बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 हिन्दी काव्य बीए सेमेस्टर-1 हिन्दी काव्यसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 हिन्दी काव्य
अध्याय - 4
आदिकाल
प्रश्न- आदिकाल के साहित्यिक सामग्री का सर्वेक्षण करते हुए इस काल की सीमा निर्धारण एवं नामकरण सम्बन्धी समस्याओं का समाधान कीजिए।
उत्तर -
हिन्दी की क्षीणधारा कब परिनिष्ठितं अपभ्रंश के समुद्र से निकलकर संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि शब्द-भंडार रूपी, छोटी-छोटी नदियों को समाहित करती हुई कब स्वतंत्र रूप से बहने लगी यह निश्चित नहीं कहा जा सकता पर इतना असन्दिग्ध है। इस धारा ने अपना स्वतंत्र मार्ग, अनुकूल परिस्थितियों में चयन किया। प्रारम्भिक अवस्था में उसमें उसी विशाल सागर का प्राधान्य है जिससे उसका उद्गम हुआ है। यह धारा कब कहाँ पहुंचकर उस समुद्र से विलय होकर स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में समर्थ हुई। यह आजतक शोधकों का चिन्तन विषय बना हुआ है।
हिन्दी साहित्य के आदिकाल का पूर्वापर समय - हिन्दी भाषा का उदय चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, मिश्रबन्धु जैसे विचारक ईसा की सातवीं शताब्दी स्वीकार करते हैं। इसका आधार वह पुष्प, पुंड्य (पुष्प) कवि हैं, का उल्लेख है, जो संवत् 770 के लगभग साहित्य सृजन में लीन था। महापंडित. राहुल सांकृत्यायन और डॉ. रामकुमार भी इस मत से सहमत हैं। हिन्दी साहित्य के आदिकाल का पूर्वा पर समय महापंडित राहुल ने आठवीं से तेरहवीं शताब्दी के मध्य स्वीकार किया है। हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को डॉ. रामकुमार वर्मा ने भी संवत् 750 से 1300 तक मानकर उसे दो खंडों में विभाजित किया है। यद्यपि हिन्दी भाषा का उदय आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी सातवीं शताब्दी से ही मानते हैं, तथापि प्रारम्भिक हिन्दी को वह अपभ्रंश से बहुत अलग नहीं मानते। यही कारण है कि वह इस काल को संवत् 1050 से संवत् 1375 के मध्य स्वीकार करते हैं। मोतीलाल मेनारिया ने हिन्दी का आविर्भाव काल संवत् 1045 और उसकी पूर्ण प्रतिष्ठा का समय संवत् 1400 दिया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मेनारिया के मत का ही समर्थन करते हैं।
आदिकाल का समय निर्धारण - विभिन्न विद्वानों के हिन्दी साहित्य के आदिकाल के समय निर्धारण सम्बन्धी विचारों पर चिन्तन करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हिन्दी की पूर्ण प्रतिष्ठा का समय ग्यारहवें विक्रम संवत् से चौदहवें विक्रम संवत् के मध्य का है। जो विद्वान आदिकाल को सातवें और आठवें विक्रम संवत् तक ले जाते हैं, वह ठीक नहीं लगता, कारण यह है, उस समय तक हिन्दी अपने आपको अपभ्रंश से अलग ही नहीं कर सकी थी।
आदिकाल के नामकरण की समस्या
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का वीरगाथाकाल - मिश्रबन्धु के बाद आचार्य शुक्ल ने आदिकाल का नाम वीरगाथाकाल दिया। यह नामकरण इसलिए श्रेष्ठ माना गया क्योंकि यह जनता की चित्तवृत्तियों के साथ कवि की मनोवृत्तियों के परिवर्तन को आधार बनाकर दिया गया था। फिर भी विद्वानों ने इस नामकरण पर आपत्तियाँ उठाई।
