॉर्डिंग, उपग्रह, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तकें आदि सभी साधनों का प्रयोग इस प्रकार के सम्प्रेषण में माध्यम के रूप में किया जाता है। यह एक प्रकार का अप्रत्यक्ष सम्प्रेषण है, जिसमें सोत और प्राप्तकर्ता के मध्य कोई प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं होता, लेकिन कोई व्यक्ति या संगठन अपने विचारों एवं भावों को एक समय में अधिक से अधिक व्यक्तियों तक पहुंचा सकता है।

सम्प्रेषण सिद्धान्त (Principle of Communication) सम्प्रेषण एक द्विपक्षीय प्रक्रिया Two-way Process) है। इसकी प्रभावशीलता हेतु निम्नलिखित सिद्धान्तों का अनुसरण करना आवश्यक है, जैसे

1. तत्परता का सिद्धान्त (Principles of Readiness)-सम्प्रेषण प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्प्रेषणकर्ता एवं प्राप्तकर्ता दोनों का ही सक्रिय, सजग एवं तत्पर रहना आवश्यक है। दोनों में से यदि एक भी सूचना या विचार को प्रेरित करने एवं ग्रहण करने के लिए तत्पर नहीं है या इच्छुक नहीं है, तो सम्प्रेषण प्रक्रिया की प्रभावशीलता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और वाछित परिणाम प्राप्त नहीं हो सकेंगे।

2. सक्षमता का सिद्धान्त (Principle of Competeney)-सम्प्रेषणकर्ता एवं प्राप्तकर्ता दोनों में योग्यता एवं सक्षमता का होना आवश्यक है। उदाहरणार्थ-यदि कोई शिक्षक विषय सम्बन्धी आवश्यक ज्ञान नहीं रखता है या उसे विषय-वस्तु पर स्वामित्व प्राप्त नहीं है, तो वह कक्षा सम्प्रेषण में प्रभावी भूमिका नहीं निभा पाएगा। यही बात प्राप्तकर्ता में अर्थात् विद्यार्थियों के सम्बन्ध में सही सिद्ध होती है। यदि उनमें विचार या विषय-वस्तु को समझने की योग्यता कुशलता नहीं है तो वे पूर्ण रूप से लाभान्वित नहीं हो सकेंगे। अतः सम्प्रेषणकर्ता एवं प्राप्तकर्ता के मध्य विचारों को सम्प्रेषित करने, ग्रहण करने एवं अन्त क्रिया सम्बन्धी योग्यताओं एवं क्षमताओं का होना आवश्यक है तभी सम्प्रेषण प्रक्रिया को प्रभावी एवं सफल बनाया जा सकता है।

3.अन्त:क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction)-सम्प्रेषण प्रक्रिया के द्विपक्षीय होने के कारण सम्प्रेषणकर्ता व प्राप्तकर्ता के मध्य अन्त क्रिया होना स्वाभाविक है। कक्षा-कक्ष परिस्थितियों में शिक्षक एवं विद्यार्थियों के बीच अन्त क्रिया जितनी अधिक होती है, सम्प्रेषण प्रक्रिया उतनी
अधिक पभावी होता है।

4. सम्प्रेषण सामग्री की उपयुक्तता का सिद्धान्त (Principle of Appropriateness of Communication MaterialyContent)-सम्प्रेषण सामग्री से अभिप्राय उन विचारों, भावों व सूचनाओं से है जिनको सम्प्रेषणकत्ता द्वारा संप्रेषित किया जाना है। इस सम्प्रेषण सामग्री का उपयुक्त होना आवश्यक है। यदि शिक्षक योग्य है और उसमें सम्प्रेषण कुशलता भी है, लेकिन सम्प्रेषण सामग्री या शिक्षण-अधिगम अनुभव उपयुक्त या प्रभावी नहीं है, तो सम्प्रेषण का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। अतः उद्देश्य प्राप्ति, सफलता एवं प्रभावी अन्त क्रिया के लिए आवश्यक है कि सम्प्रेषण सामग्री उपयुक्त हो तथा सम्प्रेषणकर्ता एवं प्राप्तकर्ता के स्तर, योग्यताओं, क्षमताओं एवं कौशल ज्ञान के अनुरूप होना चाहिए।

5. सम्प्रेषण माध्यम की उपयुक्तता का सिद्धान्त (Principle of Appropriate-ness or Communication Media)-सम्प्रेषणकर्ता द्वारा विषयवस्तु, विचार, सूचना या अनुभव को प्राप्तकर्ता तक पहुँचाने के लिए उपयुक्त माध्यम की आवश्यकता होती है। यही माध्यम दोनों के मध्य सम्प्रेषण की कड़ी को जोड़ता है। सम्प्रेषण माध्यम जितना अधिक उपयुक्त एवं सशक्त होगा. सम्प्रेषण मी उतना ही अधिक प्रभावी होगा। अत: कक्षा-कक्ष परिस्थितियों में शिक्षक को अपने सम्प्रेषण में शाब्दिक तथा अशाब्दिक (Verbal and Non-verbal) दोनों प्रकार के माध्यमों का आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए। सम्प्रेषण प्रक्रिया को सजीव, निरन्तर एवं प्रभावपूर्ण बनाने के लिए दृश्य, श्रव्य एवं अन्य संवेदनात्मक अनुभूतियों से सम्बन्धित साधनों एवं माध्यमों का भी प्रयोग करना चाहिए।

6. अभिप्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation)-सम्प्रेषण प्रक्रिया के समय सम्प्रेषणकर्ता एवं प्राप्तकर्ता दोनों का ही सजग, उत्साही और अभिप्रेरित रहना अनिवार्य है। अभिप्रेरणा का मुख्य उद्देश्य किसी कार्य को प्रारम्भ करना, जारी रखना एवं समाप्ति के स्तर पर पहुँचाना है। यदि दोनों में से कोई भी एक अभिप्रेरित नहीं है, तो सम्प्रेषण की सफलता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और वांछित परिणाम भी प्राप्त नहीं हो सकेंगे।

7.पृष्ठपोषण का सिद्धान्त (Principle of Feedback)-सम्प्रेषण की प्रभावशीलता प्राप्तकर्ता से सम्प्रेषणकर्ता को मिलने वाले पृष्ठपोषण पर निर्भर करती है। उदाहरणार्थ-कहानी सुनाने वाले (सम्प्रेषणकर्ता) को सुनने वाले से जब तक शाब्दिक या अशाब्दिक रूप से पृष्ठपोषण प्राप्त होता रहता है तभी तक उसकी रुचि एवं उत्साह उस कहानी को पूरा करने में लगा रहता है और उसे जैसे ही सुनने वाले की अरुचि और अनिच्छा का आभास होता है, सम्प्रेषण का प्रवाह कम या बन्द हो जाता है। इसी प्रकार कक्षा में शिक्षक का उत्साह एवं सजगता विद्यार्थी की भागीदारी और रुचि पर निर्भर करती है। विद्यार्थियों की भागीदारी और रुचि को देखकर सम्प्रेषणकर्ता को पृष्ठपोषण प्राप्त होता है जो सम्प्रेषण प्रक्रिया में सुधार करने एवं उसे प्रभावी बनाने के लिए महत्वपूर्ण है।

8. प्रभावी कारकों का सिद्धान्त (Principle of Effective Factors)-सम्प्रेषण प्रक्रिया को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बहुत से तत्व एवं परिस्थितियाँ प्रभावित करती हैं। इन परिस्थितियों एवं कारकों का सम्बन्ध सम्प्रेषणकर्ता एवं प्राप्तकर्ता दोनों से ही होता है। यह कारक सहायक के रूप
 में भी होते हैं और बाधक के रूप में भी। सहायक के रूप में यह तत्व एवं परिस्थितियाँ शिक्षक
और विद्यार्थी के मध्य सम्प्रेषण व अन्त क्रिया में सहायता करती हैं तथा शोरगुल, प्रकाश का अभाव, देखने, सुनने में आने वाली कठिनाइयों के रूप में बाधक तत्वों की उपस्थिति सम्प्रेषण प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करती है। सम्प्रेषण में बाधक तत्वों का प्रभाव जितना कम होगा, सम्प्रेषण उतना ही अधिक प्रभावशील एवं प्रभावपूर्ण बना रहेगा। अतः प्रभावी सम्प्रेषण के लिए बाधक तत्वों एवं परिस्थितियों को नियन्त्रित करके सहायक परिस्थितियों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

सम्प्रेषण की प्रक्रिया
(PROCESS OF COMMUNICATION) सम्प्रेषण की प्रक्रिया को निम्न प्रकार समझा जा सकता है
(Barriers in Communication)
सम्प्रेषण सामग्री (Communication
Material)
सम्प्रेषण माध्यम (Communication Media)
प्राप्तकर्ता (Receiver)
(Source)
सम्प्रेषण को प्रभावित
(Factors affecting Communication)
सम्प्रेषण माध्यम (Communication Media)
अनुक्रियात्मक व्यवहार पृष्ठ पोषण (Respondant or behaviour
Feedback)
सम्प्रेषण प्रकिया

(1) सम्प्रेषण स्रोत (Communication Sultur Communicator)-सम्प्रेषण प्रक्रिया का सोत उस व्यक्ति को माना जाता है जिसके द्वारा विचारों तथा भावों के आदान-प्रदान का प्रारम्भ किया जाता है। जब तक कोई व्यक्ति अपने विचारों या भावों को किसी व्यक्ति को प्रेषित करने के लिए तैयार नहीं होता तब तक सम्प्रेषण प्रक्रिया शुरू नहीं हो सकती। अतः स्रोत सम्प्रेषण प्रक्रिया का वह प्रारम्भिक बिन्दु है जिसके द्वारा विचारों व भावों को दूसरे व्यक्ति या व्यक्ति समूहों तक पहुँचाया जाता है।

(2) सम्प्रेषण सामग्री (Contents of Communication)-स्रोत या सम्प्रेषणकर्ता द्वारा अपने विचारों, भावों तथा अनुभवों को जिस रूप में प्रेषित किया जाता है, उसे ही सम्प्रेषण सामग्री कहा जाता है। सोत द्वारा सामग्री का प्रस्तुतीकरण जितना अच्छा होता है, उसके प्राप्तकर्ता पर प्रभाव उतना ही अधिक होता है। सम्प्रेषण प्रक्रिया को प्राप्तकर्ता का सहयोग अभिप्रेरणा, सामग्री की गुणवत्ता प्रभावित करती है।

(3) सम्प्रेषण माध्यम (Communication Media)-अपने विचारों तथा भावों को दूसरों तक पहँचाने एवं दूसरों की भावनाओं एवं विचारों को ग्रहण करने तथा उनके प्रति अपनी अनुक्रिया
 व्यक्त करने के लिए जिन माध्यमों या साधनों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें सम्प्रेषण माध्यम कहते हैं। ये माध्यम शाब्दिक, अशाब्दिक, लिखित व मौखिक किसी भी रूप में हो सकते हैं।
 
(4) प्राप्तकर्ता (Receiver)-स्रोत द्वारा प्रेषित भाव, विचार व संदेश को जिस व्यक्ति विशेष या समूह द्वारा ग्रहण किया जाता है, उसे प्राप्तकर्ता कहते हैं। सम्प्रेषण प्रक्रिया में प्राप्तकर्ता की भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण होती है, जितनी सम्प्रेषणकर्ता या सोत की। सम्प्रेषण प्रक्रिया की प्रभावशीलता पर सम्प्रेषण प्राप्तकर्ता की रुचि, योग्यता, दक्षता इत्यादि का प्रभाव पड़ता है। अतः संदेह सम्प्रेषण व विचार ग्रहण करने हेतु प्राप्तकर्ता का पूर्ण सक्षम, क्रियाशील एवं अभिप्रेरित रहना आवश्यक है।

(5) अनुक्रियात्मक व्यवहार या पृष्ठपोषण (Respondent Behaviour or Feedbrick) सम्प्रेषण माध्यम द्वारा सम्प्रेषित सामग्री को प्राप्तकर्ता द्वारा किस रूप में ग्रहण किया गया या समझा गया है तथा उसके प्रति उसने क्या अनुक्रिया अभिव्यक्त की है, इसी को अनुक्रियात्मक व्यवहार या पृष्ठपोषण कहते हैं। इसी अनुक्रियात्मक व्यवहार या सामग्री को उचित सम्प्रेषण माध्यम द्वारा स्रोत तक पहुँचाने की प्रभावशीलता पर सम्प्रेषणकर्ता और प्राप्तकर्ता के मध्य सम्प्रेषण की निरन्तरता निर्भर करती है।

(6) सम्प्रेषण को प्रभावित करने वाले तत्व (Factors Affecting Communication) सम्प्रेषण प्रक्रिया को दोनों ही प्रकार के कारक प्रभावित करते हैं अर्थात इसकी सफलता और असफलता सहायक एवं बाधक तत्वों पर निर्भर करती है। संप्रेषित सूचना या विचार को सम्प्रेषणकर्ता से प्राप्तकर्ता और प्राप्तकर्ता से सम्प्रेषणकर्ता तक पहुँचाने में सम्प्रेषण माध्यमों को भी ये तत्व प्रभावित करते हैं।

सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी
(INFORMATION AND COMMUNICATION TECHNOLOGY-ICT)

आज का युग विज्ञान एवं तकनीकी का युग है। वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष एवं क्रिया को प्रभावित किया है। इसके प्रभाव से शिक्षा भी अछूती नहीं रही है। आज शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान की नित नवीन शाखाओं का विकास हो रहा है। इस ज्ञान को आत्मसात करने, ज्ञान का संचय, प्रसार एवं वृद्धि एवं सम्प्रेषण के लिए विकसित तकनीकी के ज्ञान एवं उपयोग की आवश्यकता है, और इस आवश्यकता की पूर्ति केवल सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी (ICT) द्वारा ही सम्भव है। सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी से अभिप्राय "यन्त्रो, उपकरणों एवं अनुप्रयोग आधार से युक्त एक ऐसी तकनीकी से है जो सूचना के एकत्रीकरण, भंडारण या संचयीकरण, पुनः प्रस्तुतीकरण, उपयोग, स्थानांतरण, संश्लेषण, विश्लेषण एवं आत्मसातीकरण के विश्वसनीय एवं यथार्थ संपादन में सहायक सिद्ध होते हुए उपयोगकर्ता को अपना ज्ञानवर्द्धन करने तथा उसके सम्प्रेषण को प्रभावी बनाने तथा निर्णय क्षमता एवं समस्या समाधान योग्यता में वृद्धि करने में यथासम्भव सहायक सिद्ध होती है।"

"Information and communication technology is that type of technology employed in the shape of tools, equipments and application support which helps in the collection, storage, retrieval, use, transmission, manipulation and dissemination of information as accurately and efficiently as possible for the purpose of enriching the knowledge and develop communication, decesion making as well as problem solving ability of the
user,"

 सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का उद्भव एवं विकास
(ORIGIN AND DEVELOPMENT OF INFORMATION AND
COMMUNICATION TECHNOLOGY)

 सूचनाओं के एकत्रीकरण एवं सम्प्रेषण की कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी कि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति जब कोई यान्त्रिक साधन उपलब्ध नहीं थे, उस समय भी सूचनाओं का एकत्रीकरण, संग्रह तथा स्थानान्तरण होता था। समस्त ज्ञान कंठस्थीकरण के माध्यम से स्मृति रूप में मस्तिष्क में संजोया जाता था और मौखिक रूप से इसका हस्तांतरण किया जाता था। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ ज्ञान का क्षेत्र असीमित होता चला गया। जनसंख्या वृद्धि एवं वैयक्तिक भिन्नता के कारण सम्प्रेषण का कार्य अपने आप में एक समस्या बन गया। लेखन कला के प्रयोग को इस दिशा में प्रथम महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। सन 1450 में जर्मनी के गुटेनबर्ग (Gutenberg) द्वारा मुद्रण मशीन के आविष्कार ने सूचना तकनीकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस दिशा में किये गये प्रयास निम्न प्रकार हैं
 
11) 1849 में इंग्लैण्ड में तथा फ्रांस में छाया चित्र विज्ञान (फोटोग्राफी) का आविष्कार।
(2) 1900 में फ्रांस के प्रोफेसर ए.बी. रेने ग्राफीन द्वारा फोटोस्टेट तकनीक का आविष्कार।
(3) 1938 में अमेरिकन प्रोफेसर एफ. कार्लसन द्वारा जीरोग्राफी (Xerography) का आविष्कार।
(4) 1940 में इंग्लैण्ड के जे बी. डेंसर तथा फ्रांस के रेने डेमेन द्वारा माइक्रोग्राफी (Micrography) तकनीक का आविष्कार
(5) 1960 में अमेरिका के थियोडोर मेमनन द्वारा लेसर तकनीक का आविष्कार
(6) 20वीं शताब्दी में अति आधुनिक उपकरणों मैग्नेटिक वीडियो कैमरा, वीडियो डिस्क एवं संगणकों (Computers) का विकास इत्यादि

