बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
उत्तर -
रसेन्द्रियवाद के अनुसार कर्म विशेष के नैतिक गुण की पहचान करने वाली विशिष्ट इन्द्रिय रसेन्द्रिय है। इस सिद्धान्त की महत्वपूर्ण स्वीकृति यह है कि सौन्दर्य ही नैतिकता का अन्तिम मानदण्ड है। रसेन्द्रियवाद में सौन्दर्यबोध को अधिक महत्व देकर सत् को सुन्दर तथा असत् को असुन्दर में परिणत कर दिया गया है। शैफ्टसबरी और हचिंसन ने रसेन्द्रियवाद को प्रस्तुत किया है। रस्किन और हर्बर्ट आदि विद्वान इस सिद्धान्त के समर्थक हैं।
1. शैफ्टसबरी का मत - शैफ्टसबरी के अनुसार विभिन्न प्रत्यक्षों के समान ही नैतिक इन्द्रिय द्वारा नैतिक आचरण के अनुरूप वस्तुओं का ज्ञान होता है। किन्तु नैतिक-बोध और सौन्दर्यबोध में कोई अन्तर नहीं है। उनका कथन है कि "जो सुन्दर है, वह सत्य है, वह सामन्जस्यपूर्ण और सन्तुलित है, जो सामंजस्यपूर्ण और संतुलित है वह सत्य है, और जो सुन्दर व सत्य दोनों है, वह रुचिकर और शुभ है।' वे पुनः कहते हैं कि "सुन्दर कर्म प्रशंसनीय और असुन्दर, भद्दे तथा कुरूप कर्म निन्दनीय होते हैं। आन्तरिक इन्द्रिय इन कर्मों में स्पष्ट भेद करती है। सौन्दर्य के सभी रूपों का समर्थन लोग बिना किसी शिक्षा के करते हैं। सौन्दर्य के उपयोग से भिन्न या परे कोई यथार्थ शुभ नहीं है। अतः सुन्दर और शुभ के बीच कोई भेद नहीं है।'
2. फ्राँसिस हचिंसन का मत - हचिंसन ने नैतिक इन्द्रिय के सिद्धान्त को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। उनके अनुसार मनुष्य के पास विभिन्न बाह्य इन्द्रियों के समान एक आन्तरिक इन्द्रिय भी है। उनका कथन है कि "सौन्दर्यबोध की यह आंतरिक इन्द्रिय सभी व्यक्तियों में अन्तर्ज्ञात तथा सार्वभौम है। नैतिक इन्द्रिय एक कुशल नायक, एक याचनाग्रही न्यायाभिकर्ता है, जो बुद्धि से परे है।' इस इन्द्रिय के कारण ही लोग कर्म के नैतिक गुण को देखकर प्रसन्न होते हैं। हचिंसन का मत है कि नैतिकता का सहज अनुभव सुन्दरता के अनुभव के समान है। यह उसी के समान आंतरिक भी है। इस प्रकार हचिंसन ने नैतिक और सुन्दर के मध्य तादात्म्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है।
3. रस्किन और हर्बर्ट का मत - रस्किन और हर्बर्ट भी उपर्युक्त मत से सहमत दिखाई देते हैं। उन्होंने भी कर्म के गुणों का बोध करने वाली इन्द्रिय को रसेन्द्रिय कहा है। जो असुन्दर है वह अनिवार्य रूप से असत् नहीं। रैशडेल का कथन है कि "जब कोई अनुभव सौन्दर्य की दृष्टि से शुभ तथा नैतिकता की दृष्टि से अशुभ घोषित किया जाता है तब उसका तात्पर्य यह होता है कि वह हमारी प्रकृति को आंशिक रूप से ही प्रभावित और संतुष्ट करता है, अतः जब सम्पूर्ण मानव प्रकृति से उसकी तुलना की जाती है, तब उसका अनुमोदन संभव नहीं होता है।'
नैतिक अनुभव की कुछ विशेषताएँ हैं जिनका सौन्दर्यबोध में अभाव है। पाप-पुण्य, कर्तव्य तथा उत्तरदायित्व का सौन्दर्य के अनुभव से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि कोई व्यक्ति सौन्दर्य को नहीं समझता है तो वह पाप का भागी होता है। यदि किसी व्यक्ति में नैतिक चेतना के साथ ही सौन्दर्यबोध भी है तो यह अच्छी बात है, किन्तु नैतिक होने के लिए सौन्दर्यबोध का होना अनिवार्य नहीं है। मैकेन्जी का कथन है कि "यदि किसी व्यक्ति में सौन्दर्यबोध