'आदिकाल' नामकरण भी विवाद - प्रायः सभी हिन्दी विद्वान आदिकाल के नामकरण भी एकमत नहीं हैं। यहीं काल नामकरण को लेकर सर्वाधिक विवाद का विषय रहा है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए कहा- "शायद ही भारतवर्ष के साहित्य के इतिहास में इतने विरोधों और स्वतोव्याघातों का युग कभी आया होगा। इस काल में एक तरफ तो संस्कृत के ऐसे बड़े-बड़े कवियों ने जन्म लिया जिनकी रचनाएँ अलंकृत काव्य परम्परा की चरम सीमा पर पहुंच गयी थी और दूसरी ओर अपभ्रंश के कवि हुए जो अत्यन्त सहज सरल भाषा में अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में अपने मार्मिक भाव प्रकट करते थे। एक अन्य स्थल पर वह एक अन्य टिप्पणी करते हैं। 'इस काल की कहानी को स्पष्ट करने का प्रयत्न बहुत दिनों से किया जा रहा है, तथापि उसका चेहरा अब भी अस्पष्ट ही रह गया है।
आदिकाल के विभिन्न नामकरण - आदिकाल के नामकरण की जटिलताओं के बाद भी विद्वानों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार विभिन्न नाम सुझाए हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस काल का नाम 'बीजवपन' काल दिया। उनके इस नामकरण से ऐसा लगता है, जैसे हिन्दी साहित्य उस समय नितान्त शैशव अवस्था में था, जबकि उस समय तक हिन्दी साहित्य शैथिल्य न होकर अत्यन्त प्रौढ़ अवस्था में था। परम्परागत सभी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ उस समय के इतिहास में खोजी जा सकती हैं। बल्कि परम्परागत सभी साहित्यिक प्रवृत्तियों में कुछ मौलिक उद्भावनाएँ भी हैं। ऐसी स्थिति में आचार्य द्विवेदी द्वारा दिया गया नामकरण समीचीन प्रतीत नहीं होता।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल की रचनाओं में वीर रस का प्राधान्य देखकर इस काल का नाम 'वीरगाथाकाल' दिया था। यद्यपि इस नाम का कम विरोध नहीं हुआ है, तथापि वर्तमान परिस्थितियों में यह नामकरण उपयुक्त प्रतीत होता है।
आदिकाल भ्रान्त धारणा का जनक - इस विवादास्पद समय का नाम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'आदिकाल' दिया और मोतीलाल मेनारिया ने 'आरम्भिक काल' वस्तुतः ये दोनों नाम एक ही अर्थ सूचक हैं। इन नामों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं। लेकिन इन नामों को सार्थक नहीं माना जा सकता। ये दोनो ही नाम भ्रान्त धारणा के जनक हैं। आदिकाल कहने पर यह धारणा बनती है कि स्वतंत्र रूप से विकसित होने वाले पूर्ववर्ती परम्पराओं और काव्य रूढ़ियों से निर्मुक्त यह काल एक सर्वथा नवीन काव्य का काल है, जबकि यह आरम्भिक काल सर्वथा नवीन एवं नूतन नहीं है। पूर्ववर्ती अपभ्रंश साहित्य से हिन्दी साहित्य पर्याप्त मात्रा में प्रभावित हुआ है। अतः यह एकदम स्वतंत्र एवं नूतन हिन्दी का आरम्भिक काल नहीं माना जा सकता। इस काल का नामकरण तो ऐसा होना चाहिए जो तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्ति को सूचित कर सके। इन दोनों नामों से तो ऐसा सामर्थ्य नहीं लगता।