उपर्युक्त के अतिरिक्त दूर संचार (Telecommunication) तकनीकी के विकास ने भी सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के विकास में अपूर्व सहायता प्रदान की है। संदेश वाहक के रूप में कबूतरों के प्रयोग से आज हम सेटेलाइट संचार (Satellite Communication) सेवा तक पहुँच गये हैं। इस दिशा के कुछ महत्वपूर्ण आविष्कार इस प्रकार हैं

(1) 1837 में अमेरिका एस पी. बी. मोर्स द्वारा तार प्रणाली (Telegraphy) का आविष्कार
(2) 1876 में स्कॉटलैंड के अलेक्जेंडर ग्राहम बेल द्वारा टेलीफोन का आविष्कार।
(3) 1895 में इटली के जी. मारकोनी द्वारा रेडियो का आविष्कार।
(4)1925 में स्कॉटलैंड के जे.एल. बेयर्ड द्वारा टेलीविजन का आविष्कार।
(5) संचार उपग्रहों का आविष्कार एवं विकास इस दिशा में सर्वप्रथम स्पूतनिक उपग्रह 4 अक्टूबर, 1957 को सोवियत रूस द्वारा अंतरिक्ष में स्थापित किया गया।
(6) बीसवीं शताब्दी में केबिल एवं फैक्स तकनीक का विकास हुआ।

अतः उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही इन सबकी सहायता से

(i) सूचनाओं को एकत्रित करने
(ii) सूचनाओं का संग्रह करने
(iii) सूचनाओं को प्रस्तुत करने एवं
(iv) हस्तान्तरित करने के महत्वपूर्ण प्रयास प्रारम्भ हो गये थे।

सन 1950 में विश्व में सर्वप्रथम सूचना एवं सम्प्रेषण जगत में सूचना एवं सम्प्रेषण विज्ञान ( Information and Communication Science) शब्द का प्रयोग किया गया।
शनैः-शनैः सूचना एवं  सम्प्रेषण विज्ञान की परिधि में वृद्धि होती गयी और सन् 1960 में औद्योगिक क्षेत्र में भी इसका प्रयोग किया जाने लगा। कम्प्यूटर एवं सम्प्रेषण विज्ञान का प्रयोग हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों यथा-पुलिस, सेना, बैंकिंग, प्रबन्धन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, चिकित्सा सरकारी कार्यालयों, कानूनी सेवाओं. इत्यादि में किया जाने लगा। इसीलिए सूचना एवं सम्प्रेषण विज्ञान को आज सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी कहा जाने लगा है। वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में इसका उपयोग कक्षा शिक्षण-अधिगम, दूरवर्ती एवं ऑन लाइन शिक्षा तथा अन्य सभी प्रकार के औपचारिक एवं औपचारिक शिक्षण अधिगम में अधिकाधिक किया जाने लगा है तथा आने वाली पीढ़ी को सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के प्रयोग हेतु वाछित ज्ञान व कौशल प्रदान किया जा रहा है।

विद्यालयों में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का उपयोग -
(USE OF INFORMATION AND COMMUNICATION
TECHNOLOGY IN SCHOOLS)

 विद्यालयों में परम्परागत एवं आधुनिक दोनों ही प्रकार की तकनीकी का प्रयोग किया जाता है, जिसका वर्णन निम्न प्रकार है
सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकियों का प्रयोग प्राचीनकाल से ही किया जाता रहा है। इन्हें परम्परागत एवं आधुनिक तकनीकियों के रूप में समझा जा सकता है।

1. परम्परागत सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी-इस प्रकार की तकनीकी के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के साधन, उपकरण तथा सामग्री का उपयोग किया जाता है। जैसे—

मुद्रित साधन-पाठ्यपुस्तकें, सन्दर्भ ग्रन्थ, अन्य साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएँ आदि विद्यालय एवं सार्वजनिक पुस्तकालयों से उपलब्ध पठन सामग्री।
मौखिक सूचनाएँ एवं ज्ञान जैसे अध्यापकों, सहपाठियों, बड़ी कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों, मित्रों, माता-पिता तथा परिजनों एवं समाज के अन्य सदस्यों से औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से प्राप्त किया जा सकता है।
चित्रात्मक सहायक सामग्री जैसे-चित्र, मानचित्र, चार्ट, रेखाचित्र, पोस्टर, कार्टून आदि।
त्रिआयामी सहायक साधन जैसे-प्रतिरूप (नमूने), मॉडल, कठपुतलियाँ, मेकअप आदि।
दृश्य-श्रव्य साधन, जैसे-रेडियो, टेलीविजन स्लाइड, प्रोजेक्टर ओवरहैड प्रोजेक्टर चलचित्र या सिनेमा टेप-रिकॉर्डर ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग उपकरण शिक्षण मशीन आदि।
आधुनिक सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी

आधुनिक सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी परम्परागत तकनीकी की तरह एकांगी नहीं है। यह स्वयं में हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर, मीडिया तथा सम्प्रेषण प्रणालियों का सम्मिश्रण है। इनमें कुछ प्रमुख का उल्लेख निम्न प्रकार है

डिजीटल वीडियो कैमरा
मल्टीमीडिया पर्सनल कम्प्यूटर (PC): लैपटॉप तथा नोट बुक
एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर जैसे वर्ड प्रोसेसिंग, स्प्रेडशीट, पावर पाइंट, सिमुलेशन तथा स्पीच रिकोग्नीशन।
किसी बड़े समूह के साथ सम्प्रेषण करने के लिए मल्टीमीडिया प्रोजेक्टर (L.C.D. or
D.L.P.)| लोकल एरिया नेटवर्क (LAN). मैट्रोपोलिटन एरिया नेटवर्क (MAN) तथा वाइड एरिया नेटवर्क (WAN) |
वीडियो, डिजीटल वीडियो कैमरा या वैब कैमरा, साउंड कार्ड से युक्त मल्टीमीडिया पीसी या लैपटॉप। कम्प्यूटर के डेटा बेस तथा डेटा प्रोसेसिंग प्रक्रम-सी डी रोम तथा डी. वी. डी.।
डिजीटल लाइब्रेरी।
ई-मेल, इंटरनेट तथा वर्ल्ड वाइड वेबसाइट (www)|
हाइपरमीडिया तथा हाइपरटैक्स्ट रिसोर्सेज
वीडियो-ऑडियो कांफ्रेंसिंग।
वीडियो टेक्स्ट, टेली टेक्स्ट, इंटरएक्टिव वीडियो टेक्स्ट (IVD) तथा इंटरएक्टिव रिमोट कन्स्ट्रक्शन (IRC)।
वरचुअल क्लासरूम, ई-लर्निंग तथा वर्चुअल रिअलटी।

सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के प्रयोग में लाने वालों के प्रशिक्षण कार्यक्रम (TRAINING PROGRAMME FOR THE USERS OF INFORMATION AND COMMUNICATION TECHNOLOGY)

सूचना केन्द्र से सूचनाओं को भली-भाँति प्राप्त करने, व्यक्तिगत स्तर पर तथा समाज हित में उनका प्रयोग करने की दृष्टि से सूचना प्राप्त करने वालों के लिए उचित शिक्षण एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिए निम्नलिखित बातें सहायक सिद्ध हो सकती हैं—

1. जो सूचनाएँ प्राप्त हों, उन्हें मस्तिष्क में संजोकर उपयुक्त समय पर प्रयोग करने की क्षमता विकसित की जाए।
2. सूचनाओं के भण्डारण व उनकी व्यवस्था एवं पुनः प्रस्तुतीकरण हेतु किसी व्यवस्थित सूचना नियन्त्रण प्रणाली का प्रयोग करना सिखाया जाए।
3. प्रशिक्षणार्थी की निम्नलिखित योग्यताओं का विकास किया जाए, जैसे—

(i) पढ़ने की योग्यता का विकास।
(i) लिखने की योग्यता का विकास
(iii) कम्प्यूटर के प्रयोग की योग्यता का विकास। -
(iv) सूचनाओं का विश्लेषण एवं संश्लेषण कर उचित निष्कर्ष निकालने की क्षमता का विकास।
(v) सूचना सामग्री की सहायता से समस्या समाधान करने तथा निर्णय लेने की योग्यता का विकास।

4. विद्यार्थियों को प्रारम्भ से ही निम्नलिखित बातों का प्रशिक्षण दिया जाय

(i) ज्ञानेन्द्रियों का उपयुक्त प्रयोग।
(ii) अपने वातावरण, शिक्षण, अधिगम का परिस्थितियों में उपलब्ध समस्त जानकारियों एवं सूचनाओं को उनके मूल रूप में ठीक प्रकार से ग्रहण करना। उनकी व्यवस्था, नियन्त्रण एवं सम्प्रेषण के तरीकों से अवगत कराना।

अतः सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के प्रभावी प्रयोग के लिए विद्यार्थियों को प्रशिक्षण के माध्यम से वे सभी तरीके सिखाये जाने चाहिए जिनके द्वारा वे सूचनाएँ सरलता और विश्वसनीय ढंग से प्राप्त कर सकें तथा आवश्यकतानुसार उनका सही उपयोग भी कर सकें। उदाहरणार्थ-उन्हें यदि किसी पुस्तकालय से सूचना प्राप्त करनी है तो उन्हें पता होना चाहिए कि पुस्तकालय में पुस्तकों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है। इससे पुस्तकें खोजने में उन्हें सरलता होगी और वे पुस्तकालय सम्बन्धी स्रोत से सूचनाओं का संग्रह सम्यक रूप से कर सकेंगे।

आभासी कक्षा-कक्ष
(VIRTUAL CLASSROOM)

आधुनिक युग की महत्त्वपूर्ण देन कम्प्यूटर है। वर्तमान युग कम्प्यूटर का युग कहा जाता है। इसका उपयोग व्यापक है। कम्प्यूटर के उपयोग ने मानव जीवन को अधिक तीव्र तथा शुद्ध बना दिया है। विश्व का रूप भी छोटा कर दिया है। कम्प्यूटर समय, शक्ति एवं धन की दृष्टि से अधिक मितव्ययी आविष्कार है। इससे मानव की सक्षमता की वृद्धि हुई है। शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर सहायक अनुदेशन को विशेष महत्व दिया जाने लगा है। इसके पिरणमास्वरूप वर्तमान में शिक्षा के अनेक कम्प्यूटर माध्यमों का प्रयोग किया जाने लगा है, जैसे-इन्टरनेट नेटवर्किंग तथा ई-लर्निंग कम्प्यूटर की इन प्रमुख सेवाओं का उपयोग कक्षा शिक्षण में भी किया जाने लगा है।

आज कक्षा का अर्थ केवल आमने-सामने की कक्षा शिक्षण से ही नहीं रह गया है अपितु एक - दूर बैठा शिक्षक भी इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों की सहायता से अपने छात्रों को शिक्षण-अधिगम कर सकता है। आधुनिक युग में आभासी कक्षा-कक्ष (Virtual classroom) एक ऐसा कक्षा शिक्षण है जिसमें छात्र एवं अध्यापक बिना आमने-सामने बैठे भी वास्तविक कक्षा का आभास कर सकते हैं।

आभासी कक्षा-कक्ष का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning & Definitions of Virtual Classroom)

आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली से तात्पर्य ऐसी कक्षाओं से है जिनमें आधुनिक कम्प्यूटर तथा सम्प्रेषण तकनीकी व अन्य संसाधनों, जैसे-इन्टरनेट, ऑन लाइन चैटिंग, वर्ल्ड वाइड वेब (www) सी.डी. रोम तथा डी. वी. डी. मोबाईल आदि का प्रयोग करके शैक्षिक परिस्थितियों का आयोजन किया जाता है। यह एक ऐसा वेब आधारित माध्यम या शिक्षण-अधिगम वातावरण है जो विद्यालय या शिक्षक के पास जाए बिना ही छात्र को यहाँ चल रही शिक्षण-प्रशिक्षण सम्बन्धी गतिविधियों में भागीदारी निभाने में सक्षम बनाता है। छात्र को यह आभासी होता है कि वह शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का हिस्सा है क्योंकि वास्तविक कक्षा की भाँति यह व्याख्यान सुनता है, प्रश्न पूछता है, पृष्ठपोषण प्राप्त करता है तथा प्रयोगशाला सम्बन्धी कार्यों में हिस्सा लेता है।

आभासी कक्षा-कक्ष की विशेषताएँ
(Characteristics of Virtual Classroom)

आभासी कक्षा के अर्थ एवं परिभाषा के आधार पर इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं

1. आभासी कक्षा-कक्ष इलैक्ट्रॉनिक युग की आधुनिक शिक्षण, अधिगम व्यवस्था का उदाहरण है।
2. आभासी कक्षा-कक्ष में छात्रों को समय, स्थान और सीखने की गति की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। वह जब चाहे, जहाँ चाहे, जैसे चाहे अपनी सुविधा के अनुसार सीख सकता है।
 3. आभासी कक्षा में शिक्षक तथा छात्र अपने-सामने शिक्षण अधिगम न करके आधुनिक कम्प्यूटर तथा मल्टीमीडिया आदि का प्रयोग करते हैं।
4. आभासी कक्षा में किसी भी विषय तथा प्रकरण के शिक्षण-अधिगम के लिए अधिक कुशल एवं अनुभवी अध्यापकों की आवश्यकता होती है।
5.आभासी कक्षा प्रणाली में छात्रों की प्रशासनिक तथा मूल्याकन सम्बन्धी विविध समस्याओं के समाधान ऑन-लाइन किये जाते हैं।
6. आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली परम्परागत शिक्षा प्रणाली तथा अनुदेशन व्यवस्था से अहि क प्रभावशाली होती सिद्ध हो रही है।
7. आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली एक वेब आधारित शिक्षण-अधिगम वातावरण है जो गन्तव्य - स्थान पर दिये बिना ही समस्त गतिविधियों से जोड़ने में सक्षम है।
8. आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली के अन्तर्गत इन्टरनेट, तथा एक्सट्रानेट प्रणाली का उपयोग किया जाता है।
9. आभासी कक्षा वास्तविक कक्षा की भाँति आमने-सामने के शिक्षण-अधिगम से विपरीत है। इसमें छात्र-शिक्षक के मध्य अन्त क्रिया इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों के द्वारा होती है।
10. आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली दूरवर्ती शिक्षा प्रणाली की भाँति होती है जिसमें कोई छात्र किसी व्यवसाय या अन्य कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी अध्ययन कर सकता है।

आभासी कक्षा-कक्ष की प्रक्रिया
(Procedure of virtual Classroom)

आभासी कक्षाएँ विभिन्न शिक्षण-अधिगम सामग्री को जो कि विद्यालयों के पाठ्यक्रम के अनुरूप ही तैयार की जाती हैं, छात्रों के घरों या अन्य निर्धारित स्थानों तक पहुँचाने का प्रयास करती है। इस व्यवस्था की प्रक्रिया को निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

1. आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली की प्रथम कार्य-शैली में एक विषय-विशेषज्ञ पाठ्यक्रम के अनुसार किस एक प्रकरण पर अनुदेशन सामग्री तैयार करता है जिसका प्रसारण वह सेटेलाइट आधारित टेलीकॉन्फ्रेंसिंग या इन्टरनेट के माध्यम से करता है। जैसे-एन. सी ई आर टी. के शैक्षिक तकनीकी विभाग में 'एडूसेट' कार्यक्रम द्वारा हो रहा है।

2. आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली की द्वितीय कार्य-शैली में विषय-विशेषज्ञों द्वारा तैयार पाठ्यक्रम आधारित सामग्री को विद्यालय की वेबसाइट पर डाल दिया जाता है। इस वेबसाइट का पता उस विद्यालय के सभी छात्रों को होता है और यह अपनी सुविधानुसार इस वैबसाइट से पाठ्यक्रम सामग्री को प्राप्त कर लेते हैं।

3.आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली की तृतीय प्रकार की कार्य-शैली के अन्तर्गत पाठ्यक्रम के विषय-विशेषज्ञ द्वारा तैयार की गई अनुदेशन सामग्री को किसी सी.डी. तथा डी.वी.डी. में डाउनलोड करके छात्रों को वितरित कर दिया जाता है, जिससे छात्र इस CD या DVD को अपने कम्प्यूटर पर ओपन करके अनुदेश सामग्री को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार की अनुदेशन सामग्री के साथ अध्यापक सहायक-सामग्री (Support material) तथा सम्भावित समस्यात्मक प्रश्नों के उत्तर भी देता है जिससे छात्रों को स्व.अधिगम करने में सहायता प्राप्त हो सके।

4. आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली की अन्य विधि में अभिसूचना सम्प्रेषण की वृहद्, तकनीकियों का उपयोग किया जाता है। जैसे-ऑन-लाइन चैटिंग, इन्टरनेट, ई-मेल मोबाईल फोन आदि। इस प्रकार पाठ्यक्रम विषय-विशेषज्ञ तैयार अनुदेशन सामग्री को छात्रों तक सम्प्रेषण की विभिन्न  तकनीकों के माध्यम से पहुंचाता है। अध्यापक द्वारा इस प्रकार के सम्पर्क और अन्तःक्रिया का उपयोग शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में छात्रों की सक्रिय भागीदारी बनाने हेतु किया जाता है। अध्यापक छात्रों से प्रश्न पूछकर उनके ज्ञान एवं बोध की जाँच करता है तथा उनका समय-समय पर मूल्यांकन मी करता है।

5. आभासी कक्षा-कक्ष प्रणाली की इस विधि के अन्तर्गत छात्रों के ज्ञान का मूल्यांकन करने के बाद पुनर्बलन प्रदान किया जाता है तथा छात्रों को विभिन्न प्रकार के अधिगम अभ्यास, प्रोजेक्ट कार्य, पुनरावृत्ति कराने तथा गृहकार्य देने आदि आवश्यक गतिविधियों का भी वेबसाइट, ई-मेल तथा ई-फाइलों के द्वारा ही किया जाता है। छात्रों द्वारा किये गये कार्यों की जाँच करके उन्हीं को ई-मेल के द्वारा लौटा दिया जाता है, जिससे छात्रों को समय-समय पर प्रतिपुष्टि मिलती है।

ई-अधिगम
(E-LEARNING)

 इलैक्ट्रॉनिक अधिगम (Electronic Learning) को ई-अधिगम (E-Learning) भी कहते हैं। इसे कम्प्यूटर प्रोत्साहित अधिगम भी कहते हैं। ई-अधिगम को कई अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रत्यय का सम्बन्ध वृहद् अधिगम तकनीकी (Advanced learning technology) से अधिक है। ई-अधिगम में तकनीकी तथा अधिगम विधियों को सम्मिलित किया जाता है। इसमें कम्प्यूटर नेटवर्क तथा बहुमाध्यम तकनीकी का उपयोग किया जाता है।
 
उच्च शिक्षा संस्थान में सन् 2006 से हजारों छात्रों ने ऑन-लाइन अधिगम में भाग लिया। ई-अधिगम को ऑन-लाइन अधिगम भी कहते हैं। आज अनेक उच्च शिक्षा संस्थाओं में ऑन-लाइन अधिगम की व्यवस्था की गई है। ऑन-लाइन अधिगम की सुविधा व्यक्तिगत छात्रों को भी दी जाने लगी है। शोध अध्ययनों से यह पाया गया कि सामान्यतः सभी छात्र ई-अधिगम प्रणाली से सन्तुष्ट हैं। परम्परागत अधिगम प्रणाली की अपेक्षा ई-अधिगम अधिक प्रभावशाली है। व्यक्तिगत संस्थाओं इस अधिगम प्रणाली का अधिकतम प्रयोग किया जाने लगा है, क्योंकि यह प्रणाली अपेक्षाकृत मितव्ययी है। ऑन-लाइन अधिगम में प्रशिक्षित व्यक्तियों की नियुक्ति कर ली जाती है। कम्प्यूटर ऑन-लाइन तथा इन्टरनेट सेवाओं के लिए भी प्रशिक्षित व्यक्तियों की सहायता ली जाती है। आज ऑन-लाइन शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार अधिक तीव्रता से हो रहा है यहाँ तक कि शोध अध्ययनों हेतु भी ऑन-लाइन निर्देशन की सुविधाओं की व्यवस्था की जाने लगी है। शोध अध्ययन की सुविधा विकसित शोध संस्थानों तथा मुक्त विश्वविद्यालयों द्वारा की जाने लगी है।

संचार माध्यमों को ई-अधिगम के लिए समुदायों से भी सम्बन्धित किया जा रहा है। समुदाय अधिगम का मूल अधिगम प्रतिमान प्रदान करता है। इसके अन्तर्गत कुछ आवश्यक क्रियाओं के सम्पादन की आवश्यकता होती है जिनकी व्यवस्था कक्षा में की जाती है। कक्षा शिक्षण के स्तर को तकनीकी के उपयोग से प्रोन्नत किया जा सकता है। आज की परिस्थितियों में अधिगम के लिए कक्षाओं में अनेक क्रियाओं तथा संसाधनों की आवश्यकता होती है।

शैक्षिक अनुसन्धानकर्ताओं के लिए उपयोगी (USEFUL FOR THE EDUCATIONAL RESEARCHERS)

शिक्षा के क्षेत्र में शोध कार्य करने वालों के लिए इसकी अग्न प्रकार आवश्यकता है। जैसे

1. विषय विशेष से सम्बन्धित जानकारी, सूचनाएँ और आँकड़े एकत्रित करने में।
2. क्या प्राप्त आँकड़े विश्वसनीय है? क्या इस प्रकार का शोध कार्य अभी तक हो चुका है या इस क्षेत्र में किस प्रकार का शोध कार्य हो चुका है? क्या हो रहा है और भविष्य में किस प्रकार के कार्य की आवश्यकता है। इस दृष्टि से समुचित सूचनाओं एवं आँकड़ों की नितान्त आवश्यकता है जिसकी पूर्ति सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी द्वारा सरलता से हो सकती है।

सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी की उपयोगिता एवं शैक्षिक महत्व
(UTILITY AND EDUCATIONAL IMPORTANCE OF INFORMATION AND COMMUNICATION TECHNOLOGY)
 
शिक्षा की दृष्टि से सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी की उपयोगिता एवं महत्व निम्न प्रकार हो सकते हैं

1. विद्यार्थियों के लिए उपयोगी (Useful to the Students)-छात्र-छात्राओं के लिए सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का उपयोग निम्नलिखित कार्यों में हो सकता है

(a) विद्यार्थी सूचना के स्रोतों से परिचित हो सकेंगे।
(b) सूचनाओं को सम्यक रूप से एकत्रित करेंगे।
(c) सूचनाओं के एकत्रीकरण के पश्चात् आवश्यकतानुसार उपयुक्त अवसर पर उनके। उपयोग का प्रशिक्षण प्राप्त करेंगे।
(d) सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी द्वारा वे समस्या समाधान की योग्यता और निर्णय क्षमता का प्रशिक्षण ग्रहण करेंगे।

2.शिक्षकों के लिए उपयोगी (Useful to the Teachers)-इससे शिक्षकों को निम्नलिखित लाभ होगे

(a) सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी शिक्षण दायित्वों को निभाने में उनकी सहायता कर सकती है।
(b) प्रभावी शिक्षण कार्य हेतु उन्हें विभिन्न प्रकार की सूचनाओं, आँकड़े और जानकारी की आवश्यकता होती है। इस दृष्टि से सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।
(c) विद्यार्थियों को भी ज्ञान व सूचना के स्रोतों से अवगत कराकर शिक्षक अपने कार्यभार को कुछ हल्का कर सकते हैं।
(d) शिक्षण मशीन, कम्प्यूटर निर्देशित स्व अधिगम सामग्री और अभिक्रमित पाठ्य-पुस्तकें आदि के द्वारा वे अपना कार्य अपेक्षाकृत अधिक अच्छे ढंग से कर सकते हैं।

3. मार्गदर्शकों के लिए उपयोगी (Useful to the Counsellors)-निर्देशन एवं परामर्श सेवाएँ चाहे उनका संचालन विद्यालय परिसर में हो या अन्य संस्थाओं में, सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी हमेशा ही सहायक सिद्ध हो सकती है। इस दृष्टि से यह व्यक्तिगत, व्यावसायिक तथा शैक्षिक से विभिन्न प्रकार की सम्बन्धित सूचनाओं, आँकड़ों, जानकारी एवं सम्प्रेषण की निरन्तर आवश्यकता रहती है। अतः सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी की सहायता से विश्वसनीय एवं वैध आँकड़े तथा पूर्ण जानकारियों उपलब्ध कराई जा सकती हैं।
 
4. शैक्षिक नियोजकों एवं प्रशासकों के लिए उपयोगी (Useful to the Educational Planners and Administrators)-सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी शैक्षिक नियोजन एवं प्रशासन से सम्बन्धित विभिन्न कार्यों की दृष्टि से नियोजकों एवं प्रशासकों के लिए अत्यन्त उपयोगी हो सकती है। ये कार्य निम्न प्रकार हैं

(a) शिक्षा सम्बन्धी गतिविधियों का ठीक प्रकार से संचालन करने में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी मूल्यवान सिद्ध होती है।
(b) किसी भी प्रकार का योजनाबद्ध कार्य बिना उपयुक्त सूचनाओं, जानकारी एवं आँकड़ों के अभाव में पूर्ण नहीं हो सकता, जैसे-छात्रों को किसी पाठ्यक्रम में प्रवेश देना, परीक्षाएँ आयोजित करना, इत्यादि, जैसे-सभी कार्य सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी की सहायता से ही भली-भाँति हो सकते हैं।

सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के उपयोग की सीमाएँ
(LIMITATIONS IN THE USE OF INFORMATION AND
COMMUNICATION TECHNOLOGY-ICT)

शिक्षा संस्थाओं में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के प्रयोग के सन्दर्भ में उपयोगकर्ताओं को निम्नलिखित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है

1. अधिक महँगी होने के कारण सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के उपयोग सम्बन्धी सुविधाएँ हमारे विद्यालयों में अभी उपलब्ध नहीं हैं। इन्हें खरीदना और इनकी मरम्मत एवं देखभाल भी एक दुरूह कार्य है।
2.विद्यालय अधिकारियों, अध्यापकों तथा अन्य कर्मियों को इसकी प्रभावशीलता का ज्ञान ही नहीं है। उनकी यह अज्ञानता सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के प्रयोग में बाधा बनी हुई है।
3. शिक्षक अपने परम्परागत शिक्षण-अधिगम पद्धतियों को नहीं छोड़ना चाहते। वे व्याख्यान, प्रवचन, प्रदर्शन जैसी विधियों का ही प्रयोग करना पसन्द करते हैं।
4. शिक्षकों को सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के प्रयोग की जानकारी नहीं है। सेवापूर्व या सेवाकालीन प्रशिक्षण कार्यक्रम द्वारा वह पूर्ण रूप से प्रशिक्षित नहीं हो पाते हैं जिसके कारण उनकी सूचना एवं सम्प्रेषण (ICT) के प्रयोग में रुचि नहीं होती।
5. विद्यार्थी भी इसके उपयोग के लिए तैयार नहीं दिखाई देते हैं। उन्हें शिक्षक द्वारा आसानी से ज्ञान व सूचनाएँ प्राप्त हो जाती हैं जिसके कारण वह अतिरिक्त प्रयास नहीं करना चाहते।

इस प्रकार सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी को विद्यालयी शिक्षा में उपयोग करने में शिक्षकों. विद्यार्थियों, अधिकारियों एवं अन्य कर्मियों आदि सभी में उदासीनता दिखाई देती है। इसके प्रति उनमें अनभिज्ञता एवं नकारात्मक दृष्टिकोण सबसे बड़ी बाधा है। आज वह समय आ गया है कि सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के उपयोग से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान ढूंढा जाए और इसके प्रयोग को अनिवार्य रूप से प्राथमिकता देते हुए ऐसे प्रयत्न किये जाएँ जिससे सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी शिक्षा के प्रत्येक आवश्यक क्षेत्रों, विद्यालय की समस्त गतिविधियों के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निर्धारित की जाए।
 
अभ्यास प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी से आप क्या समझते हैं? इसके उद्भव एवं विकास का संक्षेप
में उल्लेख कीजिए।
 2. सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी की शैक्षिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए। विद्यालयों में इसकी
सेवाएँ किस प्रकार ली जा सकती हैं?
3. सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी की प्रकृति तथा विशेषताएँ बताइए। विद्यालयों में इसके उपयोग में आने वाली कठिनाइयों स्पष्ट कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी की विशेषताएँ बताइए।
2. सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के लिए क्या महत्व है?
3. परम्परागत और आधुनिक सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी में अन्तर बताइए।
4. विद्यालयों में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के उपयोग पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
5. ई-अधिगम क्या है ? स्पष्ट कीजिए।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. सूचना प्राप्त करने के घटक होते हैं ?
(अ) मुद्रित संचार साधन
(ब) प्रत्यक्ष जानकारी देने वाले साधन
(स) दृश्य श्रव्य साधन
(द) उपर्युक्त सभी।

अभिक्रमित अधिगम/अनुदेशन
Programmed Learning/Instruction

सन् 1920 में सिडनी एल० प्रैसी ने एक ऐसी शिक्षण मशीन का निर्माण किया जिसके द्वारा छात्रों के सामने प्रश्नों की एक श्रृंखला प्रस्तुत हो जाती थी और उन्हें प्रश्न का उत्तर देने के एकदम बाद ही अपने उत्तर के सही या गलत होने की जानकारी मिल जाती थी। छात्र इससे अपनी प्रगति का ज्ञान प्राप्त करते हुए अपने निर्धारित उद्देश्यों की ओर जाने के लिए दुगुनी शक्ति से प्रेरित होकर प्रभावशाली ढंग से लग जाते थे। सन् 1950 के पश्चात् बी० एफ० स्किनर ने सीखने पर उनके प्रयोग किये और एक स्व-शिक्षण (Self-teaching) सामग्री का निर्माण किया। इसी सामग्री को अभिक्रमित अध्ययन या अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Learning) अथवा अभिक्रमित अधिगम का नाम दिया गया।

अभिक्रमित अनुदेशन का अर्थ
(MEANING OF PROGRAMMED LEARNING)

 स्मिथ व मूर (Smith and Moore) के शब्दों में, "अभिक्रमित अनुदेशन किसी अधिगम सामग्री को क्रमिक पदों की श्रृंखला में व्यवस्थित करने वाली एक क्रिया है, जिसके द्वारा छात्रों को उनकी परिचित पृष्ठभूमि से एक नवीन तथा जटिल प्रत्ययों, सिद्धान्तों तथा अवबोधों की ओर ले जाया जाता है।"
 
"Programmed instruction is the process of arranging the material to be learned into a series of sequential steps, usually it moves the student from a familiar background into a complex and new set of concept principles and understanding."

जेम्स० ई० एस्पिच तथा बिर्ल विलियम्स के अनुसार, "अभिक्रमित अनुदेशन अनुभवों का वह नियोजित क्रम है जो उद्दीपक-अनुक्रिया सम्बन्ध के रूप में सक्षमता (Proficiency) की ओर ले जाता है।

Programmed instruction is a planned sequence of experiences leading to proficiency in terms of stimulus response relationship.

स्टोफल (Stoffel) ने. "ज्ञान के छोटे अंशों को एक तार्किक क्रम में व्यवस्थित करने को अभिक्रम तथा इसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया को अभिक्रमित अनुदेशन कहा है।"

"The arrangements of tiny bits of knowledge into logical sequence is called the 'programmed' and its process is called, 'Programmed Learning'."

 लीथ (Leith) के अनुसार, अभिनमित अनुदेशन, अनुदेशन सामग्नी के छोटे छोटे पर्दो अथवा फ्रेमों (Frames) की एक श्रृंखला है। इन पदों में से अधिकांश में अनुक्रिया के लिये किसी वाक्य में रिक्त स्थान की पूर्ति करनी होती है। अपेक्षित अनुक्रियाओं के लिये किसी संकेत प्रणाली का प्रयोग किया जाता है और प्रत्येक अनुक्रिया की पुष्टि परिणामों के तत्काल ज्ञान द्वारा की जाती है।

Programmcd learning is a sequence of small steps of instructional material (called frames), most of which require a response to be made by completing a blank space in a sentence. To ensure that expected responses are given a system of cueing is applied and each response is verified by the provision of immediate knowledge of results."

एन० एस० मावी (N.S. Mavi) कहते हैं, "अभिक्रमित अनुदेशन, सजीव, अनुदेशात्मक प्रक्रिया को 'स्वयं-अधिगम' अथवा 'स्वयं-अनुदेशन में परिवर्तित करने की वह तकनीक है जिसमें विषय-वस्तु को छोटी-छोटी कड़ियों में विभाजित किया जाता है, जिन्हें सीखने वाले को पढ़कर अनुक्रिया करनी होती है, जिसके सही अथवा गलत होने का उसे तुरन्त पता चल जाता है।

Programmed instruction is a technique of converting the live-instructional process into self-leaming or auto instructional readable material if the form of micro-sequence of subject matter which the learners are required to read and make some response, the cor rectness or incorrectness of which is told to him immediately."

