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बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2652
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण

प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रधान रस की सोदाहरण मीमांसा कीजिए।

अथवा
महाकवि कालिदास की कला रसवादी है। वे कोमल रस के सरस चित्रकार हैं, इस कथन की दृष्टि से उनके श्रृंगार सम्बन्धी चित्रण की समीक्षा कीजिए।

उत्तर -

महाकवि कालिदास रससिद्ध कवि हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में सर्वत्र औचित्य का निर्वाह किया है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में कहीं भी रस का आकर्षण कम नहीं हुआ है। रचनाओं में जहाँ औचित्य का सम्यक निर्वाह होता है वहाँ रस का परिपाक होता है। कहा भी गया है कि

औचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम्।
प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तुरसस्योपनिषत्परा॥

अर्थात् अनौचित्य के अतिरिक्त रसभङ्ग का कोई भी अन्त का कारण नहीं होता। काव्य में औचित्य का निर्वाह ही इस रस परिपाक का कारण होता है।

कवि कालिदास ने औचित्य को लक्ष्य बनाकर ही अपने काव्य में रस का संयोजन किया है। यह उन्होंने काव्य के रसास्वादन के विघातक तत्वों के अपसारण के कारण अपनाया है। रस संयोजन के व्यापार में उन्होंने सर्वत्र स्वाभाविकता को स्थान दिया है यही कारण है कि उनकी कविता कामिनी निर्बाध रूप से आदि से अन्त तक रसास्वादन कराती है। उनके काव्य में कहीं भी ऐसे कृत्रिम तत्व नहीं पाये जाते, जो सहृदय पाठकों के रसास्वादन में बाधक हों, अपितु सभी तत्व सरस, सजीव, स्वाभाविक एवं आह्लादक हैं।

महाकवि कालिदास का प्रिय रस श्रृंगार है। किन्तु शृंगार रस के दोनों पक्षों के साथ ही उन्होंने करुण, वीर, अदभुद, भयानक, वात्सल्य, शान्त तथा हास्य आदि रसों का भी समुचित प्रयोग किया है। कविकालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् में श्रृंगार रस के दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है। इस विषय में भी उन्होंने औचित्य का पूर्ण ध्यान रखा है। यदि उन्होंने केवल काव्य में विप्रलम्भ श्रृंगार रस को ही स्थान दिया होता तो सहृदय पाठक काव्य में केवल श्रृंगार रस की मिठासरहित भावों की ही अनुभूति कर पाते। इस विषय में साहित्यदर्पणकार ने भी कहा है।

न बिना विप्रलम्भेन संभोगः पुष्टिमश्नुते।
कषायिते हि वस्त्रादौ भूयान्रागोविवर्धते॥

अर्थात् बिना विप्रलम्भ श्रृंगार के संयोग पुष्टि को प्राप्त नहीं होता। वियोग के पश्चात् ही संयोग अधिक सुस्वादु होता है। जैसे कषैले वस्त्र आदि पर ही गहरा रंग चढ़ता है। इसी प्रकार वियोगी मनुष्य के प्रति प्रेम अधिक बढ़ता है।

शकुन्तला के प्रेमपारावार में दुष्यन्त इतना निमग्न है कि वह अपने राजकीय स्वरूप को विस्मृत कर शकुन्तला के पैर दबाने को उद्यत हो जाता है -

किं शीतलैः क्लमविनोदिभिरार्द्रवातान्,
संचारयामि नलिनीदलतालवृन्तैः।
अड्डे निधाय करभोरु यथासुखं ते
संवाहयामिचरणावुत पद्मन्दताम्रौ॥

शकुन्तला के पुनर्मिलन के समय पर भी संयोग श्रृंगार का सुन्दर चित्रण हुआ है। राजा दुष्यन्त नायिका शकुन्तला के चरणों पर गिरकर अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करता है।

विप्रलम्भ श्रृंगार का रोचक वर्णन द्वितीय, तृतीय और षष्ठ अंक में मिलता है। तृतीय अंक के आरम्भ में राजा दुष्यन्त और शकुन्तला दोनों ही के वियोग दशा का सुन्दर चित्रण है। सखियों के समझाने पर राजा दुष्यन्त के प्रति प्रेमाभाव को प्रकट करती हुई। शकुन्तला प्रेमपत्र लिखती है -