आदिकाल नामकरण में दोष - इस नामकरण में मुख्य दोष यह है कि यदि साहित्य के कालों के नामकरण का निर्धारण इस प्रकार करेंगे तो हिन्दी साहित्य के इतिहास को तीन कालों में विभाजित करना पड़ेगा - (क) आदि या आरम्भिक (ख) मध्यकाल (ग) आधुनिक काल। फिर साहित्य की प्रवृत्तियों के आधार पर नामकरण का झमेला खड़ा करना ही बेकार है, जबकि विश्व वाङ्मय के इतिहास में कालों का नामकरण इसी आधार पर किया जाता है। आदिकाल की असमर्थता के सम्बन्ध में तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कहा था- "वस्तुतः हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावापन्न परम्परा विर्निमुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी रूढ़िग्रस्त और सजग तथा सचेत कवियों का काल है। यदि पाठक इस धारणा से सावधान रहे तो यह नाम बुरा नहीं।'
राहुल सांकृत्यायन का सिद्ध सामन्त युग - राहुल के अनुसार आठवीं से लेकर बारहवीं शती तक हिन्दी साहित्य में दो प्रकार की कविताएँ मिलती हैं- (क) सिद्धों की वाणी, (ख) सामन्तों की सृष्टिपरक रचनाएँ। वे हिन्दी का आदि कवि भी सिद्ध सरहपाद को मानते हैं। उन्होंने स्वीकार किया है कि इस युग में सिद्धों की एक दीर्धी परम्परा है। बौद्धों और नाथ सिद्धों की तथा जैन मुनियों की अक्ष और उपदेशात्मक रचनाएँ सिद्धों की वाणी के अन्तर्गत है। जैन साहित्य के लगभग 50 ग्रन्थ इस काल में मिलते हैं। इनका साहित्यिक महत्व नहीं है। पर भाषा वैज्ञानिक महत्व अवश्य है। सिद्धों की खोज के कारण वे प्रशंसा के पात्र है। पर नामकरण के जिस उच्च स्तरीय आधार की आवश्यकता है, वह इसमें नहीं दिखता, राहुल जी ने यह भी कहा है कि सिद्धों के अतिरिक्त राजपूत राजाओं के दरबारों में चारणों द्वारा रचित वीर रस काव्य भी इस समय उपलब्ध होता है। इसीलिए वे सूर सामन्तों के दरबार में आश्रय लेने वाले चारण कवियों के काल को चारण काल कहना अधिक उचित मानते हैं।
राहुल का नामकरण निर्दोष नहीं - राहुल द्वारा प्रदत्त नामकरण भी निर्दोष नहीं कहा जा सकता। इसका कारण यह है कि सामंत शब्द से हमारा ध्यान चारण कवियों की वीर रसात्मक रचनाओं की ओर नहीं जाता, अपितु उस काल के राजपूत राजाओं की ओर आकृष्ट होता है। फिर सिद्ध युग, जैन युग.. सामंत युग की अवधारणा साहित्यिक नहीं कही जा सकती।
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा व चंद्रधर शर्मा गुलेरी का अपभ्रंश काल - इन दोनों क्रमशः भाषा शास्त्री और कथाकार ने आदिकाल में अपभ्रंश की प्रचुरता देखी और अपभ्रंशकाल नाम दे दिया।
अपभ्रंश काल नाम निर्दोष नहीं - लेकिन इस नाम को निर्दोष नहीं कहा जा सकता। इस नामकरण का सबसे बड़ा दोष ही भाषा के प्राधान्य पर आधारित होना है। किसी भी इतिहास में काल का नामकरण भाषा के आधार पर नहीं किया जा सकता। नामकरण तो तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों या उस काल के साहित्यकार के नाम पर किया जाता है। 'अपभ्रंशकाल' नाम से पाठक का ध्यान हिन्दी साहित्य के इतिहास की ओर न जाकर अपभ्रंश साहित्य की ओर जाता है। इसीलिए इस नामकरण को समर्थन प्राप्त न हो सका।
डॉ. रामकुमार वर्मा का संधिकाल और चारणकाल - आदिकाल के नामकरण के लिए डॉ. वर्मा ने दो नाम दिये संधिकाल और चारणकाल संधिकाल अपभ्रंश साहित्य के अंत का द्योतक है और हिन्दी साहित्य की आरम्भिक स्थिति का भी। चारणकाल नाम आचार्य शुक्ल के 'वीरगाथाकाल' के लिए दिया है। उनके अनुसार चारणकाल से पूर्व का काल संधिकाल है। सिद्धों और जैन कवियों की रचनाओं को उन्होंने इस नाम के अन्तर्गत स्वीकार किया है।