नहीं है तब भी वह समाज का एक सम्मानित सदस्य हो सकता है। किन्तु नैतिक चेतना न होने पर वह सभी नैतिक चेतना- सम्पन्न व्यक्तियों की निन्दा का पात्र होगा।' अतः शुभ और सुन्दर एक ही नहीं है। एक ही व्यक्ति में शुभ संकल्प और सौन्दर्यबोध दोनों का साथ-साथ रहना अनिवार्य नहीं है। एक अच्छे कलाकार में सौन्दर्यबोध सूक्ष्म एवं तीव्र होता है कि वह नैतिकता की दृष्टि से निम्नकोटि का हो सकता है। अतः शुभ और सुन्दर को एक कहने का कोई आधार नहीं है।
नैतिक निर्णय तथा सौन्दर्यमूलक निर्णय दोनों ही मूल्यपरक निर्णय हैं। नैतिक निर्णय वस्तुनिष्ठ होते हैं जबकि सौन्दर्यमूलक निर्णय आत्मनिष्ठ होते हैं। उनका मनुष्यों के शारीरिक संगठन की परिवर्तनशीलता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। नैतिक निर्णय मूल्यपरक हैं तथा वे मानवीय व्यवहार के सभी पक्षों को समाविष्ट करते हैं। रैशडेल का कथन है कि "मानव जीवन का कोई भी क्षेत्र और मानव अनुभव का कोई भी रूप ऐसा नहीं है जिस पर बुद्धि अपना निर्णय न दे।' किन्तु सौन्दर्य सम्बन्धी निर्णय का सम्बन्ध मनुष्य के विभिन्न व्यापारों तथा क्रियाकलापों के एक अंश से होता है। उसकी गति प्राकृतिक वस्तुओं से परे नहीं है। वह उनके सौन्दर्य के मूल्यांकन तक सीमित है। किन्तु नैतिक निर्णय व्यापक है इसलिए वह कलाकृति पर भी दिया जाता है। इस प्रकार नैतिक निर्णय सौन्दर्यमूलक निर्णय से उच्चकोटि का निर्णय है।
किन्तु नैतिक निर्णय तथा सौन्दर्यमूलक निर्णय के बीच सम्बन्ध है। रैशडेल का कथन है कि - "नैतिक निर्णय सौन्दर्यमूलक निर्णय के प्रदत्तों का उपयोग करता है। सौन्दर्यमूलक निर्णय बतलाता है कि यह सुन्दर है। नैतिक निर्णय से यह निर्देश प्राप्त होता है कि यह विशेष प्रकार का सौन्दर्य स्वभाव से मूल्यवान है। अतः इसे रसेन्द्रिय कहा गया है। उनका मत है कि सौन्दर्यबोध ही नैतिकता का आधार है। रस्किन कहते हैं कि "रुचि नैतिकता का एक अंश और सूची नहीं है,
यह एकमात्र नैतिकता है। मुझे बताओ कि तुम्हारी पसन्द क्या है, और मैं तुमको बता दूँगा कि तुम क्या हो।' हर्बर्ट भी शुभत्व तथा सौन्दर्य के तादात्म्य पर बहुत बल देते हैं। वह नीतिशास्त्र को सौन्दर्यशास्त्र का एक अंग समझते हैं।
रसेन्द्रियवाद में सत् और शुभ का सुन्दर से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। किन्तु सत् और शुभ के प्रत्यय सुन्दर के प्रत्यय से सर्वथा भिन्न हैं। सुन्दर में आकर्षण है और वह किसी व्यक्ति को मोहित कर सकती है, परन्तु उसमें उसे नियन्त्रित करने की क्षमता नहीं है। सौन्दर्यबोध का सम्बन्ध मानवीय चेतना से अवश्य है किन्तु वह उसके सम्मुख बाध्यता उपस्थित नहीं कर सकता है। किसी भी व्यक्ति में सौन्दर्य की प्रशंसा करने अथवा उसे सराहने की आंतरिक बाध्यता नहीं होती है।
सौन्दर्य का मूल्यांकन मौलिक रूप से व्यक्तिगत तथा परिवर्तनशील भावना पर निर्भर है, इसलिए उसे समरूप नहीं कहा जा सकता है। नैतिक मानदण्ड समरूप तथा अपरिवर्तनीय होता है। सौन्दर्य में समरूपता और स्थायित्व नहीं है, अतः उसे नैतिक नहीं कहा जा सकता है। जब सौन्दर्य नैतिक मानदण्ड नहीं है तब उसका सत् और शुभ के प्रत्यय से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयत्न बेकार है।
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