तव न जाने हृदयं मम पुनः कामों दिवापि रात्रावपि।
निघृण ! तपति बलीयस्स्त्वयि वृत्तमनमोरथान्यङ्गानि॥

इस पर राजा दुष्यन्त भी अपनी वियोगदशा का वर्णन करता हुआ कहता है -

तपति तनुगात्रि ! मदन स्त्वामनिशं माँ पुनर्दहत्येव।
ग्लपयति यथा शशाङ्कं न तथा कुमुद्वतीं दिवसः॥

राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला दोनों में परस्पर मिलने की उत्कण्ठा उत्पन्न होती है। राजा दुष्यन्त के लिए कामदेव एवं चन्द्रमा की मनोरमा चंद्रिका दोनों अत्यन्त दुःखदायी हो गये हैं क्योंकि चंद्रमा तथा कामदेव राज दुष्यन्त के लिए विपरीत रूप को धारण कर बैठा चन्द्रमा की रश्मियाँ उसके ऊपर अग्नि की वर्षा कर रही हैं तथा कामदेव भी अपने पुष्प रूपी बाणों को वज्र की तरह वर्षा कर रहा है -

तव कुसुमशरत्वं शीतरश्मित्वमिन्दो
र्द्वयमिदमयथाथ दृश्यते मद्विधेषु।
विसृजति हिमगर्भैरग्निमिन्दुर्मयूखै
स्त्वमपिकुसुमबाणानवजसारीकरोषि॥

नायक दुष्यन्त भी शकुन्तला से मिलने के लिए अत्यधिक अधीर हो उठता है। निम्नलिखित पद्य उसकी अधीरता का सम्यक् परिचायक है -

अयं स ते तिष्ठति संगमोत्सुको
विशङ्कसे भीरु यतोऽवधीराणम्।
लमेत वा प्रर्थयिता न वा श्रियं
श्रिया दुरापः कृथमीप्सितो भवेत्॥

अर्थात हे भीरु ! जिस दुष्यन्त से तू तिरस्कार की आशङ्का कर रही है, वह यह दुष्यन्त तुझसे मिलने के लिए उत्सुक खड़ा हुआ हे। चाहने वाले को भले ही लक्ष्मी मिले या न मिले, परन्तु जिसे स्वयं लक्ष्मी चाहे वह उसके लिए कैसे दुर्लभ हो सकता? वह तो उसे अवश्य ही मिलेगा।

अनुसूया और प्रियंवदा नामक सखियों के समझाने पर नायक दुष्यन्त के प्रति अपने हार्दिक भावों को प्रकट करती हुई नायिका शकुन्तला इस प्रकार प्रेम पत्र लिखती है

तव न जाने हृदयं मम पुनः कामो दिवापि रात्रवपि।
निघृण तपति बलीयस्त्वयि वृत्तमनोरथान्यङ्गानि॥

शकुन्तला के इस कथन पर नायक दुष्यन्त भी अपनी वियोग दशा को इस प्रकार व्यक्त करता है

तपति तनुगात्रि ! मनदनास्त्वामनिशं मां पुनर्दहत्येव।
ग्लपयति यथा शशाङ्कं न तथा हि कुमुद्वतीं दिवसः॥

अर्थात् हे कृशाङ्गी शकुन्तले! कामदेव तुम्हें तो केवल तपा ही रहा है परन्तु मुझे तो भस्म किये डाल रहा है। दिवस जितना अधिक चंद्रमा को क्षीण करता है उतना कुमुदिनी को नहीं। दुष्यन्त के कथन का तात्पर्य यह है कि कामदेव शकुन्तला की अपेक्षा उसे अधिक पीड़ित कर रहा है। शकुन्तला की वियोगव्य था। व्यथित दुष्यन्त का वर्णन करता हुआ इस प्रकार कह रहा है -

रम्यं द्वेष्टि यथा पुरा प्रकृतिभिर्न प्रत्यहं संव्यते
शय्याप्रान्तविवर्तिनैर्विगमयत्युनिद्र एव क्षपाः।
दाक्षिण्येन ददाति वाचमुचितामन्तः पुरेम्यो यदा
गोत्रेषु स्खलितस्तदा भवति च व्रीडाविलक्षश्चिरम्॥