संधिकाल और चारणकाल सर्वथा निर्दोष नहीं - डॉ. रामकुमार वर्मा का यह नाम उपयुक्त नहीं है। वस्तुतः जिस लोकभाषा का प्रयोग सिद्धों ने अपनी रचनाओं में किया है उसका विकास अर्धमागधी अपभ्रंश से है और जैन कवियों की भाषा का विकास नगर अपभ्रंश से है। शौरसेनी अपभ्रंश के विकसित हिन्दी के प्रारम्भिक रूप से इन दोनों भाषाओं का सम्बन्ध है। वे हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल में ही सिद्ध एवं जैन कवियों की रचनाएँ स्वीकार करने के पक्ष में हैं। वस्तुतः उनके संधिकाल की रचनाएँ अपभ्रंश के निकट है। अतः हिन्दी की परिधि में इन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। जहाँ तक उनके चारणकाल का प्रश्न है, वह निःसन्देह अशान्ति का काल था। राजपूत राजाओं के आश्रित कवि या भाट दर्पपूर्ण कविताएँ कर उन्हें सुनाते थे। इसके बावजूद चारणकाल नाम जाति विशेष पर आधारित है, अतः इसे उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।
उपयुक्त नाम वीरगाथाकाल - प्रस्तुत काल के लिए उपयुक्त नाम आचार्य शुक्ल द्वारा निर्धारित वीरगाथाकाल ही है। इसलिए कि इस काल की सभी परिस्थितियाँ, प्रवृत्तियाँ सभी इसी नाम की पुष्टि करती है। इस पर भी आलोचकों ने इस काल निर्धारण का खुलकर विरोध किया और अकाट्य तर्क दिये। यूँ तो शुक्ल जी भी इस काल का यह नाम देते हुए हिचकिचाएँ भी थे।
डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय की वीरगाथाकाल नाम पर आपत्ति - डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने वीरगाथाकाल नाम पर आपत्ति जतायी और उन्होंने स्पष्ट कहा यह नाम उपयुक्त नहीं, इसे बदलने की आवश्यकता है। यद्यपि वे यह स्वीकार करते हैं आदिकाल में अनेक महत्वपूर्ण वीरगाथाएँ मिलती हैं। उनमें रणभेदी का निनाद भी सुनाई पड़ती है। विविध रासों ग्रन्थ इस बात के प्रमाण हैं। मुसलमान विजेता ज्यों-ज्यों आगे बढ़े, वीरगाथात्मक रचनाएँ भी संख्या में आगे बढ़ने लगी। चारण लोग अपने आश्रयदाताओं को प्रोत्साहन देना अथवा उनका यशोगान करना अपना कर्त्तव्य समझते थे। 'आचार्य शुक्ल ने भी इसी कारण इस काल का नाम वीरगाथाकाल रखा था। वार्ष्णेय अपने मंतव्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं 'हमें वीरगाथाकाल नाम बदलना पड़ेगा।
मोतीलाल मेनारिया की वीरगाथाकाल नामकरण पर आपत्ति - मोतीलाल मेनारिया ने वीरगाथाकाल नाम पर विरोध किया है इस सन्दर्भ में लिखा है ये रासो ग्रन्थ जिनको वीरगाथाकाल नाम दिया गया है तथा जिसे आधार पर वीरगाथाकाल की विवेचना की गयी है, राजस्थान के इसी समय विशेष की साहित्यिक प्रवृत्ति को भी सूचित नहीं करते। केवल चारण-भाट आदि कुछ वर्गों के लोगों की जन्मजात मनोवृत्ति को प्रकट करते हैं। प्रभु भक्ति का भाव इन जातियों के खून में हैं और ये ग्रन्थ उस भावना की अभिव्यक्ति करते हैं। जब चारण भाट आदि अपने रक्त मत भाव की अभिव्यक्ति कर साहित्य का सृजन कर रहे हैं तो साहित्य का नामकरण उस भाव पर क्यों नहीं किया जा सकता।