सूसन मार्कल (Susan Markle) के अनुसार, "अभिक्रमित अनुदेशन पुनः प्रस्तुत की जा सकने वाली क्रियाओं की श्रृंखला को संरचित करने की वह विधि है, जिसकी सहायता से व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक छात्र के व्यवहार में मापनीय और विश्वसनीय परिवर्तन लाया जा सके।

**Programmed instruction is a method of designing reproducible sequence of instructional cvents to produce measurable and consistent effect on the behaviours of each and every acceptable student."
 
जेम्स ई० एस्पिच तथा बिर्ल विलियम्स ने अभिक्रमित अनुदेशन की परिभाषा इस प्रकार दी है, "अभिक्रमित अनुदेशन अनुभवों का वह नियोजित क्रम है, जो उद्दीपक अनुक्रिया सम्बन्ध के रूप में कुशलता की ओर ले जाता है।

Programmed instruction is a planned sequence of experiences leading to proficiency in terms of stimulus-response relationship."

शिक्षाशास्त्री डी० एल० कुक (D.L.Cook) के मतानुसार, "अभिक्रमित अधिगम, स्व-शिक्षण विधियों के व्यापक सम्प्रत्यय को स्पष्ट करने के लिये प्रयुक्त एक विधा है।

**Programmed learning is a term sometimes used synonymously to refer to the broader concept of auto-instructional method."

उपर्युक्त परिभाषाओं के विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि अभिक्रमित अध्ययन वह अनुदेशन है जिसमें पाठ्य-सामग्री को छोटे पदों में विभाजित करके शृंखलाबद्ध किया जाता है तथा इसे छात्रों के समक्ष क्रमानुसार प्रस्तुत करके, कम से कम गलत्तियाँ करते हुए उन्हें नवीन एवं जटिल विषय-वस्तु की शिक्षा, उनकी अपनी गति के अनुसार प्रदान की जाती है। इस सारी प्रक्रिया में छात्रों को अपनी प्रगति के ज्ञान के द्वारा पृष्ठ-पोषण (IFeedback) दिया जाता है।
(कुलश्रेष्ठ, 1985)

अभिक्रमित अध्ययन सामग्री की विशेषताएँ
(CHARACTERISTICS OF PROGRAMMED LEARNING MATERIAL)

अभिक्रमित अध्ययन सामग्री की प्रमुख विशेषताएँ अग्रांकित हैं

1. अभिक्रमित सामग्री व्यक्तिनिष्ठ (Individual) होती है और इसमें एक समय में केवल एक ही व्यक्ति सीखता है।
2. इसमें पाठ्य सामग्री को छोटे से छोटे अंशों में विभाजित किया जाता है।
3. फिर छोटे-छोटे अंशों को श्रृंखलाबद्ध किया जाता है।
4. अभिक्रमित सामग्री में प्रत्येक पद अपने आगे वाले पद से तार्किक क्रम में स्वाभाविक रूप से जुड़ा होता है।
5. सीखने वाले को सक्रिय सतत् प्रयास (अनुक्रिया) करने पड़ते हैं।
6. छात्रों को तत्काल उनकी प्रगति के विषय में सूचना दी जाती है कि उनका प्रयास सहीं था या गलत। इस प्रकार तत्काल पृष्ठ-पोषण (Feedback) उन्हें मिलता रहता है।
7. छात्रों को अपनी गति से विषय-वस्तु सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं (Principle of self Pacing)
8. अभिक्रमित सामग्री पूर्ण-परीक्षित तथा वैध होती है।
9. इसमें छात्रों के पूर्व व्यवहारों तथा धारणाओं का विशिष्टीकरण किया जाता है। इन व्यवहारों में भाषा की सरलता तथा बोधगम्यता का स्तर, उपलब्धि स्तर. पृष्ठभूमि तथा मानसिक स्तर को भी ध्यान में रखा जाता है।
10. इसमें उद्दीपन, अनुक्रिया तथा पुनर्बलन. ये तीनों तत्त्व क्रियाशील रहते हैं।
11. इसमें सीखने में अपेक्षाकृत त्रुटियों की दर (Error Rate) तथा गलतियों की दर (Fault Rate) काफी कम रहती है।
12. क्योंकि इसमें पृष्ठपोषण (Feedback) तुरन्त मिलता है, अतः छात्रों की सही अनुक्रियायें | पुनर्बलित (Reinforced) हो जाती हैं, जिससे प्रभावशाली शिक्षण में सहायता मिलती है। छात्र
की प्रत्येक अनुक्रिया उसे एक नया ज्ञान प्रदान करती है।
13. छात्रों में अनुदेशन सामग्री के अध्ययन के समय अधिक तत्परता (Readiness) तथा जिज्ञासा रहती है, जिससे वे विषय-वस्तु जल्दी समझ जाते हैं।
14. छात्रों की अनुक्रियाओं के माध्यम से अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री का मूल्यांकन किया जाता है और तदनुसार उनमें सुधार तथा परिवर्तन भी किया जाता है।
15. अभिक्रमित अनुदेशन छात्रों की कमजोरियों तथा कठिनाइयों का निदान कर उपचारात्मक अनुदेशन की भी व्यवस्था करता है।
16. अभिक्रमित अनुदेशन प्रणाली मनोवैज्ञानिक अधिगम सिद्धान्तों पर आधारित है।

अभिक्रमित अनुदेशन के सिद्धान्त
(Principles of Programmed Learning)

उपर्युक्त विशेषताओं की विवेचना से स्पष्ट है कि अभिक्रमित अनुदेशन निम्नांकित सिद्धान्तों। पर आधारित है
1. व्यवहार-विश्लेषण का सिद्धान्त,
2. छोटे-छोटे अंशों का सिद्धान्त,
3. सक्रिय सहभागिता का सिद्धान्त,
4. तत्काल पृष्ठ-पोषण का सिद्धान्त,
5 स्व-गति से सीखने का सिद्धान्त,
6. सामग्री की वैधता का सिद्धान्त.
7. छात्र परीक्षण तथा प्रगति ज्ञान का सिद्धान्त,
8. छात्र अनुक्रियाओं का सिद्धान्त।

 शिक्षण, अनुदेशन तथा अभिक्रमित अनुदेशन (TEACHING INSTRUCTION AND PROGRAMMED INSTRUCTION)
 
शिक्षण
अनुदेशन
अभिक्रमित अनुदेशन

जैसा कि उपर्युक्त चित्र से स्पष्ट है, अभिक्रमित अनुदेशन, अनुदेशन के अन्तर्गत एक विधा है, जिसके द्वारा निपुणता (Mastery) के उद्देश्य को प्राप्त किया जाता है। अनुदेशन, शिक्षण के अन्तर्गत एक प्रविधि है, जिसके माध्यम से शिक्षण के ध्येय की प्राप्ति सम्भव हो जाती है।

अभिक्रमित अधिगम तथा अभिक्रमित अनुदेशन
(PROGRAMMED LEARNING AND PROGRAMMED INSTRUCTION)

अभिक्रमित अधिगम तथा अभिक्रमित अनुदेशन को शिक्षा के क्षेत्र में एक-दूसरे का पर्यायवाची माना जाता है। ब्रिटिश शिक्षक अभिक्रमित-अधिगम' पद का प्रयोग करना ज्यादा पसन्द करते हैं, जबकि अमेरिकन शिक्षक अधिकतर 'अधिगम अनुदेशन' पद का प्रयोग करना पसन्द करते हैं।

अभिक्रमित अनुदेशन तथा शैक्षिक तकनीकी
(PROGRAMMED INSTRUCTION AND EDUCATIONAL TECHNOLOGY)

 अभिक्रमित अनुदेशन, स्वयं में पूर्ण 'शैक्षिक तकनीकी' नहीं है वरन् शैक्षिक तकनीकी का एक भाग है। शैक्षिक तकनीकी में कठोर उपागम (Hardware Approach) तथा मृदुल उपागम (Software) दोनों का अध्ययन होता है। अभिक्रमित अनुदेशन एक मृदुल उपागम है जो छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाने का प्रयास करता है अतः यह शैक्षिक तकनीकी का केवल एक भाग है।
 
अभिक्रमित अनुदेशन तथा शिक्षण की परम्परागत विधि
(PROGRAMMED INSTRUCTION AND TRADITIONAL METHOD OF TEACHING)

अभिक्रमित अनुदेशन तथा शिक्षण की परम्परागत विधि की तुलना अनांकित सारणी के माध्यम से प्रस्तुत की जा रही है

अभिक्रमित अनुदेशन तथा शिक्षण की परम्परागत विधि की तुलना अभिक्रमित अनुदेशन
शिक्षण की परम्परागत विधि
(Programmed Instruction)
(Traditional Method of Teaching) 1. यह अनुदेशन की एक व्यक्तिगत तकनीकी है। 1. यह मूलतः समूह तकनीकी है। 2. इस विधि में सामग्री एक के बाद एक पद 2. इसमें पूरी सामग्री समग्र रूप में प्रस्तुत
के रूप में (तार्किक क्रम में) प्रस्तुत की की जाती है।
जाती है। 3. इसमें छात्रों को पृष्ठ-पोषण तुरन्त दिया 3. इसमें छात्रों को पृष्ठ-पोषण तुरन्त नहीं
जाता है।
मिल पाता। 4. इसमें उद्देश्य बहुत स्पष्टता के साथ 4. क्योंकि शैक्षिक उद्देश्य व्यापक रूप में
परिभाषित होते हैं। दूसरे शब्दों में शैक्षिक होते हैं अतः उद्देश्य न तो स्पष्टता उद्देश्य व्यावहारिक शब्दावली में लिखे होते के साथ परिभाषित होते हैं और न ही
वे समुचित संरचनायुक्त होते हैं। 5. अभिक्रमित सामग्री की रचना शिक्षक पूरे 5. बहुत कम तैयारी की जाती है।
ध्यान, शुद्धता एवं सावधानियों के साथ करता है। 6. छात्रों की सक्रिय सहभागिता सीखने की 6. छात्र अधिकतर निष्क्रिय रहते हैं।
प्रक्रिया में होती है। 7. इसमें छात्रों की अनुक्रिया के माध्यम से 7. छात्रों की अनुक्रिया के आधार पर
मूल्यांकन के आधार पर अभिक्रमित सामग्री परम्परागत शिक्षण की विधि में सुधार में सुधार लाने का प्रयास किया जाता है। अथवा परिवर्तन करना मुश्किल होता
8. इसमें मनोवैज्ञानिक अधिगम तथा शिक्षण . इसमें शिक्षण सिद्धान्तों का पूरी तरह से
सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है।
प्रयोग सम्भव नहीं हो पाता। 9. यह बाल-केन्द्रित है।
9. यह बाल-केन्द्रित तथा विषय-केन्द्रित
दोनों प्रकार की हो सकती है। ___10. व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर विशेष ध्यान दिया 10. व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर उतना ध्यान
जाता है।
देना सम्भव नहीं हो पाता।
भारतवर्ष में अभिक्रमित अनुदेशन (PROGRAMMED INSTRUCTION IN INDIA)
1963
सी०पी०आई० इलाहाबाद (C.P.I. Allahabad)
सैन्ट्रल पैडागौजीकल इन्स्टीट्यूट इलाहाबाद में अभिक्रमित अनुदेशन पर त्रिदिवसीय विचारगोष्ठी का आयोजन। तत्पश्चात् भारत के विभिन्न प्रदेशों में इस विषय पर गोष्ठियों का आयोजन किया गया।
1965
एन०सी०ई०आर०टी० नई दिल्ली (NCERT, New Delhi)
1966
1966
 एन०सी०ई०आर०टी० के मनोविज्ञान विभाग द्वारा अभिक्रमित अनुदेशन पर दो सप्ताह का प्रशिक्षण प्रदान करना। एन०सी० ई० आर०टी० द्वारा अभिक्रमित अनुदेशन पर पुनः एक कार्यशाला (Workshop) का आयोजन Indian Association of Programmed 'Learning (IAPL) का गठन। एन०सी०ई०आर०टी० द्वारा अभिक्रमित अनुदेशन पर दूसरी कार्यशाला (Workshop) का चण्डीगढ़ में
आयोजन। 1. CA.S.E. (बड़ौदा यूनीवर्सिटी), मेरठ यूनीवर्सिटी,
तथा हिमाचल यूनीवर्सिटी में एम० एड०, एम० फिल० तथा डाक्टरेट स्तर पर अभिक्रमित अनुदेशन पर अनुसंधान कार्यों को महत्व दिया
NCERT, New Delhi
1967
1980 के बाद
गया।
2. रक्षा, परिवार नियोजन तथा बैंक आदि में भी
अभिक्रमित अनुदेशन का कार्य प्रारम्भ। 3. N.C.ER.T.में सैन्टर ऑफ एजूकेशनल टैक्नोलोजी
(Centre of Educational Technology) की स्थापना। जिसके प्रमुख कार्यों में से एक था 'अनुदेशन
सामग्री का निर्माण। 4. शैक्षिक तकनीकी व अनुदेशन के क्षेत्र में राष्ट्रव्यापी __ योजनायें।


अभिक्रमित अनुदेशन के मूल तत्व
(FUNDAMENTALS OF PROGRAMMED INSTRUCTION)

 अभिक्रमित अनुदेशन के मूल तत्व नीचे दिये गये हैं
 1. उद्दीपन तथा अनुक्रिया,
2. व्यवहार तथा व्यवहार श्रृंखला.
3. पुनर्बलन,
4. उद्दीपन नियन्त्रण का स्थानान्तरण,
5. पृष्ठपोषण,
6. पुष्टिकरण,
7. अनुबोधन तथा निर्देशित खोज,
8. सामान्यीकरण एवं विभेदीकरण,
9. क्रमागत प्रगति.
10. उत्तरोत्तर समीपता,
11. निदान तथा उपचार,
12. अवरोह श्रृंखला,
13. अभिक्रमित पाठ्य-वस्तु,
14. छात्र नियन्त्रित अनुदेशन।

नीचे एक-एक करके इन मूल तत्वों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है

उद्दीपन तथा अनुक्रिया (Stimulus and Response)-ऐसी परिस्थिति, घटना या व्यक्ति अथवा वातावरण में परिवर्तन, यदि छात्रों के व्यवहार में भी परिवर्तन लाते हैं, तो उन्हें उद्दीपन कहा जाता है। उद्दीपन एक विशिष्ट अनुक्रिया के लिये परिस्थिति उत्पन्न करता है।  अभिक्रमित अनुदेशन में विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों को तार्किक क्रम में प्रस्तुत किया जाता है। ये प्रत्येक छोटे-छोटे पद उद्दीपन का कार्य करते हैं तथा ये ही पद उद्दीपन के रूप में छात्रों को अनुक्रियायें करने के लिये (समुचित परिस्थिति पैदा कर) तैयार करते हैं। सही उद्दीपन छात्रों को समुचित तथा सही अनुक्रियायें करने के लिये निर्देशन प्रदान करता है और नवीन ज्ञान देता है।

अनुक्रिया (Response) व्यवहार की वह इकाई है जो जटिल व्यवहारों का निर्माण करती है। अनुक्रिया के तीन कार्य होते हैं-1. छात्र को अध्ययन में तत्पर रखना, 2. नवीन ज्ञान देना तथा 3.सही समय पर पुनर्बलन प्रदान करना अनुक्रिया, सक्रिय व्यवहार की इकाई होती है। 'अनुक्रिया, आंशिक या पूर्ण रूप में प्रत्येक अगले पद के लिये उद्दीपन का काम भी करती है। छात्रों की सही अनुक्रिया अधिगम को प्रभावशाली बनाने में सहायक होती है और गलत अनुक्रिया अधिगम में बाधक होती है।

उद्दीपन तथा अनुक्रिया क्योंकि छात्र के व्यवहार परिवर्तन में सहायक होते हैं और व्यवहार परिवर्तन ही एक प्रकार से अधिगम होता है, अतः ये दोनों अभिक्रमित अनुदेशन के मूल तत्व कहे जाते हैं।

(2) व्यवहार तथा व्यवहार श्रृंखला (Behaviour and Behaviour Repertoire)-व्यवहार से हमारा तात्पर्य है उन क्रियाओं से जो शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये छात्र करते हैं—

"Behaviour is the total response of the organism to situations of life. It considers inner and overt behaviour and also combines the study of inner mental processes and other outer behaviour."