अर्थात् राजा दुष्यन्त रम्य वस्तुओं को देखकर उनसे घृणा करता है, पहले की तरह मंत्रियों से प्रतिदिन नहीं मिलते है, बिस्तर के किनारों पर करवटें बदलते हुए जागते हुए रात्रि को व्यतीत कर देता है जब उदारता से अन्तःपुर की सुन्दरियों से उचित वार्तालाप करता है तो नाम के उच्चारण करने में त्रुटि करने से बहुत समय तक लज्जित बना रहता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि कविकुलगुरु कालिदास शृङ्गार रस के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों के चित्रण में अत्यधिक सफल हुए हैं। महाकवि कालिदास श्रृंगार रस के प्रधान कवि हैं। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में उन्हें इस रस की योजना में अत्यधिक सफलता प्राप्त हुई है।

हास्य रस - अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक में कवि हास्य रस के संयोजन में भी प्रायः सफल हुआ है। इस नाटक में शिष्ट और परिष्कृत हास्य दृष्टिगोचर होता है। हास्य रस का प्रकाशक प्रमुख पात्र विदूषक है। वह अपने विचित्र वाक्य विन्यासों के द्वारा यन्त्र-तन्त्र हंसी के फव्वारों का छुड़वा देता है। प्रियवंदा भी शिष्ट परिहास में कुशल है। जब शकुन्तला प्रियंवदा की शिकायत अनसूया से करती है कि इसने मेरी चोली कसकर बांध दी है तो प्रियंवदा मीठी सी चुटकी लेती हुई कहती है कि इस विषय में तुम अपने यौवन को उलाहना दो जिसने तुम्हारे पयोधरों का इतना अधिक बढ़ा दिया है। मुझसे शिकायत व्यर्थ में ही कर रही हो।

षष्ठ अंक में जब महाराज दुष्यन्त कहते हैं कि कामदेव आम्रमञ्जरी रूपी बाण के द्वारा मेरे शरीर के ऊपर प्रहार कर रहा है तो विदूषक डंडा को उठाकर कहता है कि इस काठ के डण्डे से कामव्याधि को नष्ट किये देता हूँ। षष्ठ अंक के प्रारम्भ से ही धीवर और सिपाहियों की बातचीत में हास्य रस का पुट प्राप्त होता है।

 करुण - कविकुलगुरु कालिदास को मार्मिक करुण रस की व्यञ्जना में विधिवत् सफलता प्राप्त हुई है। चतुर्थ अंङ्क में शकुन्तला की विदायी के समय करुणा का वातावरण आ जाता है। धीर और संयमी कण्व जैसे महर्षि भी करुणसागर में निमज्जित हो जाते हैं। वे शकुन्तला को लक्ष्य कर इस प्रकार कहते हैं -

यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया
कण्ठः स्तम्भितवाऽष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम्।
वैलव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः
पीड्यन्ते गृहिणः कथं नु तनयाविश्लेषदुः खैर्नवैः॥

अर्थात् आज शकुन्तला चली जायेगी इसलिए मेरा हृय उत्कण्ठा (दुःख) से भर गया है। आंसुओं के बहने को रोकने के कारण गला रुंध गया है। दृष्टि चिन्ता के कारण निश्चेष्ट हो गयी है। (जब) वन में रहने वाले मुझ जैसे तपस्वी को अत्यधिक स्नेह के कारण इस प्रकार दुःख हो रहा है तो गृहस्थ लोग पहली बार पुत्री के वियोग से कितना दुःखित होते होंगे?

जब शकुन्तला कहती है कि हे पिता जी आप का शरीर कठोर तपस्या के कारण दुर्बल हो गया है। अतः आप मेरे लिए अधिक व्याकुल न होंवे। तो गहरी और लम्बी सांस लेते हुए महर्षि कण्व इस प्रकार कहते है कि हे पुत्री ! तुम्हारे द्वारा पहले पूजा के रूप में निक्षिप्त और अब कुटी के द्वार पर उगे हुए नीवारों को देखते हुए यह शोक भला कैसे शान्त होगा अर्थात् किसी भी प्रकार शान्त नहीं हा सकता -

शममेष्यति मम शोकः कथं नु वत्से ! त्वया रचितपूर्वम्।
उटजद्वारविरूढंनीवारबलिंविलोकयतः॥

शकुन्तला के प्रति अनसूया और प्रियंवदा के द्वारा कहे गये कथन में अपार करुणा का समुद्रेक है - (अयं जनः कस्य हस्ते समर्पितः?)