वीरगाथाकाल क्यों सार्थक है - हिन्दी साहित्य के इतिहास का जन्म उस समय हुआ जब देश में पूर्ण अशान्ति व्याप्त थी। वीणा की झंकार के स्थान पर तलवार की झनझनाहट सुनाई दे रही थी। राजाओं की सहनशीलता जवाब दे गयी थी। प्रायः स्त्री ही युद्ध का कारण होती थी। सुन्दर कन्या की प्राप्ति के लिए व्यर्थ ही राजागण आक्रमण कर बैठते थे। ऐसी विकट परिस्थितियों में उन राजाओं के आश्रित चारण उनकी प्रशंसा में वीर गीत ही तो लिखते। फलतः वीर रस का स्रोत अबाध गति से प्रवाहित हुआ, अतः इस काल का नाम 'वीरगाथाकाल' ही होना चाहिए।
उपलब्ध ग्रन्थों का प्रधान स्वर वीर रसात्मक - नई खोज में अनेक ऐसे ग्रन्थ मिले हैं जो आदिकालीन हैं। पर ये ग्रन्थ या तो अपभ्रंश में हैं या फिर असाहित्यिक हिन्दी में। इन ग्रन्थों में ज्यादातर सिद्धों की अटपटी वाणी ही है। इन्हें साहित्य के अन्तर्गत स्वीकार ही नहीं किया जा सकता। आचार्य शुक्ल ने जिन ग्रन्थों को निर्दिष्ट किया है, वे ही साहित्यिक है। अतः आदिकाल का नामकरण इन्हीं ग्रन्थों पर किया जाना चाहिए। यद्यपि कुछ विद्वानों ने शुक्ल द्वारा चयनित 12 ग्रन्थों को नोटिस मात्र ही कहा है। जो बारह ग्रन्थ आचार्य शुक्ल ने गिनाये हैं उनमें अधिकांशतः वीररस प्रधान ही है। किन्तु विद्वानों मंर इन ग्रन्थों की प्रामाणिकता को लेकर पर्याप्त विवाद है। आचार्य शुक्ल द्वारा चुने गये बारह ग्रन्थों का विद्वानों ने अस्तित्व ही अस्वीकार कर दिया। 'विजय पाल रासो हो तो मोतीलाल मेनारिया ने उन्नीसवीं शताब्दी की ही रचना बता दिया। शारगंधर द्वारा रचित 'हम्मीर रासो' के सम्बन्ध में मेनारिया कहते हैं कि इसके कुछ अंश इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तो इसे नोटिस मात्र ही मानते हैं। 'कीर्तिकला' और 'कीर्ति पताका', 'वीर गाथात्मक ग्रन्थ हैं, इन्हें अपभ्रंश भाषा में रचा होने के कारण हिन्दी से ही खारिज कर दिया। 'दलपत विजय', 'खुमान रासो को मेनारिया 1730 व 1760 के बीच की रचना मानते हैं। नरपति नाल्ह कृत 'बीसलदेव' का रचनाकाल मेनारिया संवत् 1912 में बीसलदेव का विवाह राजा भोज की लड़की राजमती से होना लिखा है, जबकि भोज और बीसलदेव के समय में लगभग 110 वर्ष का अन्तर है। इसी प्रकार 'पृथ्वीराज रासो रचना को पृथ्वीराज के समय में स्वीकार नहीं करते। द्विवेदी जी की नजर में 'जयचन्द्र प्रकाश' और 'जयमयंक जसचंद्रिका' भी नोटिस मात्र हैं। द्विवेदी जी 'परमाल रासो के बारे में कहते हैं कि जगनिक के काव्य का आज तक अता-पता नहीं है।
निष्कर्ष यह है कि यदि उपलब्ध काव्य ग्रन्थों की प्रामाणिता पर न जायें तो एक बात तो स्पष्ट ही है, इन ग्रन्थों की प्रधान प्रवृत्ति वीर रासत्मक ही है, ज्यादातर की। अतः वीरगाथाकाल नाम देने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। ग्रन्थों की प्रामाणिक अप्रामाणिक का मुद्दा दूसरा है। पर जो उपलब्ध है, उनका अधिकांश स्वर तो वीर रसात्मक है। अतः आदिकाल का पूर्णतः सार्थक नाम वीरगाथाकाल ही माना जाना चाहिए।
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- प्रश्न- भारतीय ज्ञान परम्परा और हिन्दी साहित्य पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में शुक्लोत्तर इतिहासकारों का योगदान बताइए।
- प्रश्न- प्राचीन आर्य भाषा का परिचय देते हुए, इनकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए?
