बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरणसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण
प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त के जीवन काल की विस्तृत समीक्षा कीजिए।
उत्तर-
विशाखदत्त राजनीति-विषयक नाटकों की रचना में प्रवीण प्रतीत होते हैं। इनकी विश्रुत रचना तो 'मुद्राराक्षस' ही है, जो चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन से सम्बद्ध है और जो अमात्य चाणक्य की बुद्धिमत्ता तथा कुटनीतिमत्ता का एक विमल निदर्शन है।
विशाखदत्त का समय निर्धारण - विशाखदत्त के कालनिर्णय में बहिः साक्ष्य बहुत कम सहायक हैं। इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम मुद्राराक्षस की चर्चा धनिक कृत दशरूपावलोक (1/68) में है तत्र बृहत्कथामूलं मुद्राराक्षसम्। धनिक का समय 1000 ई. है। एक अन्य स्थल (2/55) पर भी इस ग्रन्थ में धनिक ने इस नाटक में प्रयुक्त मन्त्रशक्ति और अर्थशक्ति के उदाहरण दिये हैं। भोज ने सरस्वतीकण्ठाभरण (5/65) में मुद्राराक्षस का नाम लिये बिना इसके दो पद्य (1/22 तथा 3/21) उद्धृत किये हैं। यह 11वीं शताब्दी ई. का ग्रन्थ है। इनकी अपेक्षा इसीलिये अन्तः साक्ष्य अधिक चर्चित और व्यवस्थित है।
अन्तः साक्ष्य की दृष्टि से चार महत्वपूर्ण विचारणीय विषय हैं -
1. भरतवाक्य में 'चन्द्रगुप्त' आदि पाठ,
2. भरतवाक्य में म्लेच्छों के आक्रमण की चर्चा,
3. प्रस्तावना में चर्चित चन्द्रग्रहण तथा,
4. जैन-बौद्ध धर्मों के प्रति विचार।
1. इनका क्रमशः विवेचन किया जाता है। भारतवाक्य में चन्द्रगुप्तादि पाठ-मुद्राराक्षस के भरतवाक्य (7/18) में उत्तरार्ध इस प्रकार हैं -
इसमें राजा चन्द्रगुप्त के चिर-रक्षा का आशीर्वाद है। भरतवाक्य कथानक का अन्त नहीं होता, अपितु उसमें नाट्यकार द्वारा पृथ्वी की अपने समकालिक किसी राजा के प्रशंसा करता। यद्यपि इस प्रसंग - में 'पार्थिवो रन्तिवर्मा' इत्यादि अनेक पाठ मिलते हैं, तथापि बहुसंख्यक विद्वानों ने 'चन्द्रगुप्त' वाले पाठ को मूल एवं अन्य पाठों को परिवर्तित (ऊह-रूप) कहा है। यह चन्द्रगुप्त प्रसिद्ध गुप्तवंशीय नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय था जिसका शासन काल 375 ई. से 413 ई. तक माना जाता है। विशाखदत्त का अन्य नाटक 'देवीचन्द्रगुप्त' भी इसी राजा के सिंहासनारोहण से सम्बद्ध है। गुप्तवंशीय राजा विष्णु के उपासक थे। उक्त भरतवाक्य में भी विष्णु की वराहमूर्ति की चर्चा है। गुप्तकाल के ही अद्यगिरि - अभिलेख वाली गुफा में चित्रित वराह की मूर्ति मिली है जिसमें असुरों से पृथ्वी की रक्षा वराह कर रहे हैं, भरतवाक्य का सीधा सम्बन्ध इस गुहा चित्र से है।
मुद्राराक्षस की विषय-वस्तु और अभिनेता ने इसका अभिनय बार-बार कराया था। संकट के बाद राज्य पाने वाले राजाओं ने इसके मंचन को शुभ मानकर इसका अभिनय कराया और उनके प्रशंसकों ने राजा का नाम भरतवाक्य में बदलना आरम्भ कर दिया। इसीलिये अवन्तिवर्मा आदि अनपेक्षित नामों वाले पाठ उत्पन्न हुये। तेलंग, ध्रुव तथा पं. बलदेव उपाध्याय ने अवन्तिवर्मा (मौखरिवंश के राजा, षष्ठ शताब्दी . ई. का उत्तरार्ध) वाले पाठ को प्रामाणिक मानकर विशाखदत्त का समय 550-600 ई. माना है। किन्तु वस्तुस्थिति इसके प्रतिकूल है। लेखक ने चन्द्रगुप्त मौर्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय की राज्य प्राप्ति में साम्य देखकर इस नाटक की रचना की प्रेरणा पायी थी। उनका प्रबल समर्थन उन्होंने 'देवीचन्द्रगुप्त' लिखकर किया। भारतवर्ष के जिस रूप की प्रशंसा 'मुद्राराक्षस' में की है, वह अवन्तिवर्मा के राज्य में सम्भव नहीं था, अपितु चन्द्रगुप्त द्वितीय का ही राज्य था। गुप्तकाल में ही पाटलिपुत्र मंस समारोहपूर्वक कौमुदी महोत्सव मनाया जाता था। जिसकी मुद्राराक्षस में (3/19 के बाद), भले ही कृतककलह के निमित्त उसके निषेध के लिये, चर्चा है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में फाहियान के अनुसार, बौद्ध धर्म की स्थिति अच्छी थी। मुद्राराक्षस में वर्णित व्यवस्था से उसकी संगति बैठ जाती है। इस प्रकार विशाखदत्त को 400-450 ई. में मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती।
2. म्लेच्छों का आक्रमण - उपर्युक्त भरतवाक्य में म्लेच्छों के आक्रमण का उल्लेख है जिसका प्रतिकार विशाखदत्त के समकालिक (अधुना) राजा चन्द्रगुप्त या अवन्तिवर्मा ने किया था। प्राचीन भारत में सामान्यतः विदेशियों को 'म्लेछ' कहा जाता था। वे वर्णाश्रम धर्म को नहीं मानते थे। ईस्वी सन की प्रारम्भिक शताब्दियों में क्रमशः शकों तथा हूणों को म्लेच्छ कहते थे, यह बात अवश्य थी कि म्लेच्छों ने यहाँ शासन करना आरम्भ कर दिया था। 'अवन्तिवर्मा' पाठ मानने वाले कहते हैं कि इस राजा ने प्रभाकरवर्धन (हर्ष के पिता) के सहयोग से 582 ई. में हूणों को पराजित किया था। किन्तु चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा अपने सिंहासनारोहण के समय ही शकों को पराजित करने का तथ्य अधिक प्रबल है, शकराज को परिणय किया ताकि म्लेच्छों से आक्रान्त पृथ्वी पर पुनः सनातन व्यवस्था स्थापित की जाये, इसकी संगति अधिक ग्राह्य है।