सप्तम अङ्क में दुष्यंत और शकुन्तला के मिलन के समय करुण रस की धारा प्रवाहित होने लगती है। वियोग व्यथिता शकुन्तला को देखकर राजा दुष्यन्त इस प्रकार कहते हैं -

वसने परिधूसरे वसाना नियमक्षाममुखी धृतैकवेणिः।
अतिनिष्करुणस्य शुद्धशीला मम दीर्घं विरहव्रतं बिभर्ति॥

करुण विप्रलम्भ - पञ्चम अङ्क में शकुन्तला के निम्नलिखित कथन में करुण विप्रलम्भ की निष्पत्ति हो रही है भगवति वसुधे देहि में विवरम्।"

वात्सल्य विप्रलम्भ - चतुर्थ अङ्क में वात्सल्य विप्रलम्भ की स्थिति है। वात्सल्य भाव में पिता पुत्रादि का चित्त द्रवित होने लगता है। चतुर्थ अङ्क में तो वृक्ष वनस्पति एवं पशु पक्षी भी शकुन्तला के वियोग से क्षोभ का अनुभव करते हैं शकुन्तला के द्वारा परिपालित पुत्र कृतक मृग उनके मार्ग को नहीं छोड़ता है -

यस्य त्वया व्रणाविरोपणमिडगुदीनां,
तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिविद्धे।
श्यामाकमुष्टिपरिवर्धित कोजहाति
सोऽयं न पुत्रकृतकः पदवीं मृगस्ते॥

रौद्र रस - क्रुद्ध दुर्वासा के शाप और राजा दुष्यन्त तथा कण्व महर्षि के वार्तालाप प्रसङ्ग में रौद्ररस की व्यञ्जना प्राप्त होती है।

वीर रस - इस नाटक में राजा दुष्यन्त के शौर्य की प्रशंसा की गयी है।

"का कथा बाणसंधाने ज्याशब्देनैव दूरतः।
हुँकारेणैव धनुषः सहि विघ्नानानपोहति॥'

अद्भुत रस - चतुर्थ अङ्क में आकाशवाणी के द्वारा महर्षि कण्व को शकुन्तला परिणय का ज्ञान होना, विदा वेला के समय वृक्ष के द्वारा वस्त्राभूषण प्रदान करना ओर मेनका के द्वारा शकुन्तला का ले जाया जाना आदि दृष्टान्त अद्भुत रस की व्यञ्जना कर रहे हैं।

भयानक रस - नाटक के प्रथम अङ्क के प्रारम्भ में भयाकुल मृग के भागने का वर्णन किया गया है

ग्रीवाभङ्गाभिरामं मुहुरनुपतति तस्यन्दने बद्धदृष्टिः
पश्चार्धेन प्रविष्टः शरपतनभयाद्भूयसा पूर्वकायम्।
दर्भीरधीवलीढैः श्रमविवृतमुखभ्रंशिभिः कीर्णवर्त्मा
पश्योदग्रप्लुतत्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमुर्व्या प्रयाति॥

इसी प्रकार प्रथम अङ्क की समाप्ति पर भयाकुल हाथी के आश्रम प्रवेश में और तृतीय अङ्क में भयानक राक्षसों के आश्रम में आने के प्रसद्धों में भयानक रस की निष्पति हुई है।

शान्त रस - नाटक के सप्तम अङ्क में शान्त रस की स्थिति है। राजा दुष्यन्त आश्रम को स्वर्ग से भी अधिक महत्व देते हैं। वे इस प्रकार कहते हैं -

प्राणानामनिलेन वृत्तिरुचिता सत्कल्पवृक्षे वने
तोये काञ्चनपद्मरेणुकपिशे धर्माभिषेकक्रिया।
ध्यानं रत्नशिलातलेषु विबुधस्त्रीसंनिधौ संयमो यतकांक्षन्तितपोभिरन्यमुनयस्तस्मिस्तपस्यन्त्यमी॥

राजा दुष्यन्त ऋषियों की प्रशंसा करते हुए तृप्त नहीं होते हैं।

वात्सल्य रस- अभिज्ञानशाकुन्तलम् में वात्सल्य रस की मनोरम व्यञ्जना हुई है। बालक सर्वदमन को देखकर दुष्यन्त उससे प्यार करने के लिए लालायित हो उठते हैं -

