बी एड - एम एड >> बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-C - लिंग, विद्यालय एवं समाज बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-C - लिंग, विद्यालय एवं समाजसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-C - लिंग, विद्यालय एवं समाज
प्रश्न- समाज में धार्मिक अंतरों पर विभाजन पर प्रकाश डालिए।
लघु उत्तरीय प्रश्न
- धार्मिक विभाजन पर संदर्भ में एक लेख लिखिए।
- साम्प्रदायिक राजनीति किस पर आधारित होती है?
उत्तर-
यह विभाजन लैंगिक विभाजन जैसा सार्वभौम तो नहीं है, पर विश्व में धार्मिक विविधता आज बड़ी व्यापक रूप से चलती है। भारत समेत अनेक देशों में अलग-अलग धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं, पर, जैसा कि हमने उत्तरी आयरलैंड के मामले में देखा, अगर लोग एक धर्म को मानें लेकिन उनकी पूजा-पद्धति और मान्यताएँ अलग-अलग हों तब भी गंभीर मतभेद पैदा हो जाते हैं। लेकिन विभाजन के विपरीत धार्मिक विभाजन अक्सर राजनीति के मैदान में अभिव्यक्त होता है। कुछ मुद्दों पर गौर करें—
गाँधी जी कहा करते थे कि धर्म को कभी भी राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। धर्म से उनका मतलब हिन्दू या इस्लाम जैसे धर्म से न होकर नैतिक मूल्यों से था जो सभी धर्मों से जुड़े हैं। उनका मानना था कि राजनीति धर्म द्वारा निर्देशित मूल्यों से निर्देशित होनी चाहिए।
अपने देश के मानवाधिकार समूहों का यह तर्क है कि इस देश में सांप्रदायिक दंगों में मरने वाले ज़्यादातर लोग अल्पसंख्यक समुदायों के हैं। उनकी माँग है कि सरकार अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए विशेष क़दम उठाए।
महिला-आंदोलन का कहना है कि सभी धर्मों में वर्णित पितृसत्तात्मक कानून महिलाओं से भेदभाव करते हैं। इस आंदोलन की माँग है कि सरकार को इन कानूनों को समानतामूलक बनाने के लिए उनमें बदलाव करने चाहिए।
ये सभी मामले धर्म और राजनीति से जुड़े हैं पर ये बहुत ग़लत या ख़तरनाक भी नहीं लगते। विभिन्न धर्मों से निकले विचार आदर्श और मूल्य राजनीति में एक भूमिका निभा सकते हैं। हमें लोगों को एक धार्मिक समुदाय के तौर पर अपनी जरूरतों, हितों और माँगों को राजनीति में उठाने का अधिकार होना चाहिए। जो लोग राजनीतिक सत्ता में हों उन्हें धर्म के क़ायमक़ाम पर नज़र रखनी चाहिए और अगर वह किसी के साथ भेदभाव करता है या किसी के दमन में सहयोगी की भूमिका निभाता है तो इसे रोका जाना चाहिए।
समस्या तब शुरू होती है जब धर्म को राष्ट्र की आधार मान लिया जाता है। पिछले अध्याय के उत्तरी आयरलैंड के उदाहरण राष्ट्रवाद की ऐसी ही अवधारणाओं से जुड़े खतरों को दिखाया है। समस्या तब और विकराल हो जाती है जब राजनीति में धर्म को अभिव्यक्त एक समुदाय की विशिष्टता के दावे और पक्षपोषण के रूप में लगने लगती है। तब इसके अनुयायी दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ मोर्चा खोलने लगते हैं। यह तब होता है जब एक धर्म के विचारों को दूसरे से श्रेष्ठ माना जाने लगता है और कोई विशेष समुदाय अपने धर्म के सिद्धांतों के विरोध में खड़ा कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में वह राष्ट्र अपनी सत्ता का इस्तेमाल किसी एक धर्म के पक्ष में करने लगता है तो स्थिति और विकट होने लगती है। राजनीति से धर्म को इस तरह जोड़ना ही सांप्रदायिकता है।
सांप्रदायिक राजनीति इस सोच पर आधारित होती है कि धर्म ही सामाजिक समुदाय का निर्माण करता है। इस मान्यता के अनुरूप सोचना सांप्रदायिकता है। इस सोच के अनुसार एक ख़ास धर्म में आस्था रखने वाले लोग एक ही समुदाय के होते हैं।
उनके राजनीतिक हित एक जैसे होते हैं, वह समुदाय के लोगों के आपसी मतभेद उनके सांप्रदायिक जीवन में कोई अहमियत नहीं रखते। इस सोच में यह बात भी शामिल है कि किसी अलग धर्म को मानने वाले लोग दूसरे सामाजिक समुदाय का हिस्सा नहीं हो सकते। अगर विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच समानता दिखती है तो यह ऊपरी और बेईमानी होगी। अगर सामाजिक-आर्थिक लाभ में अंतर होगा ही और वह अंतर बढ़ाया भी होगा। सांप्रदायिक सोच जब ज्यादा आगे बढ़ती है तो उसमें यह विचार जुड़ने लगता है कि दूसरे धर्मों के अनुयायी एक ही राष्ट्र में समान नागरिक के तौर पर नहीं रह सकते। इस मानसिकता के अनुसार या तो एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के वर्चस्व में रहना होगा या फिर उनके लिए अलग राष्ट्र बनाना होगा।
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