- प्रश्न- मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए, इनकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए?
- प्रश्न- आधुनिक आर्य भाषा का परिचय देते हुए उनकी विशेषताएँ बताइए।
- प्रश्न- हिन्दी पूर्व की भाषाओं में संरक्षित साहित्य परम्परा का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- वैदिक भाषा की ध्वन्यात्मक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य का इतिहास काल विभाजन, सीमा निर्धारण और नामकरण की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- आचार्य शुक्ल जी के हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन का आधार कहाँ तक युक्तिसंगत है? तर्क सहित बताइये।
- प्रश्न- काल विभाजन की उपयोगिता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- आदिकाल के साहित्यिक सामग्री का सर्वेक्षण करते हुए इस काल की सीमा निर्धारण एवं नामकरण सम्बन्धी समस्याओं का समाधान कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य में सिद्ध एवं नाथ प्रवृत्तियों पूर्वापरिक्रम से तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- नाथ सम्प्रदाय के विकास एवं उसकी साहित्यिक देन पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- जैन साहित्य के विकास एवं हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उसकी देन पर एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- सिद्ध साहित्य पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- आदिकालीन साहित्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य में भक्ति के उद्भव एवं विकास के कारणों एवं परिस्थितियों का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- भक्तिकाल की सांस्कृतिक चेतना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- कृष्ण काव्य परम्परा के प्रमुख हस्ताक्षरों का अवदान पर एक लेख लिखिए।
- प्रश्न- रामभक्ति शाखा तथा कृष्णभक्ति शाखा का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- प्रमुख निर्गुण संत कवि और उनके अवदान विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- सगुण भक्ति धारा से आप क्या समझते हैं? उसकी दो प्रमुख शाखाओं की पारस्परिक समानताओं-असमानताओं की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- भक्तिकाल स्वर्णयुग है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
- प्रश्न- उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल ) की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, काल सीमा और नामकरण, दरबारी संस्कृति और लक्षण ग्रन्थों की परम्परा, रीति-कालीन साहित्य की विभिन्न धारायें, ( रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त) प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ, रचनाकार और रचनाएँ रीति-कालीन गद्य साहित्य की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियों का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी के रीतिमुक्त कवियों की विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- बिहारी रीतिसिद्ध क्यों कहे जाते हैं? तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
- प्रश्न- रीतिकाल को श्रृंगार काल क्यों कहा जाता है?
- प्रश्न- आधुनिक काल की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, सन् 1857 ई. की राजक्रान्ति और पुनर्जागरण की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी नवजागरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल का प्रारम्भ कहाँ से माना जाये और क्यों?
- प्रश्न- आधुनिक काल के नामकरण पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भारतेन्दु युग के प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- भारतेन्दु युग के गद्य की विशेषताएँ निरूपित कीजिए।
- प्रश्न- द्विवेदी युग प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- द्विवेदी युगीन कविता के चार प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये। उत्तर- द्विवेदी युगीन कविता की चार प्रमुख प्रवृत्तियां निम्नलिखित हैं-
- प्रश्न- छायावादी काव्य के प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- छायावाद के दो कवियों का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- छायावादी कविता की पृष्ठभूमि का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- उत्तर छायावादी काव्य की विविध प्रवृत्तियाँ बताइये। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, नवगीत, समकालीन कविता, प्रमुख साहित्यकार, रचनाएँ और साहित्यिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- प्रयोगवादी काव्य प्रवृत्तियों का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- प्रगतिवादी काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी की नई कविता के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उसकी प्रमुख प्रवृत्तिगत विशेषताओं का प्रकाशन कीजिए।
- प्रश्न- समकालीन हिन्दी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- गीत साहित्य विधा का परिचय देते हुए हिन्दी में गीतों की साहित्यिक परम्परा का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- गीत विधा की विशेषताएँ बताते हुए साहित्य में प्रचलित गीतों वर्गीकरण कीजिए।
- प्रश्न- भक्तिकाल में गीत विधा के स्वरूप पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
- अध्याय - 13 विद्यापति (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- विद्यापति पदावली में चित्रित संयोग एवं वियोग चित्रण की विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
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- प्रश्न- विद्यापति की सामाजिक चेतना पर संक्षिप्त विचार प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- विद्यापति भोग के कवि हैं? क्यों?