"अभिक्रमित-अनुदेशन के सन्दर्भ में व्यवहार, उद्दीपनअनुक्रियाओं के विशिष्ट समूह को कहा जाता है। अनुक्रिया, व्यवहार की एक यूनिट है। उद्दीपन-अनुक्रिया मिलकर व्यवहारों को विकसित करती है।
व्यवहार श्रृंखला (Behaviour Repertoire) वह श्रृंखला है, जिसमें अनेक अनुक्रियायें (Responses) एक समूह में तार्किक विधि से व्यवस्थित की जाती हैं।

विभिन्न प्रकार की अनेक व्यवहार श्रृंखलायें मिल कर छात्र का व्यवहार निर्धारित करती हैं। व्यवहार श्रृंखला, छात्र को उसके गुण या विशेषता प्रदान करती हैं। अधिगम स्तर में व्यवहार श्रृंखला तीन वर्गों में वर्गीकृत की जाती हैं। वे हैं—

(a) सरल विभेदीकृत व्यवहार श्रृंखला (Simple Discriminative Repertoire)-इसमें छात्र स्वतन्त्र तत्त्वों, बाह्य वस्तुओं अथवा परिस्थितियों को पहचानता है।
(b) क्रमबद्ध व्यवहार श्रृंखला (Serial Repertoire)-इसमें क्रमबद्ध रूप से अनुक्रिया करता
(c) स्वतः धारिता व्यवहार श्रृंखला (Self Sustained Repertoire)-इसमें सरल विभेदीकृत तथा क्रमबद्ध, दोनों प्रकार की श्रृंखलायें होती हैं परन्तु इसमें बाह्य उद्दीपनों के स्थानों पर, उद्दीपन, छात्र के स्वयं के व्यवहार से (आन्तरिक) उत्पन्न किया जाता है।
(3) पुनर्बलन (Reinforcement)-पुनर्बलन किसी क्रिया के बाद घटने वाली एक ऐसी घटना है जो उस क्रिया को पुष्ट करती है। दूसरे शब्दों में उस क्रिया के पुनः घटित होने की सम्भावना बढ़ जाती है। "पुनर्बलन का सम्बन्ध वातावरण की उन घटनाओं से होता है जो किसी अनुक्रिया के करने की सम्भावना में वृद्धि करती हैं। नवीन व्यवहार अथवा परिवर्तन छात्र की  उन अनुक्रियाओं पर निर्भर होता है, जिन्हें उद्दीपनों से बल प्रदान किया जाता है। उद्दीपनों की वे घटनायें तथा परिस्थितियाँ जो अनुक्रिया को उत्पन्न करती हैं, "पुनर्बलन' कहलाती हैं।

(शर्मा, 1996) पुनर्बलन दो प्रकार के होते हैं
(1) धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement)-ऐसे उद्दीपन जिनके प्रस्तुतीकरण से किसी अनुक्रिया के होने की आशा बढ़ जाती है अथवा सही अनुक्रिया होने पर प्रशंसा. शाबाशी. पुरस्कार आदि मिलते हैं तो उसे धनात्मक पुनर्बलन कहा जाता है। धनात्मक/ सकारात्मक पुनर्बलन छात्रों के वाछित व्यवहारों/अनुक्रियाओं को दृढ़ करने के लिये दिया जाता है जिससे कि छात्र इस व्यवहार को दुबारा करें।

(2) ऋणात्मक/नकारात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement)-ऋणात्मक/नकारात्मक पुनर्बलन, छात्रों के अवांछित व्यवहारों/ अनुक्रियाओं को कम करने के लिये दिया जाता है ताकि वह इस व्यवहार को दुबारा न करे। जैसे-दण्ड देना, निंदा करना. डॉटना, क्रोधित होना।

ध्यान रहे धनात्मक पुनर्बलन, ऋणात्मक की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होता है। अतः यथासम्भव धनात्मक पुनर्बलन का अधिकतम प्रयोग करना चाहिये।

पुनर्बलन के रूप (SCHEDULES OF REINFORCEMENEY पुनर्बलन प्रक्रिया के अनेक रूप होते हैं, जिन्हें नीचे प्रदर्शित किया गया है

पुनर्बलन के रूप (Schedules of Reinforcepient)

A
(1) अविच्छिन्न पुनर्बलन (Continuous Reinforcement)
2) सविराम पुनर्बलन (Intercommitment Reinforcement)

(A) अनुपात रूप पुनर्बलन
(Ratio Schedule)
अन्तराल रूप पुनर्बलन (Interval Schedule)
(A) निश्चित अनुपात रूप पुनर्बलन |
(Fixed Ratio Schedule)
(A) अनिश्चित अनुपात रूप पुनर्बलन
(Variable Ratio Schedule)
(B)
(B) - निश्चित अन्तराल रूप पुनर्बलन
(Fixed Interval Schedule)
अनिश्चित अन्तराल रूप पुनर्बलन
(Variable Interval Schedule)
 
(1) अविच्छिन्न पुनर्बलन (Continuous Reinforcement)-अविच्छिन्न पुनर्बलन में छात्र अनुक्रिया करते रहते हैं तथा प्रत्येक अनुक्रिया के पश्चात् पुनर्बलन देने की व्यवस्था होती है। दूसरे शब्दों में इसमें अनुक्रिया के बाद पुनर्बलन दिया जाता है, जिससे व्यवहार और सुदृढ हो जाता है। रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन (Linear Programmed Instruction) में प्रत्येक पद के बाद इस प्रकार का ही पुनर्बलन दिया जाता है।

(2) सविराम पुनर्वलन (Intermittent Reinforcement)-इसमें छात्र की प्रत्येक अनुक्रिया पर पुनर्बलन नहीं दिया जाता, दूसरे शब्दों में कभी पुनर्बलन दिया जाता है और कभी नहीं दिया
जाता।

सविराम पुनर्बलन को हिन्दी में अन्तरिया पुनर्बलन भी कहा जाता है। इस पुनर्बलन के दो प्रमुख रूप होते हैं

(A) अनुपात रूप।
(B) अन्तराल रूप।

(A) अनुपात रूप (Ratio Schedule)-सविराम पुनर्बलन के अनुपात रूप में छात्र की अनुक्रियाओं को अधिक महत्त्व दिया जाता है और पुनर्बलन एक सुनिश्चित अनुपात में प्रदान किया जाता है। जैसे 5:1, इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक पाँच अनुक्रियाओं के बाद छठी अनुक्रिया पर पुनर्यलन दिया जायेगा। इस प्रकार के पुनर्बलन के फलस्वरूप छात्रों की अनुक्रिया करने की गति में तीव्रता आ जाती है।
अनुपात पुनर्बलन के भी दो रूप होते हैं

(A1) निश्चित अनुपात रूप पुनर्बलन।
(A2) अनिश्चित अनुपात रूप पुनर्बलन।

(A1) निश्चित अनुपात रूप पुनर्बलन (Fixed Ratio Schedule)-निश्चित अनुपात रूप पुनर्बलन में यह निश्चित कर लिया जाता है कि कितनी बार अनुक्रिया करने पर पुनर्बलन दिया जायेगा। यह अनुपात निश्चित हो जाने पर उसी अनुपात में पुनर्बलन दिया जाता है। जैसे प्रत्येक पाँच अनुक्रिया करने के पश्चात् छठी अनुक्रिया पर पुनर्बलन दिया जायेगा। कक्षा शिक्षण में यह पुनर्बलन प्रभावशाली पाया गया है। लुन्डेन के अनुसार पहले कम और फिर धीरे-धीरे ज्यादा अनुपात से पुनर्बलन प्रदान करना ज्यादा अच्छे परिणाम देता है।
(A2) अनिश्चित अनुपात रूप पुनर्बलन (Variable Ratio Schedule)-इस प्रकार के पुनर्बलन में यह स्पष्ट नहीं होता कि कितनी अनुक्रियाओं के पश्चात् पुनर्बलन दिया जाना है। कभी तो दो अनुक्रियाओं के पश्चात् कभी पाँच अनुक्रियाओं के बाद तो कभी बारह अनुक्रियाओं के पश्चात् पुनर्बलन दिया जाता है। इसीलिये इसे अनिश्चित अनुपात पुनर्बलन कहा जाता है। छात्र अनुक्रियायें करते रहते हैं पर उन्हें पता नहीं रहता कि कब उन्हें पुनर्बलन मिलेगा।

(B)अन्तराल रूप पुनर्बलन (Interval Reinforcement)-इसे समयान्तराल पुनर्बलन भी कहा जाता है। इसमें एक निश्चित अन्तराल के पश्चात पुनर्बलन दिया जाता है: जैसे पाँच मिनट बाद या एक घंटे के बाद या आठ घंटे के बाद इसमें समय पर ज्यादा बल दिया जाता है और समय के अन्तराल से ही पुनर्बलन प्रदान किया जाता है। ये दो प्रकार के होते हैं

(B1) निश्चित अन्तराल रूप पुनर्बलन।
(B2) अनिश्चित अन्तराल रूप पुनर्बलन।

(B1) निश्चित अन्तराल रूप पुनर्बलन (Fixed Interval Schedule)-इसमें एक निश्चित समय के अन्तराल के बाद जब पुनर्बलन प्रदान किया जाता है तब उसे निश्चित अन्तराल रूप
 का पुनर्बलन कहा जाता है। पुनर्बलन कितने अन्तराल के पश्चात् दिया जायेगा. यह पहले से निश्चित कर लिया जाता है। जैसे हर पाँच मिनट बाद, हर पन्द्रह मिनट के बाद या हर घण्टे के बाद। इसमें कार्य की मात्रा के स्थान पर समय के निश्चित अन्तराल पर ज्यादा बल दिया जाता है।
 
(B2) अनिश्चित अन्तराल रूप पुनर्बलन (Variable Interval Reinforcement Schedule)-इसमें समय का अन्तराल निश्चित नहीं होता वरन् अन्तराल परिवर्तनशील होता है अतः इस प्रकार के पुनर्बलन को 'परिवर्तनीय या परिवर्तनशील समयान्तर पुनर्बलन' भी कहा जाता है। इस प्रकार के पुनर्बलन से जो व्यवहार परिवर्तन होते हैं या छात्र जो नया ज्ञान प्राप्त करते हैं वह ज्यादा स्थायी नहीं होता।
उपर्युक्त पुनर्बलन के उपयोग हेतु निर्देश

 1. छात्रों की अनुक्रियाओं की गति बढ़ाने के लिये शिक्षक को निश्चित अनुपात पुनर्बलन का प्रयोग करना चाहिये।
2. ज्ञान के उद्देश्य प्राप्त करने के लिये अविच्छिन्न तथा प्रायोगिक, अवबोध तथा अन्य उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये सविराम पुनर्बलन का उपयोग किया जाना चाहिये।
3. अन्तराल पुनर्बलन का प्रयोग छात्रों के व्यवहार परिवर्तन तथा नवीन ज्ञान को स्थायी बनाने के उद्देश्य से करना चाहिये।
4. व्यवहार परिवर्तन के लिये शुरू में अविच्छिन्न पुनर्बलन तथा बाद में निश्चित अनुपात या अन्तराल पुनर्बलन एवं अन्तिम अवस्था में अनिश्चित अन्तराल पुनर्बलन का प्रयोग अधिक उपयोगी पाया गया है।
5. अन्तर्मुखी (Introvert) छात्रों के लिये अविच्छिन्न पुनर्बलन तथा बहिर्मुखी छात्रों के लिये अनिश्चित अनुपात पुनर्बलन की विधायें अधिगम को प्रभावशाली बनाने में समर्थ पायी गयी हैं।
6. अनिश्चित अनुपात या अनिश्चित अन्तराल पुनर्बलन का प्रयोग प्रतिभाशाली छात्रों के तथा अविच्छिन्न एवं निश्चित अनुपात पुनर्बलन का प्रयोग मन्द बुद्धि छात्रों के शिक्षण में करना ज्यादा उपादेय तथा प्रभावशाली माना जाता है।

(4) उद्दीपन नियन्त्रण का स्थानान्तरण
(The Transfer of Stimulus Control)

अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री के शुरू में जब छात्र उद्दीपन से जो अनुक्रियायें करता है, उनसे वह पहले से परिचित होता है। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता है अनुक्रियायें पूर्व व्यवहार से अन्तिम व्यवहार तक पहुंचने में सहायता करती हैं और अधिगम के क्रम में उद्दीपन नियन्त्रण आगे चलता रहता है। इसी को उद्दीपन नियन्त्रण का स्थानान्तरण कहा जाता है।

(5) पृष्ठपोषण / प्रतिपुष्टि
(Feedback)

पृष्ठपोषण या प्रतिपुष्टि एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें छात्रों को उनकी कमियों, गलतियों तथा त्रुटियों से अवगत कराया जाता है ताकि छात्र उन्हें सुधार सकें. साथ ही इस प्रक्रिया में छात्रों की अच्छी विशेषतायें, अच्छे कार्य, उनके गुणों तथा उनकी अच्छाइयों का भी विवरण दिया जाता है ताकि वे इन्हें आगे भी अपने व्यवहारों में प्रदर्शित कर सकें। पुनर्बलन अनुक्रिया की सम्भावना बढ़ाता है, जबकि पृष्ठपोषण व्यवहार में परिवर्तन लाने का एक सशक्त उपकरण है। पृष्ठपोषण प्रविधियाँ छात्रों के व्यवहार में सुधार लाती हैं, उनका विकास करती हैं तथा उनमें वांछित परिवर्तन लाती हैं।

(6) पुष्टिकरण
(Confirmation)

-पुष्टिकरण, अभिक्रमित अनुदेशन का 'तृतीय सिद्धान्त' भी कहलाता है। छात्रों की अनुक्रिया सही है, इसकी तुरन्त पुष्टि की जाती है, जिससे छात्र आगे बढ़ते हैं। पुष्टिकरण, पृष्ठपोषण का ही एक रूप होता है, जिससे छात्रों को नवीन ज्ञान की प्राप्ति होती है और पुनर्बलन भी उन्हें प्राप्त होता है। छात्र अपनी अनुक्रियाओं के पुष्टीकरण के आधार पर क्रमानुसार पदों के माध्यम से आगे बढ़ते हुये शिक्षण-सामग्री में सम्पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं।

(7) अनुबोधन (Prompting)-अभिक्रमित अनुदेशन में छात्रों को प्रत्येक पद के लिये अनुक्रिया करनी होती है, जिसके लिये एक अतिरिक्त उद्दीपन का प्रयोग किया जाता है। इसे ही अनुबोध (Prompt) कहा जाता है। अनुबोध अभिक्रमित अध्ययन के फ्रेम में छात्रों की सही अनुक्रिया की खोज में पूरी सहायता करते हैं।

(An information contained in a frame to help the learner to respond correctly is known as prompt or cue.)