आलक्ष्यदन्तमुकुलाननिमित्तहासै
रव्यक्तवणरमणीयवचः प्रवृत्तीन्।
अङ्काश्रयप्रणयिनस्तनयान्वहन्तो,
धन्यास्तदङरजसामलिनीभवन्ति॥

राजा दुष्यन्त बालक सर्वदमन के अङ्गों का संस्पर्श कर परम आनन्द का अनुभव करता

अनेन कस्यापि कुलाङ्करेण
स्पृष्टस्य गात्रेषु सुखं ममैवम्।
कां निवृतिं चेतसि तस्य कुर्याद्
यस्यायमङ्कातकृतिनः प्ररूढः॥

इस प्रकार हम देखते हैं कि अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक में कविकुलगुरु कालिदास ने प्रधान रस शृङ्गार के साथ अन्य सभी रसों का अङ्ग रस के रूप में प्रयोग किया है। रस संयोजन मे उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- भास का काल निर्धारण कीजिये।
  2. प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  4. प्रश्न- अश्वघोष के जीवन परिचय का वर्णन कीजिए।
  5. प्रश्न- अश्वघोष के व्यक्तित्व एवं शास्त्रीय ज्ञान की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- महाकवि अश्वघोष की कृतियों का उल्लेख कीजिए।
  7. प्रश्न- महाकवि अश्वघोष के काव्य की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  8. प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
  9. प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य कला की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- "कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते" इस कथन की विस्तृत विवेचना कीजिए।
  11. प्रश्न- महाकवि भट्ट नारायण का परिचय देकर वेणी संहार नाटक की समीक्षा कीजिए।
  12. प्रश्न- भट्टनारायण की नाट्यशास्त्रीय समीक्षा कीजिए।
  13. प्रश्न- भट्टनारायण की शैली पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
  14. प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त के जीवन काल की विस्तृत समीक्षा कीजिए।
  15. प्रश्न- महाकवि भास के नाटकों के नाम बताइए।
  16. प्रश्न- भास को अग्नि का मित्र क्यों कहते हैं?
  17. प्रश्न- 'भासो हास:' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
  18. प्रश्न- भास संस्कृत में प्रथम एकांकी नाटक लेखक हैं?
  19. प्रश्न- क्या भास ने 'पताका-स्थानक' का सुन्दर प्रयोग किया है?
  20. प्रश्न- भास के द्वारा रचित नाटकों में, रचनाकार के रूप में क्या मतभेद है?
  21. प्रश्न- महाकवि अश्वघोष के चित्रण में पुण्य का निरूपण कीजिए।
  22. प्रश्न- अश्वघोष की अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
  23. प्रश्न- अश्वघोष के स्थितिकाल की विवेचना कीजिए।
  24. प्रश्न- अश्वघोष महावैयाकरण थे - उनके काव्य के आधार पर सिद्ध कीजिए।
  25. प्रश्न- 'अश्वघोष की रचनाओं में काव्य और दर्शन का समन्वय है' इस कथन की समीक्षा कीजिए।
  26. प्रश्न- 'कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- भवभूति की रचनाओं के नाम बताइए।
  28. प्रश्न- भवभूति का सबसे प्रिय छन्द कौन-सा है?
  29. प्रश्न- उत्तररामचरित के रचयिता का नाम भवभूति क्यों पड़ा?
  30. प्रश्न- 'उत्तरेरामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  31. प्रश्न- महाकवि भवभूति के प्रकृति-चित्रण पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- वेणीसंहार नाटक के रचयिता कौन हैं?
  33. प्रश्न- भट्टनारायण कृत वेणीसंहार नाटक का प्रमुख रस कौन-सा है?
  34. प्रश्न- क्या अभिनय की दृष्टि से वेणीसंहार सफल नाटक है?
  35. प्रश्न- भट्टनारायण की जाति एवं पाण्डित्य पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  36. प्रश्न- भट्टनारायण एवं वेणीसंहार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  37. प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  38. प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटक का रचयिता कौन है?
  39. प्रश्न- विखाखदत्त के नाटक का नाम 'मुद्राराक्षस' क्यों पड़ा?
  40. प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटक का नायक कौन है?
  41. प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटकीय विधान की दृष्टि से सफल है या नहीं?
  42. प्रश्न- मुद्राराक्षस में कुल कितने अंक हैं?
  43. प्रश्न- निम्नलिखित पद्यों का सप्रसंग हिन्दी अनुवाद कीजिए तथा टिप्पणी लिखिए -
  44. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग - संस्कृत व्याख्या कीजिए -
  45. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए।
  46. प्रश्न- "वैदर्भी कालिदास की रसपेशलता का प्राण है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  47. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के नाम का स्पष्टीकरण करते हुए उसकी सार्थकता सिद्ध कीजिए।
  48. प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य की सर्थकता सिद्ध कीजिए।