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- अध्याय - 14 गोरखनाथ (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- गोरखनाथ का संक्षिप्त जीवन परिचय दीजिए।
- प्रश्न- गोरखनाथ की रचनाओं के आधार पर उनके हठयोग का विवेचन कीजिए।
- अध्याय - 15 अमीर खुसरो (व्याख्या भाग )
- प्रश्न- अमीर खुसरो के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो की कविताओं में व्यक्त राष्ट्र-प्रेम की भावना लोक तत्व और काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताओं एवं पहेलियों का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- अमीर खुसरो सूफी संत थे। इस आधार पर उनके व्यक्तित्व के विषय में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- अमीर खुसरो के काल में भाषा का क्या स्वरूप था?
- अध्याय - 16 सूरदास (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- सूरदास के काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- "सूर का भ्रमरगीत काव्य शृंगार की प्रेरणा से लिखा गया है या भक्ति की प्रेरणा से" तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
- प्रश्न- सूरदास के श्रृंगार रस पर प्रकाश डालिए?
- प्रश्न- सूरसागर का वात्सल्य रस हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है। सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- पुष्टिमार्ग के स्वरूप को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए?
- प्रश्न- हिन्दी की भ्रमरगीत परम्परा में सूर का स्थान निर्धारित कीजिए।
- अध्याय - 17 गोस्वामी तुलसीदास (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- तुलसीदास का जीवन परिचय दीजिए एवं उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- तुलसी की भाव एवं कलापक्षीय विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- अयोध्याकांड के आधार पर तुलसी की सामाजिक भावना के सम्बन्ध में अपने समीक्षात्मक विचार प्रकट कीजिए।
- प्रश्न- "अयोध्याकाण्ड में कवि ने व्यावहारिक रूप से दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण किया है, इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
- प्रश्न- अयोध्याकाण्ड के आधार पर तुलसी के भावपक्ष और कलापक्ष पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'तुलसी समन्वयवादी कवि थे। इस कथन पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- तुलसीदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- राम का चरित्र ही तुलसी को लोकनायक बनाता है, क्यों?
- प्रश्न- 'अयोध्याकाण्ड' के वस्तु-विधान पर प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 18 कबीरदास (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- कबीर का जीवन-परिचय दीजिए एवं उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- कबीर के काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- कबीर के काव्य में सामाजिक समरसता की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- कबीर के समाज सुधारक रूप की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- कबीर की कविता में व्यक्त मानवीय संवेदनाओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- कबीर के व्यक्तित्व पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 19 मलिक मोहम्मद जायसी (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन-परिचय दीजिए एवं उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- जायसी के काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- जायसी के सौन्दर्य चित्रण पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- अध्याय - 20 केशवदास (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- केशव को हृदयहीन कवि क्यों कहा जाता है? सप्रभाव समझाइए।
- प्रश्न- 'केशव के संवाद-सौष्ठव हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि हैं। सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- आचार्य केशवदास का संक्षेप में जीवन-परिचय दीजिए।
- प्रश्न- केशवदास के कृतित्व पर टिप्पणी कीजिए।
- अध्याय - 21 बिहारीलाल (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- बिहारी की नायिकाओं के रूप-सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी के काव्य की भाव एवं कला पक्षीय विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- बिहारी ने किस आधार पर अपनी कृति का नाम 'सतसई' रखा है?