ये छात्रों को गलत अनुक्रिया करने से बचाते हैं।

(8) सामान्यीकरण तथा विभेदीकरण (Generalization and Discrimination)-छात्रों में एक परिस्थिति में अर्जित ज्ञान, कौशल एवं अभिवृत्ति आदि को उसी प्रकार की दूसरी परिस्थिति में समान तत्वों के लिये एक सी अनुक्रिया करने की क्षमता सामान्यीकरण कहलाती है। सामान्यीकरण की प्रक्रिया में पहले विशिष्ट तथ्य, उदाहरण दृष्टान्त छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं और फिर उनके आधार पर छात्र सामान्य नियम या सिद्धान्त तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। अवरोह अनुक्रमित अनुदेशन (Methetics) में सामान्यीकरण प्रक्रिया का अधिक प्रयोग किया जाता है।

विभेदीकरण में 'अलग-अलग अनुक्रियाओं के लिये पृथक-पृथक परिस्थितियों उत्पन्न की जाती हैं। अतः कहा जा सकता है, विभेदीकरण, सामान्यीकरण के विपरीत प्रक्रिया होती है। शाखीय (Branching) तथा मेथेटिक्स अभिक्रमित अनुदेशन में विभेदीकरण की प्रक्रिया का अधिक उपयोग किया जाता है। सामान्यीकरण तथा विभेदीकरण के प्रारूप डा० शर्मा ने निम्न प्रकार से स्पष्ट किये हैं
सामान्यीकरण

विभेदीकरण उद्दीपन-1
उद्दीपन-1 - अनुक्रिया-1 उद्दीपन-2
उद्दीपन-2 - अनुक्रिया-2 उद्दीपन-3
उद्दीपन-3 → अनुक्रिया-3

(9) क्रमागत प्रगति
(Gradual Progression)

अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री में छात्रों को उनके पूर्व व्यवहार श्रृंखला से धीरेधीरे शुरू करके अंतिम व्यवहार तक क्रमागत प्रगति के माध्यम से ले जाया जाता है। क्रमागत प्रगति में इस बात का ध्यान रखा जाता है। छात्र धीरे-धीरे अनुक्रियायें करते हुये जटिल व्यवहारों को विकसित करें। सामग्री के प्रत्येक पद में ऐसी व्यवस्था होती है जिससे किन छात्र की पिछली अनुक्रियायें आगे की अनुक्रियाओं से सम्बन्ध स्थापित करते हुये छात्रों को प्रगति पथ पर धीरे-धीरे आगे बढ़ाती जायें।

(10) उत्तरोत्तर समीपता (Successive Approximation)-अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री में अधिगमकर्ता पहले जो अनुक्रियायें करता है, उसे पुनर्बलित किया जाता है। अन्तिम व्यवहार तक पहुँचने के लिये जिन-जिन क्रियाओं की जरूरत पड़ती है उन्हें छोटे-छोटे पदों की तार्किक  क्रमबद्ध व्यवस्था के अनुसार बाँट दिया जाता है। प्रत्येक पद पर पुनर्बलन प्रदान करते हुये उत्तरोत्तर समीपता के आधार पर अधिगमकर्ता की अनुक्रियाओं को अन्तिम व्यवहार के समीप पहुँचाते हैं।

(11) निदान तथा उपचार (Diagnosis and Remediation)-निदान तथा उपचार के सिद्धान्त से अभिप्राय है छात्रों की कठिनाइयों, कमजोरियों का निदान करके उनकी आवश्यकताओं तथा कमजोरियों एवं कठिनाइयों के अनुसार उन्हें उपचारात्मक अनुदेशन प्रदान करना। छात्रों का उनकी व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर उपचार किया जाना चाहिये। शाखीय (Branching) अभिक्रमित अनुदेशन में यदि छात्र गलत अनुक्रिया करता है, तब उसकी कठिनाई, गलती या कमजोरी का पता चलता है, जिसके लिये उसे त्रुटि-पृष्ठ पर उपचारात्मक अनुदेशन प्राप्त होता है और वह गलती सुधारने के लिये उपयुक्त निर्देश भी सामग्री से प्राप्त करता है।

(12) अवरोह शृंखला (Retrogressive Chain)-निपुणता (Mastery) स्तर तक पहुँचने के लिये रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन में आरोही श्रृंखला (Progressive Chain) का अनुकरण किया जाता है, परन्तु टी०एफ० गिलबर्ट (T. E. Gilbert) ने अपने अनुदेशन में अवरोह श्रृंखला (Retrogressive Chain) का प्रयोग किया। इस श्रृंखला में आरोह श्रृंखला के विपरीत, श्रृंखला के अतिम बिन्दु से शुरू करते हैं और श्रृंखला के प्रारम्भ पर पहुँच कर अंत करते हैं। जैसे उल्टी गिनतियों या पहाड़े याद करना (100 से शुरू करके तक आना)। यह श्रृंखला गणित में अधिक उपयोगी पायी गयी है।

(13) अभिक्रमित पाठ्य-वस्तु (Programmed Text)-'Programmed text is a set of pro grammed learning materials produced in the form of a printed text'. रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन में पाठ्य-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में बाँटा जाता है, जिसमें प्रत्येक पद के लिये छात्रों को अनुक्रिया करनी पड़ती है। यही रेखीय अभिक्रमित पाठ्य-वस्तु कहलाती है। ‘शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री में दो प्रकार के-गृह पृष्ठ (Home Page) तथा (2) त्रुटि पृष्ठ (Wrong Page)होते हैं-जो मिलकर 'स्कैम्बल्ड' पाठ्य-वस्तु (Scrambled Text) कहलाती है।

(14) छात्र-नियन्त्रित अनुदेशन (Learner Controlled Instruction) यह संप्रत्यय राबर्ट मेगर की देन है। इस अनुदेशन में छात्रों को पूरा महत्त्व दिया जाता है। अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री तैयार करने में छात्र नियन्त्रित अनुदेशन क्रम अन्य किसी अधिगम क्रम की तुलना में अधिक प्रभावशाली है। अतः इसका प्रयोग अनुदेशन सामग्री बनाते समय शुरू में करना चाहिये, बाद में उद्देश्यों से सम्बन्ध स्थापित करते हुये आगे बढ़ते जाना चाहिये। इसके द्वारा अनुदेशन को छात्र केन्द्रित बनाने में सहायता मिलती है।

अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री का निर्माण
(CONSTRUCTION OF PROGRAMMED INSTRUCTIONAL
MATERIAL)

अभिक्रमित अध्ययन की रचना एक उच्चस्तरीय विशिष्ट कार्य है। इसकी रचना को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है, जो निम्नलिखित हैं

1. तैयारी अथवा आयोजन,
2. रचना या अभिक्रम लेखन,
३. मूल्यांकन अथवा परीक्षण।

(1) तैयारी का आयोजन
(PREPARATORY PHASE)

यह अभिक्रमित अध्ययन का प्रथम सोपान है जिसमें प्रोग्राम बनाने से पूर्व तैयारी की जाती है। इसमें निम्नांकित पद सम्मिलित हैं

1. प्रकरण या शीर्षक का चयन (Selection of the Topic or Units to be .
Programmed)

प्रोग्राम बनाने के लिये जिस भी प्रकरण या शीर्षक का चयन किया जाये, उसके चयन के समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जाना चाहिये

1. उस प्रकरण या शीर्षक पर पहले से कोई प्रोग्राम उपलब्ध तो नहीं है?
2. वह प्रकरण क्या अन्य किसी विधि से प्रभावशाली रूप से नहीं पढ़ाया जा सकता है?
3. क्या यह प्रकरण छात्रों के दृष्टिकोण से अधिक सरल, तार्किक तथा मनोवैज्ञानिक बना कर प्रस्तुत किया जा सकता है ? जिससे यह ज्यादा रुचिकर, उपयोगी तथा उपयुक्त लगे।
4. क्या यह छात्रों की पाठ्यक्रम सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करता है ?
5. क्या प्रोग्राम बनाने वाले व्यक्ति को इस प्रकरण पर पूर्ण अधिकार (ज्ञान) है?
6. क्या प्रकरण में स्वतः तार्किक तारतम्य है, वह ज्यादा लम्बा तो नहीं है तथा उसमें निश्चित समय सीमा के अन्तर्गत प्रभावशाली शिक्षण की सम्भावनाएँ हैं?
7. क्या प्रकरण का स्वरूप समुचित व्यवस्था के योग्य है?

2. छात्रों के पूर्व ज्ञान की सूचना
(Writing Informations Related to the Previous Knowledge of Students)

यह प्रोग्राम छात्रों के लिये है। अतः प्रोग्राम बनाने के पूर्व, जिन छात्रों के लिये प्रोग्राम बनाया जा रहा है-उन छात्रों की आयु. लिंग, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक स्तर, रुचि, योग्यताओं, पृष्ठभूमि तथा पूर्वानुभव आदि से सम्चन्धित सूचनायें एकत्रित करनी चाहिये तथा तदनुसार ही प्रोग्राम की आयोजना करनी चाहिये।

3. उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखना
(Writing Objectives in Behavioural Term)

इस पद के अन्तर्गत उद्देश्यों का प्रतिपादन किया जाता है और उन्हें व्यावहारिक भाषा में लिखा जाता है। इसके लिये कार्य-विवरण (Task Description) तथा कार्य-विश्लेषण (Task Analysis) दोनों ही क्रियाएँ की जाती हैं। इन उद्देश्यों को लिखते समय राबर्ट भेगर, मिलर, ग्रोनलुण्ड तथा दवे के उपागमों में से आवश्यकतानुसार किसी एक उपागम या विधि का प्रयोग किया जाता है। उद्देश्यों को लिखते समय उपयुक्त कार्यपरक-क्रियाओं (Action Verbs) का चयन तथा प्रयोग करना चाहिये। व्यावहारिक-उद्देश्य वस्तुनिष्ठ मानदण्ड परीक्षाओं (Objective Centred Criterian Test) के निर्माण में सहायक होते हैं।

4. विषय-वस्तु की रूपरेखा का निर्माण
(Construction of Specific Outlines of Content)

छात्रों के पूर्व अनुभवों, पूर्वज्ञान तथा पूर्व व्यवहारों एवं निर्धारित उद्देश्यों के अनुरूप विषय-वस्तु की रूपरेखा बनाई जाती है। इस रूपरेखा के निर्माण में यह आवश्यक है कि उसके
 अन्तर्गत वह सारी विषय-वस्तु आ जाये, जिसका प्रोग्राम बनाना है। विषय-वस्तु की रूपरेखा तार्किक अथवा मनोवैज्ञानिक आधारों पर बनानी चाहिये। विषय-वस्तु की रूपरेखा का निर्माण करते समय विषय-विशेषज्ञों की भी सहायता ली जा सकती है।
 
 5. मानदण्ड परीक्षा का निर्माण
 (Construction of Criterian Test)
 
इस पद के अन्तर्गत छात्रों के अन्तिम व्यवहारों के मूल्यांकन के लिये मानदण्ड परीक्षा का निर्माण किया जाता है। इस परीक्षण में विशिष्ट उद्देश्यों के अनुरूप वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को पूछा जाता है। इसमें उन सभी व्यवहारों एवं कौशलों का मूल्यांकन किया जाता है जिन्हें सिखाने के लिये प्रोग्राम बनाया गया है। यही परीक्षण मानदण्ड कहलाते हैं। इन परीक्षाओं का उद्देश्य - यह जानना होता है कि छात्र अधिगम के उद्देश्यों तथा मानदण्डों तक पहुँचे या नहीं। यदि पहुँचे तो किस सीमा तक पहुँचे यदि नहीं पहुँचे तो क्यों और कैसे उन तक पहुँच सकते हैं।

ध्यान रहे कि प्रत्येक अनुदेशन उद्देश्य के लिये कम से कम 3 या 4 प्रश्न अवश्य परीक्षण में होने चाहिये। इन्हें करने के लिये उचित निर्देश एवं आदेश स्पष्ट रूप से दिये जाने चाहिये। यदि सम्भव हो तो इन मानदण्ड परीक्षाओं की विश्वसनीयता एवं वैधतां का परीक्षण भी किया जाना चाहिये।

(2) रचना या अभिक्रम लेखन
(DEVELOPMENTAL PHASE OR PROGRAMME WRITING)

इस पद के अन्तर्गत वास्तविक प्रोग्राम या अभिक्रम को लिखा जाता है। लिखने से पूर्व अनेक प्रकार के निर्णय लिये जाते हैं; जैसे

1. प्रोग्राम किस विधि से लिखा जाये, (लीनीयर, ब्रांचिंगाया मैथेटिक्स आदि)?
2. सीखने वाले के पूर्व व्यवहार/पूर्व अनुभव कैसे हैं?
3. अनुदेशन उद्देश्य कौन-कौन से निर्धारित किये गये हैं ?
4. विषय-वस्तु की प्रकृति क्या है ?

प्रोग्राम लिखते समय अभिक्रमित अध्ययन के मूलभूत सिद्धान्तों का सदैव ध्यान रखना चाहिये। विशेष रूप से निम्नांकित तीन बातों का ध्यान रखना चाहिये

(A) बोधगम्य पदों (Frames) की रचना (Designing of Frames)
 
इस पद में विषय-वस्तु को फ्रेम (छोटे-छोटे वाक्यों के रूप) में लिखा जाता है। फ्रेम के तीन अंग होते हैं

1. उद्दीपन (Stimulus)-अनुक्रिया या अनुक्रिया उत्पन्न करने की परिस्थिति के रूप में वह अंग जो विषय-वस्तु छात्रों के सामने प्रस्तुत करता है ताकि छात्रों को अनुक्रिया करने की प्रेरणा मिल सके।
2. अनुक्रिया (Response)-पद को पढ़ने के पश्चात् छात्र किसी न किसी प्रकार की अनुक्रिया अवश्य करता है।
3. पुनर्बलन या प्रतिपुष्टि (Reinforcement/Feedback)--छात्र अपनी अनुक्रिया को सही अनुक्रिया से मिलान करता है और पुनर्बलन या प्रतिपुष्टि प्राप्त करता है।

सामान्यतः प्रोग्राम में चार प्रकार के पद सम्मिलित रहते है

(अ) शिक्षण पद (Teaching Frames)-इन पदों के माध्यम से छात्रों के समक्ष नवीन विषय-वस्तु प्रस्तुत की जाती है। ये पद किसी भी प्रोग्राम में लगभग 60% से 70% होते हैं।
 
(ब) अभ्यास पद (Practice Frames)-नयी विषय-वस्तु/नया ज्ञान सिखाने के पश्चात, ज्ञान को स्थायी बनाने के लिये अभ्यास पदों का निर्माण किया जाता है। छात्र इनका प्रयोग करके सीखे गये ज्ञान का बारम्बार प्रयोग कर अभ्यास करते हैं। ऐसे पद 20% से 25% तक रखे जा सकते हैं।

(स) परीक्षण पद (Testing Frames) छात्रों द्वारा सीखे गये ज्ञान के परीक्षण हेतु परीक्षण पदों का निर्माण किया जाता है। इनका उद्देश्य सीखे हुए ज्ञान का मूल्यांकन करना होता है। ये 10% से 15% तक रखे जा सकते हैं।

(द) छात्रों के उत्तरों को निर्देशित करने के लिए उपक्रमक को तथा अनुबोधकों का प्रयोग (Using Primes and Prompts to Guide Student's Responses)-प्रोग्राम इस प्रकार लिखा जाना चाहिए जिससे कि छात्र अधिक से अधिक सही अनुक्रिया करें। जब छात्र उचित अनुक्रिया करने में सफल नहीं होते तब उपक्रमक (Primes) तथा अनुबोधक (Prompts) का प्रयोग किया जाता है। उपक्रमक के अन्तर्गत सहायक शब्द तथा पूरक सूचनाओं का प्रयोग किया जाता है, जिससे छात्रों को सही अनुक्रिया के लिए संकेत मिलता है। इनका प्रयोग प्रस्तावना पदों में ज्यादा किया जाता है। अनुबोधक एक प्रकार के विशेषण संकेत होते हैं जो छात्रों की गलत अनुक्रियाओं को कम करके, छात्रों को सही अनुक्रिया तक पहुँचने में सहायता देते हैं। इनका सम्बन्ध विषय-वस्तु के विवरण, उपयुक्तता तथा अनुक्रिया की प्रकृति से होता है।

प्रोग्राम में पहले ज्यादा अनुबोध दिये जाते हैं फिर क्रमशः इन्हें कम करते हुए प्रोग्राम के अंत में पूर्णरूपेण इन्हें हटा दिया जाता है। इस प्रक्रिया को विलुप्तीकरण (Fading) कहा जाता है।

(B) फ्रेमों को उचित क्रमप्रदान करना
(Sequencing of Frames)

फ्रेम तैयार करने के पश्चात् उन्हें सुनिश्चित तारतम्य में (उचित क्रम प्रदान कर) व्यवस्थित किया जाता है। इन्हें व्यवस्थित करते समय 'मनोवैज्ञानिक से तार्किक क्रम की ओर' शिक्षण सूत्र का उपयोग करना चाहिये फ्रेमों को उचित क्रम प्रदान करने के लिये तीन प्रमुख विधियाँ हैं

(1) मैट्रिक्स (Matrix) विधि,
(2) रुलैग (Ruleg) विधि, तथा
 (3) अगरुल (Egrul) विधि
 
 इनमें से किसी एक विधि का प्रयोग आवश्यकतानुसार किया जाना चाहिये। कई प्रोग्रामों में उद्देश्यों के अनुसार एक से अधिक विधि का प्रयोग किया गया है।
 
 (C) मूल ड्राफ्ट को लिखना
 (Writing Original Draft)
 
उपर्युक्त प्रकार से पद व फ्रेम बनाने के पश्चात पूरा प्रोग्नाम लिखना चाहिये।

सम्पादन करना (Editing)-तैयार प्रोग्राम के मूल ड्राफ्ट का सतर्कतापूर्वक सम्पादन करना चाहिये। सम्पादन के समय तीन प्रमुख बातें ध्यान देने योग्य हैं

(1) विषय-वस्तु में किसी प्रकार की तकनीकी त्रुटि तो नहीं है यह देखा जाना चाहिये। इस स्तर पर विषय-विशेषज्ञों की मदद ली जा सकती है।
(2) प्रोग्राम-विशेषज्ञों की मदद से यह देखा जाता है कि मूल ड्राफ्ट में प्रोग्राम अनुदेशन की तकनीकियों, पद रचनाओं, फ्रेमों को उचित क्रम देने में अथवा मूल ड्राफ्ट की शैली-भाषा में कोई त्रुटि तो नहीं है।
(3) भाषा-विशेषज्ञों की मदद से तैयार मूल ड्राफ्ट में व्याकरण की गलतियों, स्पैलिंग की त्रुटियाँ, तथा अनुपयुक्त एवं अस्पष्ट भाषा आदि का पता लगा कर उन्हें ठीक किया जाता है।
 अनुदेशन निर्देशों की अस्पष्टता, भाषा की अनिश्चितता, दिये गये उदाहरणों की अनुपयुक्तता आदि कमियों को भी ठीक किया जाता है और मूल ड्राफ्ट में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किये जाते हैं।
 