  49. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् को लक्ष्यकर महाकवि कालिदास की शैली का निरूपण कीजिए।
  50. प्रश्न- महाकवि कालिदास के स्थितिकाल पर प्रकाश डालिए।
  51. प्रश्न- 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के नाम की व्युत्पत्ति बतलाइये।
  52. प्रश्न- 'वैदर्भी रीति सन्दर्भे कालिदासो विशिष्यते। इस कथन की दृष्टि से कालिदास के रचना वैशिष्टय पर प्रकाश डालिए।
  53. अध्याय - 3 अभिज्ञानशाकुन्तलम (अंक 3 से 4) अनुवाद तथा टिप्पणी
  54. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग - संस्कृत व्याख्या कीजिए -
  55. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए -
  56. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के प्रधान नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  57. प्रश्न- शकुन्तला के चरित्र-चित्रण में महाकवि ने अपनी कल्पना शक्ति का सदुपयोग किया है
  58. प्रश्न- प्रियम्वदा और अनसूया के चरित्र की तुलनात्मक समीक्षा कीजिए।
  59. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् में चित्रित विदूषक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  60. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् की मूलकथा वस्तु के स्रोत पर प्रकाश डालते हुए उसमें कवि के द्वारा किये गये परिवर्तनों की समीक्षा कीजिए।
  61. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रधान रस की सोदाहरण मीमांसा कीजिए।
  62. प्रश्न- महाकवि कालिदास के प्रकृति चित्रण की समीक्षा शाकुन्तलम् के आलोक में कीजिए।
  63. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- शकुन्तला के सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  65. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् का कथासार लिखिए।
  66. प्रश्न- 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला' इस उक्ति के अनुसार 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की रम्यता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
  67. अध्याय - 4 स्वप्नवासवदत्तम् (प्रथम अंक) अनुवाद एवं व्याख्या भाग
  68. प्रश्न- भाषा का काल निर्धारण कीजिये।
  69. प्रश्न- नाटक किसे कहते हैं? विस्तारपूर्वक बताइये।
  70. प्रश्न- नाटकों की उत्पत्ति एवं विकास क्रम पर टिप्पणी लिखिये।
  71. प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
  72. प्रश्न- 'स्वप्नवासवदत्तम्' नाटक की साहित्यिक समीक्षा कीजिए।
  73. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर भास की भाषा शैली का वर्णन कीजिए।
  74. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के अनुसार प्रकृति का वर्णन कीजिए।
  75. प्रश्न- महाराज उद्यन का चरित्र चित्रण कीजिए।
  76. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् नाटक की नायिका कौन है?
  77. प्रश्न- राजा उदयन किस कोटि के नायक हैं?
  78. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर पद्मावती की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  79. प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  80. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के प्रथम अंक का सार संक्षेप में लिखिए।
  81. प्रश्न- यौगन्धरायण का वासवदत्ता को उदयन से छिपाने का क्या कारण था? स्पष्ट कीजिए।
  82. प्रश्न- 'काले-काले छिद्यन्ते रुह्यते च' उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  83. प्रश्न- "दुःख न्यासस्य रक्षणम्" का क्या तात्पर्य है?
  84. प्रश्न- निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए : -
  85. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिये (रूपसिद्धि सामान्य परिचय अजन्तप्रकरण) -
  86. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिये।
  87. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (अजन्तप्रकरण - स्त्रीलिङ्ग - रमा, सर्वा, मति। नपुंसकलिङ्ग - ज्ञान, वारि।)
  88. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
  89. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्त प्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - I - पुल्लिंग इदम् राजन्, तद्, अस्मद्, युष्मद्, किम् )।
  90. प्रश्न- निम्नलिखित रूपों की सिद्धि कीजिए -
  91. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्तप्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - II - स्त्रीलिंग - किम्, अप्, इदम्) ।
  93. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूप सिद्धि कीजिए - (पहले किम् की रूपमाला रखें)

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