3. चन्द्रग्रहण का उल्लेख - मुद्राराक्षस की प्रस्तावना में ऐसे चन्द्रग्रहण का उल्लेख है जो बुध- योग के कारण टल जाता है। यद्यपि इसमें श्लेष द्वारा ज्योतिषशास्त्रीय एवं प्रकृत विषय दोनों का निरूपण है, किन्तु इसमें निर्दिष्ट तथाकथित चन्द्रग्रहण की व्यवस्था को लेकर भी विद्वानों ने विशाखदत्त का काल निरूपित किया है। विशाखदत्त ज्योतिष के विद्वान् थे। इस शास्त्र में बुध योग से चन्द्रग्रहण का निवारण- सिद्धान्त वराहमिहिर (500 ई. के लगभग) के पूर्व में ही प्रचलित था। वराहमिहिर ने अपनी 'बृहत्संहिता' में कहा है कि बुधयोग से चन्द्रग्रहण का निषेध नहीं होता। यह स्थिति विशाखदत्त 500 ई. पूर्व सिद्ध करती है जो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के राज्यकाल में या उससे कुछ ही बाद विशाखदत्त का काल मानने का समर्थन करती है।
4. जैन-बौद्ध धर्मों के प्रति धारणा - मुद्राराक्षस के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि विशाखदत्त के समय में जैन और बौद्ध धर्म समाज के आदरणीय थे। इस नाटक के सप्तम अंक में राक्षस कहता है कि बोधिसत्वों का तग तो प्रसिद्ध है किन्तु चन्दनदास ने अपने कर्म से (मित्र के लिये प्राण त्याग करते हुये) उनके चरित्र को भी न्यून बना दिया (7/5) | इसी प्रकार क्षणपक जीवसिद्धि का ब्राह्मणों के साथ रहना भी जैन धर्म के प्रति आदरभारव का सूचक है। ये दो धर्म सप्तम शताब्दी से हासोन्मुख हुये। अतः विशाखदत्त को 600 ई. से पूर्व रखना उपयुक्त है। इस दृष्टि से वे मौखरि अवन्तिवर्मा के अथवा चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में भी रखे जा सकते हैं किन्तु अन्य स्थितियाँ (जैसे सम्पूर्ण भारत का एकछत्र राज्य मानना, विष्णु से अपने आश्रयदाता की भरतवाक्य में तुलना, देवीचन्द्रगुप्त की रचना इत्यादि) में विशाखदत्त को चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में सिद्ध करती है। प्रो. हिलब्राँ, स्पेयर, टॉनी, रणजित, पण्डित सी. आर. देवधर आदि इसी के समर्थक हैं। इस मत के प्रवर्तक प्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल थे।
इस प्रकार विशाखदत्त को चन्द्रगुप्त मौर्य का आश्रित नहीं माना जा सकता है, क्योंकि नाटक में चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के लिये कटुवचनों का प्रयोग है। ऐसी दशा में तो विशाखदत्त का काल ही निर्धारित नहीं हो सकता है। कुल मिलाकर विशाखदत्त को चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (400 ई.) के ही काल का मानना न्यायसंगत है।
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- प्रश्न- भास का काल निर्धारण कीजिये।
- प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
- प्रश्न- अश्वघोष के जीवन परिचय का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- अश्वघोष के व्यक्तित्व एवं शास्त्रीय ज्ञान की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि अश्वघोष की कृतियों का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि अश्वघोष के काव्य की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य कला की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- "कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते" इस कथन की विस्तृत विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि भट्ट नारायण का परिचय देकर वेणी संहार नाटक की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- भट्टनारायण की नाट्यशास्त्रीय समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- भट्टनारायण की शैली पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त के जीवन काल की विस्तृत समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि भास के नाटकों के नाम बताइए।
- प्रश्न- भास को अग्नि का मित्र क्यों कहते हैं?
- प्रश्न- 'भासो हास:' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- भास संस्कृत में प्रथम एकांकी नाटक लेखक हैं?
- प्रश्न- क्या भास ने 'पताका-स्थानक' का सुन्दर प्रयोग किया है?
- प्रश्न- भास के द्वारा रचित नाटकों में, रचनाकार के रूप में क्या मतभेद है?
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- प्रश्न- 'कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- भवभूति की रचनाओं के नाम बताइए।
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- प्रश्न- उत्तररामचरित के रचयिता का नाम भवभूति क्यों पड़ा?
- प्रश्न- 'उत्तरेरामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
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