(3) परीक्षण एवं मूल्यांकन
(TESTING AND EVALUATION)

प्रोग्राम निर्माण का यह अन्तिम कार्य होता है, जिसके अन्तर्गत तैयार संशोधित प्रोग्राम ड्राफ्ट का परीक्षण एवं मूल्यांकन किया जाता है। इसमें निम्नांकित क्रियायें सम्पादित की जाती हैं

(1) व्यक्तिगत परीक्षण (Individual Tryout)-इसमें प्रोग्राम को- 4-5 छात्रों पर प्रशासित किया जाता है और यह पता लगाया जाता है कि तैयार प्रोग्राम ड्राफ्ट में पद, आकार, भाषा, प्रत्यय, उपक्रमक तथा अनुबोधक आदि से सम्बन्धित क्या-क्या कमियाँ हैं। इसके अतिरिक्त छात्रों की प्रतिक्रियायें भी नोट की जाती हैं और आवश्यकतानुसार प्रोग्राम में परिवर्तन तथा परिमार्जन किया जाता है।
 
(2) लघु समूह परीक्षण (Small Group Tryout)-परिवर्तित तथा परिमार्जित प्रोग्राम पुनः 10-20 छात्रों के समूह पर प्रशासित किया जाता है। छात्रों से इस ड्राफ्ट में जरूरी परिवर्तनों तथा सुधार हेतु सुझाव माँगे जाते हैं। इनकी प्रतिक्रियायें एवं लिये गये समय को भी नोट किया जाता है और इन सभी आधारों पर प्रोग्राम में पुनः संशोधन तथा परिमार्जन किया जाता है।

(3) क्षेत्र परीक्षण (Field Tryout)-प्रोग्राम को अन्तिम रूप देने के लिये प्रोग्राम को एक प्रतिनिधि न्यादर्श (Sample) पर पुनः प्रशासित किया जाता है और छात्रों की बड़े पैमाने पर की गई प्रतिक्रियाओं तथा दिये सुझावों के आधार पर ड्राफ्ट में पुनः संशोधन किया जाता है। इस परीक्षण के आधार पर प्रोग्राम की उपयुक्तता तथा वैधता स्थापित की जाती है।

(4) मूल्यांकन (Evaluation) क्षेत्र परीक्षण से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर निम्नांकित चीजों का मूल्यांकन किया जाता है-

1. प्रोग्राम की त्रुटि-दए (Error Rate Programme) यह ज्ञात करने के लिये निम्नांकित सूत्र का प्रयोग किया जाता है
TotalNo.of Error (ञाटियों का सम्पूर्ण योग) x 100 ProgrammcErrorRate =
TotalNo. of Responses x No.of Students (In percentage)
(पदों की संख्या ४ छात्रों की संख्या) त्रुटि दर रेखीय प्रोग्राम में 5%-10% तथा शाखात्मक प्रोग्रामों में 20% तक हो सकती है।
2. अभिक्रम घनत्व (Programme Density)-इससे प्रोग्राम के कठिनाई स्तर का पता लगाया जाता है। यह ज्ञात करने के लिये निम्नांकित सूत्र का प्रयोग किया जाता है

Total No.of DifferentTypesof Responsesina Programme
(विभिन्न प्रकार की अनुक्रियाओं की संख्या) TTR (Type Token Ratio) = TotalNo. of Responses Requiredina Programm

(कुल अनुक्रियाओं की संख्या) TTR का मूल्य 0-25 से 033 के मध्य रहना चाहिये।

3. तारतम्य प्रवाह (Sequence Progression)-तारतम्य प्रवाह (Scalogram) (स्केलोग्राम) की सहायता से देखा जाता है। मानदण्ड परीक्षण के प्राप्तांकों के आधार पर स्केलोग्राम' तालिका बनाई जाती है। इस तालिका के आधार पर प्रोग्नाम का तारतम्य प्रवाह देखा जाता है। यदि तालिका देखने पर पता चलता है कि पाठ्यक्रम में क्रम व्यवस्था उचित नहीं है तो प्रोग्राम में सुधार लाने का प्रयास करना पड़ता है।

अभिक्रमण/प्रोग्रामिंग के प्रकार
(STYLES OF PROGRAMMING)

आजकल अनेक प्रकार की प्रोग्रामिंग आ रही है। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निम्नलिखित हैं-

अभिक्रमण अथवा प्रोग्रामिंग के प्रकार
रेखीय (Linear)
शाखात्मक (Branching)
मैथेटिक्स (Mathetics)

(1) रेखीय अभिक्रमण
(LINEAR PROGRAMMING) इसके प्रतिपादक बी० एफ० स्किनर (1955) थे। यह प्रोग्रामिंग Operent Conditioning पर आधारित है जो यह बताती है कि मानव व्यवहार को एक निश्चित दिशा दी जा सकती है तथा इच्छित व्यवहार सिखाया जा सकता है। इस हेतु मानव के मार्ग में आने वाली क्रियाओं को छोटे-छोटे सार्थक भागों में विश्लेषित करना होता है। इन भागों का सहारा लेकर प्रत्येक पद पर पुनर्बलन देकर मानव को वांछित व्यवहार सिखाया जा सकता है। वास्तव में रेखीय प्रोग्रामिंग वह प्रोग्रामिंग है जिसमें प्रत्येक छात्र एक रेखीय क्रम में निश्चित पदों को पार करता हुआ जाता है। इसमें अग्रांकित बातें शामिल है—

(क) एक समय में विषय-वस्तु का छोटा-सा अंश ही छात्रों के सामने प्रस्तुत किया जाता
(ख)छात्र अनुक्रिया करके उत्तर देते हैं।
(ग) छात्र अपने उत्तर को सही उत्तर से मिलान करके पुनर्बलन प्राप्त करता है। (घ) उसे आगे क्या करना है-यह निर्देश प्राप्त होता है।

फ्रेम (Frames)
तृतीय फ्रेम | चतुर्थ फ्रेम - पंचम फ्रेम
प्रथम फ्रेम | द्वितीय फ्रेम
अधिगम का पथ
पूर्व व्यवहार
अंतिम व्यवहार
रेखीय अभिकरण में फ्रेमों की व्यवस्था

 इस चित्र से स्पष्ट है कि फ्रेम तथा सीखने का पथ व्यवस्थित एवं रेखीय है। इसीलिये इस प्रकार की प्रोग्रामिंग रेखीय कहलाती है। इसमें सीखने वाले को समान फ्रेमों तथा समान क्रम से गुजरना होता है। समग्र अनुदेशन प्रक्रिया पूर्ण नियन्त्रित होती है और यह नियन्त्रण प्रोग्रामर प्रोग्राम बनाने वाले का होता है। इसलिए रेखीय प्रोग्रामिंग को बाह्य प्रोग्रामिंग (Extrinsic) भी कहा जाता है।

रेखीय प्रोग्रामिंग के अन्तर्गत छात्रों के सामने शिक्षण सामग्री का एक छोटा-सा पद अंश प्रस्तुत किया जाता है। फिर उसके बाद छात्र उसे अच्छी तरह समझकर सम्बन्धित प्रश्न का उत्तर देता है। छात्र को उसका उत्तर सही या गलत होने का ज्ञान कराया जाता है। यदि उसका उत्तर सही है तो उसे पुनर्बलन मिलता है। फिर वह अगले पद की ओर आगे बढ़ जाता है। इस तरह एक पद के पश्चात् प्रश्न, प्रश्न के पश्चात् उत्तर-पुनर्बलन और फिर दूसरा पद, प्रश्न. पुनर्बलन चलता चला जाता है, जब तक कि वह अन्तिम व्यवहार तक नहीं पहुँच जाता। इस प्रकार के अभिक्रमित अनुदेशन में अधिगम के तारतम्य तथा अनुक्रिया सभी के लिये समान होती है। इसमें सभी को समान मार्ग से गुजरना होता है। रेखीय अभिक्रमण को बाह्य अभिक्रमण (Extrinsic Programmed Learning) भी कहा जाता है।

डा० आनन्द के शब्दों में रेखीय अभिक्रमण का शाब्दिक अर्थ एक सीधी रेखा का अभिक्रमण है, जिसमें छात्र प्रथम पद से अन्तिम पद तक सीधी रेखा की भाँति चलता है। इसके अतिरिक्त सभी छात्र एक जैसे ही पथ पर चल कर एक पद से दूसरे पद की ओर बढ़ते हैं, जब तक सारा प्रोग्राम पूर्ण नहीं कर लेते इिसमें छात्र की सही अनुक्रिया को अधिगम प्रक्रिया का एक वांछित अंग माना जाता है। इस अभिक्रमण शैली का मुख्य उद्देश्य विषय-वस्तु को इस प्रकार प्रस्तुत करना है कि छात्र कम से कम गलती करें। स्किनर के अनुसार किसी भी पद को पढ़ने पर छात्रों को 10% से अधिक गलती नहीं करनी चाहिये।

 रेखीय अभिक्रमण की विशेषतायें
 (Characteristies of Linear Programming)
 
इसकी प्रमुख विशेषतायें नीचे दी जा रही हैं

(1) इसमें छात्र क्रमबद्ध रूप में विभिन्न छोटे-छोटे पदों के माध्यम से एक रेखीय मार्ग पर __ गति करते हुये अन्तिम व्यवहार तक पहुँचता है।
(2) इसमें छात्र की अनुक्रिया की जाँच कर सही अनुक्रिया के लिये पृष्ठपोषण की व्यवस्था होती है।
(3) सभी छात्रों के लिये समान पथ होता है, जिस पर चल कर अन्तिम लक्ष्य तक पहँचते
(4) इसमें शुरू में अधिगम को सरल बनाने के लिये उदबोध (Prompts) या संकेतों (Cues) का प्रयोग किया जाता है, जिन्हें बाद में धीरे-धीरे हटा दिया जाता है।
(5) अनुक्रिया तथा उसके क्रम पर नियन्त्रण रखा जाता है।
(6) इस अभिक्रमण में शिक्षण सामग्री का निर्माण तथा प्रस्तुतीकरण इस प्रकार किया जाता है कि छात्र की त्रुटि की सम्भावना लगभग खत्म हो जाती है।
(7) यह मनोविज्ञान के अधिगम सिद्धान्तों पर आधारित है।
(8) यह स्व-अध्ययन के लिये पथ-प्रशस्त करता है जिससे विभिन्न मानसिक स्तरों के छात्रों को अपनी-अपनी गति के अनुसार सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं।
(9) यह अभिक्रमण कठिन संप्रत्ययों को सरलता एवं सुगमता से स्पष्ट करने में सक्षम है।
(10) अधिगम के समय छात्र सक्रिय, क्रियाशील तथा तत्पर हो जाते हैं।
(11) शिक्षक के बिना छात्र सरलता से नया ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
(12) इसमें छात्र की प्रत्येक सही-अनुक्रिया को पुनर्बलित किया जाता है. जिससे अधिगम प्रक्रिया अधिक प्रभावशाली हो जाती है।
(13) परम्परागत शिक्षण की तुलना में, यह विधि ज्यादा प्रभावशाली होती है।

रेखीय अभिक्रमण की सीमायें
(Limitations of Linear Programming)

(1) इसमें सभी छात्रों के लिये एक ही क्रम दिया होता है। छात्रों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता है।
(2) इससे सृजनात्मक तथा उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
(3) यह तथ्यात्मक पाठ्य-वस्तुओं के शिक्षण में कम उपयोगी है। यह व्याख्यात्मक पाठ्य-वस्तुओं के लिये ही होता है।
(4) इसमें अधिगम नियन्त्रित परिस्थितियों में होता है अतः छात्रों को अनुक्रियाओं हेतु आजादी नहीं है।
(5) इसका निर्माण करना सरल नहीं है। कई बार प्रशिक्षण लेने के बाद भी अच्छा अभिक्रमण तैयार करना कठिन हो जाता है।
(6) इसके द्वारा सुधारात्मक शिक्षण (Remedial Teaching) सम्भव नहीं है। म
प्रतिभाशाली छात्र इसमें कम रुचि लेते हैं।

(2) शाखीय प्रोग्रामिंग
(BRANCHING PROGRAMMING)

शाखीय प्रोग्रामिंग के प्रतिपादक श्री नौर्मन ए० क्राउडर थे। यह प्रोग्रामिंग विषय-सामग्री को प्रस्तुत करने की एक तकनीकी है। इसमें प्रभावशाली शिक्षण के अनेक सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है। इसमें समस्त अनुक्रियायें छात्र द्वारा नियन्त्रित होती हैं अतः इसे आन्तरिक ( Intrinsic) प्रोग्रामिंग भी कहा जाता है।

शाखीय प्रोग्रामिंग में एक या दो पैरा में या एक पूरे पेज पर एक फ्रेम दिया जाता है। यह रेखीय प्रोग्रामिंग की तुलना में काफी बड़ा होता है। छात्र एक-एक करके सभी फ्रेमों से होकर गुजरते हैं। एक फ्रेम के पश्चात् उसे सम्बन्धित बहु-निर्वचनीयन वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर देने होते हैं। उसे दिये गये उत्तरों में से एक सही उत्तर का चुनाव करना पड़ता है। यदि उसका उत्तर सही है तो वह आगे बढ़ता है पर यदि उत्तर सही नहीं हो तो उसे उपचारात्मक निर्देश प्रदान किये जाते हैं। इस हेतु उसे मूल अंश या विशिष्ट रूप से तैयार किये गये उपचारात्मक श्रृंखला की ओर जाने का निर्देशन दिया जाता है और बाद में पुनः इस पद पर आने तथा उत्तर देने को कहा जाता है। यह क्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि छात्र सही उत्तर नहीं दे देता। केवल सही उत्तर मिलने पर ही उसे अगले पद पर अग्रसर होने के लिये कहा जाता है। आगे चित्र के माध्यम से इसे स्पष्ट किया गया है।
 
मुख्य पथ
मुख्य पथ
रीग्रेशन की लाइन
फ्रेम O की ओर जाती है।

शाखीय प्रोग्रामिंग में कमजोर छात्र की अपेक्षा एक प्रतिभाशाली छात्र अन्तिम व्यवहार तक जल्दी पहुँचता है।
अभिक्रमण की इस शैली में छात्रों की त्रुटियाँ करने की अपेक्षा उनके निदान पर ज्यादा जोर दिया जाता है।
इस प्रकार के अभिक्रमण को शाखीय (Branching) अभिक्रमण इसलिये कहा जाता है क्योंकि इसमें सभी छात्र रेखीय अभिक्रमण की भाँति एक पद से दूसरे पद तक बढ़ने के लिये एक ही पथ नहीं अपनाते, वरन् वे अपने-अपने उत्तरों पर आधारित अलग-अलग (शाखीय) रास्ते अपनाते हुये अन्तिम पद तक पहुँचते हैं। इसमें सभी पदों को प्रस्तुत करने का कोई निश्चित क्रम नहीं होता। इसमें अनुक्रियाओं पर नियन्त्रण छात्रों द्वारा होता है अतः छात्र अपनी योग्यता के अनुसार अनुक्रिया करता है।

शाखीय अभिक्रमण की विशेषतायें
(Characteristics of Branching Programming)

इनकी प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार से हैं
(1) शाखीय अभिक्रमण में रेखीय अभिकरण की तुलना में प्रत्येक पाठ या फ्रेम में अधिक शिक्षण सामग्री आती है।
(2) छात्रों की आवश्यकतानुसार विभिन्न पदों पर होकर अन्तिम पद तक पहुँचने की स्वतन्त्रता होती है।
(3) यह छात्रों द्वारा नियन्त्रित अभिक्रमण है।
(4) इसमें पृष्ठपोषण तुरन्त देने की व्यवस्था है।
(5) इस अभिक्रमण में छात्रों के समक्ष बहु-विकल्प वाले प्रश्न दिये जाते हैं।
(6) यह अभिक्रम छात्रों की सम्भावित त्रुटियों के आधार पर शिक्षण सामग्री के निर्माण मर बल देता है।
(7) गलत अनुक्रिया करने पर छात्र को उसे सही करने के लिये अवसर दिया जाता है। वह अगले पद पर तब तक नहीं पहुँचता जब तक वह अपने पहले मुख्य पद का सही उत्तर नहीं दे पाता।
(8) इसमें प्रत्येक फ्रेम अति स्पष्ट तथा बड़ा बनाना पड़ता है।
(9) यह अभिकरण छात्रों की तार्किक शक्ति के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(10) यह छात्र-केन्द्रित अभिकरण है।
(11) वह अभिक्रम परम्परागत ट्यूटोरियल विधि पर आधारित होता है।
(12) इस अभिक्रम में अधिगमकर्ता की रुचि बराबर बनी रहती है।
(13) इसमें गलतियाँ, अधिगम प्रक्रिया में बाधक नहीं बन पाती क्योंकि यह अभिक्रम यह मान कर चलता है कि गलतियों से भी सीखा जाता है और गलतियाँ ठीक करने की इसमें व्यवस्थित प्रणाली होती है।
(14) इस प्रकार के अभिक्रम द्वारा तैयार सामग्री, पुस्तकों तथा शिक्षण-मशीनों, दोनी में उपयोगी होती है।
(15) यह अभिक्रम विभेदीकरण क्षमता, सृजनात्मकता तथा समस्या समाधान योग्यता के विकास में सहायक होती है।