- प्रश्न- बिहारी रीतिकाल की किस काव्य प्रवृत्ति के कवि हैं? उस प्रवृत्ति का परिचय दीजिए।
- अध्याय - 22 घनानंद (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- घनानन्द का विरह वर्णन अनुभूतिपूर्ण हृदय की अभिव्यक्ति है।' सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के वियोग वर्णन की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- घनानन्द का जीवन परिचय संक्षेप में दीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के शृंगार वर्णन की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
- अध्याय - 23 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की शैलीगत विशेषताओं को निरूपित कीजिए।
- प्रश्न- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काव्य की भाव-पक्षीय विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाषागत विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- भारतेन्दु जी के काव्य की कला पक्षीय विशेषताओं का निरूपण कीजिए। उत्तर - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काव्य की कलापक्षीय कला विशेषताएँ निम्न हैं-
- अध्याय - 24 जयशंकर प्रसाद (व्याख्या भाग )
- प्रश्न- सिद्ध कीजिए "प्रसाद का प्रकृति-चित्रण बड़ा सजीव एवं अनूठा है।"
- प्रश्न- जयशंकर प्रसाद सांस्कृतिक बोध के अद्वितीय कवि हैं। कामायनी के संदर्भ में उक्त कथन पर प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 25 सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (व्याख्या भाग )
- प्रश्न- 'निराला' छायावाद के प्रमुख कवि हैं। स्थापित कीजिए।
- प्रश्न- निराला ने छन्दों के क्षेत्र में नवीन प्रयोग करके भविष्य की कविता की प्रस्तावना लिख दी थी। सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
- अध्याय - 26 सुमित्रानन्दन पन्त (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- पंत प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- 'पन्त' और 'प्रसाद' के प्रकृति वर्णन की विशेषताओं की तुलनात्मक समीक्षा कीजिए?
- प्रश्न- प्रगतिवाद और पन्त का काव्य पर अपने गम्भीर विचार 200 शब्दों में लिखिए।
- प्रश्न- पंत के गीतों में रागात्मकता अधिक है। अपनी सहमति स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- पन्त के प्रकृति-वर्णन के कल्पना का अधिक्य हो इस उक्ति पर अपने विचार लिखिए।
- अध्याय - 27 महादेवी वर्मा (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का उल्लेख करते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
- प्रश्न- "महादेवी जी आधुनिक युग की कवियत्री हैं।' इस कथन की सार्थकता प्रमाणित कीजिए।
- प्रश्न- महादेवी वर्मा का जीवन-परिचय संक्षेप में दीजिए।
- प्रश्न- महादेवी जी को आधुनिक मीरा क्यों कहा जाता है?
- प्रश्न- महादेवी वर्मा की रहस्य साधना पर विचार कीजिए।
- अध्याय - 28 सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- 'अज्ञेय' की कविता में भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों समृद्ध हैं। समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'अज्ञेय नयी कविता के प्रमुख कवि हैं' स्थापित कीजिए।
- प्रश्न- साठोत्तरी कविता में अज्ञेय का स्थान निर्धारित कीजिए।
- अध्याय - 29 गजानन माधव मुक्तिबोध (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- मुक्तिबोध की कविता की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
- प्रश्न- मुक्तिबोध मनुष्य के विक्षोभ और विद्रोह के कवि हैं। इस कथन की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
- अध्याय - 30 नागार्जुन (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- नागार्जुन की काव्य प्रवृत्तियों का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- नागार्जुन के काव्य के सामाजिक यथार्थ के चित्रण पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
- प्रश्न- अकाल और उसके बाद कविता का प्रतिपाद्य लिखिए।
- अध्याय - 31 सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' (व्याख्या भाग )
- प्रश्न- सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'धूमिल की किन्हीं दो कविताओं के संदर्भ में टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' के संघर्षपूर्ण साहित्यिक व्यक्तित्व की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- सुदामा प्रसाद पाण्डेय 'धूमिल' का संक्षिप्त जीवन परिचय लिखिए।
- प्रश्न- धूमिल की रचनाओं के नाम बताइये।
- अध्याय - 32 भवानी प्रसाद मिश्र (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य की विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- भवानी प्रसाद मिश्र की कविता 'गीत फरोश' में निहित व्यंग्य पर प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 33 गोपालदास नीरज (व्याख्या भाग)
- प्रश्न- कवि गोपालदास 'नीरज' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'तिमिर का छोर' का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'मैं तूफानों में चलने का आदी हूँ' कविता की मूल संवेदना स्पष्ट कीजिए।