शाखीय अभिक्रम की सीमायें
(Limitations of Branching Programming)

(1) इसमें हर वर्ष (या निश्चित समयान्तराल के पश्चात्) संशोधन की आवश्यकता होती
(2) यह बड़ी कक्षाओं के लिये ज्यादा उपयोगी है।
 (3) इसमें पूर्ण विषय-वस्तु को समाहित करना कठिन हो जाता है।
 (4) यह अपेक्षाकृत महँगा अभिक्रम है।
(5) इस अभिक्रम के निर्माण के लिये कुशल तथा प्रशिक्षित एवं योग्य शिक्षकों की जरूरत पड़ती है।
(6) इसमें बहु-विकल्प वाले प्रश्नों को करने के लिये अनेक बार, छात्र बिना विषय-वस्तु को समझे या बिना पढ़े, केवल अनुमान के आधार पर ही उत्तर दे देते हैं।

(3) मैथेटिक्स प्रोग्रामिंग
(MATHETICS PROGRAMMING)

मैथेटिक्स प्रोग्नामिंग विकसित करने का श्रेय थॉमस एफ० गिलबर्ट को है। मैथेटिक्स शब्द यूनानी भाषा के "मैथीन' शब्द से निकला है जिसका अर्थ है-सीखना। मैथेटिक्स का तात्पर्य-समूह के जटिल व्यवहार के विश्लेषण एवं पुनर्निर्माण हेतु पुनर्बलन के सिद्धान्तों के उस सुव्यवस्थित प्रयोग से है जो विषय-वस्तु में निपुणता बताती है।

"Mathetics is defined as a systematic application of reinforcement theory to the analysis and construction of complex repertoires which represent the mastery in subject matter."

यह यद्यपि थोड़ी जटिल प्रकृति की प्रोग्रामिंग है पर यह कठिन कौशलों की प्राप्ति में, वांछित व्यवहार लाने में तथा विषय-वस्तु पर पूर्ण अधिकार अर्जित करने में बहुत उपादेय मानी गयी है।

मैथेटिक्स अभिक्रमण में अभिक्रम की यूनिट 'पद' न होकर 'अभ्यास' (Exercise) होती है। इसमें पाठ्य-वस्तु को एक कड़ी के रूप में रखा जाता है. जिसमें अन्तिम पद को प्रथम पद के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। (अवरोही श्रृंखला या Retrogressive Chaining)
 
 प्रारम्भ में मैथेटिक्स गणित के क्षेत्र में प्रयुक्त किया गया था परन्तु अन्य विषयों में भी इसका प्रयोग किया जा सकता है। इस अभिक्रम की तीन अवस्थायें होती हैं
1. प्रदर्शन (Demonstration)
 2. अनुबोधन (Prompting)
 3. उन्मुक्ति (Release)
 
प्रदर्शन में छात्रों के अधिगम-व्यवहार को प्रदर्शित किया जाता है। अनुवोधन अवस्था में अधिगम व्यवहार को उत्पन्न करने के लिये अनुबोधनों की व्यवस्था की जाती है।
उन्मुक्ति अवस्था में अधिगम व्यवहार (जो सीख लिये गये हैं) उनके अभ्यास के अवसर प्रदान किये जाते हैं। अनुबोधन तीसरी अवस्था में प्रयुक्त नहीं किये जाते।
मैथेटिक्स का निर्माण, कठिन होता है, इसके लिये अभिक्रमिक में विशिष्ट योग्यता होनी चाहिये। इसमें सीखी जाने वाली विषय-वस्तु के अन्तिम पद से शुरू करके. प्रथम पद तक पहुँचना सामान्य बालकों के लिये थोड़ा मुश्किल हो जाता है।

मैथेटिक्स की प्रमुख विशेषताएँ तथा सम्बन्धित कार्य-प्रणाली

(1) मैथेटिक्स प्रोग्रामिंग में अन्य अनुदेशात्मक प्रारूप की भाँति शिक्षण-सामग्री के विस्तृत विश्लेषण से अधिगम प्राप्त होता है।
(2) इसमें अधिगम की इकाई फ्रेम (Frame) न होकर अभ्यास या समस्या होती है।
(3) इस अभ्यास या समस्या का समाधान खोजना ही छात्रों को पुनर्बलन प्रदान करता है।
(4) इसमें अवरोही श्रृंखला (Backward or Retogressive) सिद्धान्त का उपयोग किया जाता
(5) अवरोही श्रृंखला के अन्तर्गत तीन मूलभूत सोपानों (प्रदर्शन, अनुबोधन तथा उन्मुक्ति) का समावेशन होता है।

मैथेटिक्स प्रोग्राम की प्रक्रिया

उपर्युक्त्त के आधार पर मैथेटिक्स प्रोग्राम की प्रक्रिया निम्न प्रकार व्यक्त की जा सकती है
(।) इसमें सर्वप्रथम नैपुण्य पद की तलाश की जाती है। प्रायः यह पद श्रृंखला के अन्तिम पद के रूप में होता है।
(2) इसके पश्चात प्रोग्रामर छात्रों के समक्ष निपुणता प्राप्त कराने वाले सभी पद प्रस्तुत करता है तथा छात्रों को नैपुण्य पद से सम्बन्धित अनुक्रिया करने के लिये जरूरी अनुबोधन प्रदान करता है जिससे कि वे निपुणता के अन्तिम स्तर तक पहुँच सकें।
(3) इसके बाद अन्तिम नैपुण्य पद तक पहुँचने से पूर्व, अन्य सभी पदों को छात्रों के सामने रखा जाता है। छात्रों को अनुबोधन (Prompts) दिये जाते हैं, वे अनुक्रिया करते हैं फिर उन्हें नैपुण्य पद का अभ्यास करने के लिये कहा जाता है।
(4) इसके बाद छात्रों के सामने अन्तिम नैपुण्य पद से ठीक पहले के पद से भी एक पद पूर्व तक ले जाने वाले पदों को प्रस्तुत किया जाता है।
(5) इस प्रकार छात्र अनुक्रिया करते रहते हैं। सबसे अन्त में पहले पद के प्रति अनुक्रिया करनी पड़ती है। इस प्रकार धीरे-धीरे उल्टी तरफ से चल कर निपुणता प्राप्त की जाती है। इसे निम्न प्रकार से प्रदर्शित किया जा सकता है
R
यहाँ-D= छात्र द्वारा निष्पादित तथा प्रदर्शित, P = अनुबोधक, R अनुक्रिया के लिये उन्मुक्ति।


मैथेटिक्स अभिक्रम की सीमायें
(LIMITATIONS OF MATHETICS PROGRAMMING)

 मैथेटिक्स अभिक्रम की सीमायें नीचे दी जा रहीं हैं
 
(1) मैथेटिक्स अभिक्रम का निर्माण काफी जटिल तथा कठिन है। इसके लिये पर्याप्त दक्षता एवं विशिष्ट प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
(2) सभी विषयों से सम्बन्धित समस्त प्रकार की विषयवस्तु के क्षेत्र में यह उपयोगी नहीं है। इसकी उपयोगिता, गणित, भौतिक विज्ञान एवं मनोगत्यात्मक कौशलों की प्राप्ति में ज्यादा प्रभावशाली पायी गयी है।
(3) इस अभिक्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुरूप अनुदेशन देने की प्रकृति का कोई भी ध्यान नहीं रखा जाता।
(4) सामान्य या मन्द बुद्धि छात्रों के लिये यह ज्यादा उपादेय सिद्ध नहीं हुयी है।
(5) उस शैली में निर्मित अभिक्रम अधिक महँगे होते हैं क्योंकि इनमें उदाहरणों, चित्रों तथा रेखाचित्रों आदि का प्रयोग अधिक किया जाता है।
(6) यह सभी प्रकार के शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये उपयुक्त शैली नहीं है।

 अभिक्रमित अनुदेशन के लाभ
 (ADVANTAGES OF PROGRAMMED LEARNING)
 
 अभिक्रमित अनुदेशन के प्रमुख लाभ नीचे दिये जा रहे हैं--
1. अभिक्रमित अनुदेशन व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखता है। अतः यह छात्र केन्द्रित अभिकम है।
2. अभिक्रमित अधिगम में छात्र अपनी गति के अनुसार सीखते हैं।
3. अभिक्रमित अनुदेशन में छोटे-छोटे पद होते हैं अतः इसके द्वारा सीखना छात्रों के लिये सरल हो जाता है।
4. क्योंकि इसमें छात्रों को प्रत्येक पद पर अनुक्रिया करनी पड़ती है। अतः अभिक्रमित अनुदेशन में छात्र सक्रिय रहकर सीखते हैं।
5. क्योंकि इसमें प्रत्येक पद पर सही अनुक्रिया को तुरन्त पृष्ठपोषण प्राप्त होता है। अतः अभिक्रमित अनुदेशन में अधिगम अधिकतम होता है।
6. अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री शिक्षक को कक्षा शिक्षण से मुक्त कर सृजनात्मक कार्यों तथा छात्रों के साथ अन्तःक्रिया करने के लिये अधिक समय प्रदान करने में सक्षम होती है।
7. इसके द्वारा शिक्षण के परिणाम, परम्परागत-शिक्षण की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होते
8. ये पत्राचार तथा दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
9. यह अनुदेशन छात्रों में आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता की भावना का विकास करता
10. यह स्वाध्याय तथा तार्किक विश्लेषण सिखाने में भी उपयोगी है।
11. इसमें छात्र अपनी इच्छा तथा सुविधा के अनुसार पढ़ सकता है। अतः परम्परागत शिक्षण की भाँति इसमें किसी निश्चित या नियमित समय की पाबन्दी नहीं होती।
12. इसमें अभ्यास के लिये अनेक पद होते हैं। ये पद क्योंकि रुचिकर रीति से प्रस्तुत किये जाते हैं, अतः उनकी रुचि बनी रहती है और वे सरलता से पाठ समझ लेते हैं। -
13. इसके सहारे छात्रों की कठिनाइयों का निदान सरलता से हो जाता है।
14. अधिगम स्तर उच्च तथा प्रभावकारी होता है।

अभिक्रमित अनुदेशन की सीमायें
(LIMITATIONS OF PROGRAMMED INSTRUCTION)

 इसकी मुख्य सीमायें नीचे दी गयी हैं
 
1. अभिक्रमित अनुदेशन में छात्र-शिक्षक सम्पर्क कम हो जाता है।
2. अभिक्रमित अध्ययन ज्ञान की प्राप्ति में तो सहायक हैं परन्तु अनुभव प्रदान करने की इनमें कोई व्यवस्था नहीं होती।
3. छात्र-शिक्षक के मध्य सजीव अन्तक्रिया प्रभावपूर्ण शिक्षण में सहायक होती है परन्तु अभिक्रमित अनुदेशन में यह न होने के कारण कुछ समय तक कार्य करने के बाद बोरियता महसूस करने लगते हैं।
4. अभिक्रमित अधिगम सामग्री तैयार करने के लिये विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है, पर वे भारतवर्ष में अभीष्ट संख्या में उपलब्ध नहीं हैं।
5. सभी कक्षाओं के लिये अनुदेशन सामग्री क्योंकि उपलब्ध नहीं है। अतः इनका प्रयोग शिक्षण में ज्यादा नहीं हो पा रहा।

अभिक्रमित अनुदेशन के उपयोग
(USES OF PROGRAMMED INSTRUCTION)

 अभिक्रमित अनुदेशन आज के युग में अत्यन्त उपादेय सिद्ध हुआ है। इसका उपयोग अग्रांकित क्षेत्रों में सफलतापूर्वक किया जा रहा है
1. शिक्षक प्रशिक्षण के क्षेत्र में,
2. पत्राचार शिक्षा के क्षेत्र में,
3. अनौपचारिक तथा सतत् शिक्षा के क्षेत्र में,
4. बैंकों में प्रशिक्षण के क्षेत्र में,
5. सैनिक अफसरों के प्रशिक्षण में,
6. रेडियो औद्योगिक पाठ तैयार करने में,
7. औद्योगिक कर्मचारियों के प्रशिक्षण में,
8. विशिष्ट बालकों की शिक्षा के क्षेत्र में,
9. शैक्षिक तकनीकी के क्षेत्र में,
10. जन-शिक्षा तथा स्व-शिक्षा के क्षेत्र में,
11. मार्गदर्शन तथा उपचारात्मक प्रशिक्षण के क्षेत्र में,
12. दूरस्थ तथा प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में।

अभिक्रमित अनुदेशन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा उपादेय तकनीकी उपकरण शिक्षक के हाथ में है जिसका उपयोग करके शिक्षक अपने छात्रों को गहन ज्ञान दे सकता है। विषय-वस्तु पर 100% तक निपुणता प्रदान कर सकता है और उन्हें ज्ञान के अन्तिम पद तक रुचिपूर्वक ले जाने में सफल हो सकता है।

अभ्यास प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न
 
1. विषयवस्तु की प्रकृति के अनुसार शैक्षिक तकनीकी को कितने भागों में विभक्त किया गया है ? प्रत्येक का सविस्तार वर्णन कीजिए।
2. शिक्षण तकनीकी, अनुदेशन तकनीकी एवं व्यवहार तकनीकी की तुलनात्मक व्याख्या कीजिए।
3. शैक्षिक तकनीकी के विभिन्न प्रकार बताते हुए इसके भारत में सामाजिक एवं शैक्षिक महत्व पर प्रकाश डालिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. अनुदेशन प्रारूप क्या है ? इसके कितने प्रकार होते हैं ?
2. प्रणाली उपागम की व्याख्या करते हुए इसके विभिन्न सोपानों को कम से लिखिए
 3. शैक्षिक तकनीकी के लाभ एवं सीमाओं का वर्णन कीजिए।
4. शैक्षिक तकनीकी एवं शिक्षण तकनीकी में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

खाली स्थान भरिए

1. स्किनर के अनुसार, "........"वह शास्त्र है जो शिक्षक की प्रभावशीलता बढ़ाता है और शिक्षण-प्रक्रिया को और अधिक समृद्ध बनाता है।
2 : शैक्षिक तकनीकी के चार रूप ."तथा".. हैं।
3. एक ऐसा विषय है जो उपलब्ध साधनों के सन्दर्भ में स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
4. " वह विज्ञान है जो शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों के व्यवहारों का वैज्ञानिक विधियों द्वारा अध्ययन करता है और आवश्यकतानुसार उनके व्यवहारों का परिमार्जन करता है।
5. ......आधुनिक कौशल, प्रविधियों तथा युक्तियों का शिक्षा और प्रशिक्षण में प्रयोग है।
6. अनुदेशन प्रारूप के तीन प्रकार"................." एवं..... हैं."
7. "उपागम का द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जन्म हुआ था।
8. ....कार्यक्रमों के माध्यम से शैक्षिक तकनीकी व्यक्तिगत अनुदेशन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
9. प्रशिक्षण मनोविज्ञान प्रारूप, ........"तथा".. ."अवयवों पर विशेष ध्यान देता है।
10. शिक्षण तकनीकी के माध्यम से".. ...."तथा".... "पक्षों का अध्ययन किया जाता है।

उत्तर-1. शिक्षण तकनीकी, 2. शिक्षण तकनीकी, अनुदेशन तकनीकी. व्यवहार तकनीकी, अनुदेशन प्रारूप, 3. अनुदेशन तकनीकी, 4, व्यवहार तकनीकी, 5. अनुदेशन प्रारूप, 6. प्रशिक्षण मनोविज्ञान प्रारूप, सम्प्रेषण नियन्त्रण प्रारूप, प्रणाली उपागम, 7. प्रणाली, 8. स्व-अनुदेशन, 9. कार्य विश्लेषण, सम्बन्धित प्रशिक्षण, 10. ज्ञानात्मक, प्रभावात्मक, मनोगत्यात्मक।


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