बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 - अर्थशास्त्र-समष्टि अर्थशास्त्र बीए सेमेस्टर-2 - अर्थशास्त्र-समष्टि अर्थशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 - अर्थशास्त्र-समष्टि अर्थशास्त्र
अध्याय - 7
रोजगार का प्रतिष्ठित सिद्धान्त
(The Classical Theory of Employment)
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने पूर्ण रोजगार को एक स्वतन्त्र अर्थ व्यवस्था की सामान्य स्थिति माना है। इस विचारधारा की मान्यता है कि पूर्ण रोजगार की स्थिति में सदैव श्रम तथा अन्य साधनों की उपलब्धि रहती है जो कि यदि बाजार में सदैव पूर्ण स्पर्धा की स्थिति भी रहें तो लोग कभी भी बेरोजगार नहीं हो सकते। बेरोजगारी की स्थिति उस दशा में उत्पन्न हो सकती है जबकि सरकार द्वारा मूल्य, मजदूरी अथवा उत्पादन में हस्तक्षेप किया जाये। परंपरावादी रोजगार सिद्धान्त की मुख्य दो मान्यतायें हैं। पहली मान्यता के अनुसार एक पूँजीवादी अर्थ व्यवस्था में बिना स्फीति के पूर्ण रोजगार पाया जाता है। कीमत लोचशील होने पर आर्थिक प्रणाली में स्वतः शक्तियाँ पायी जाती हैं जो पूर्ण रोजगार की अवस्था कायम रखने की प्रवृत्ति रखती है और इसी स्तर पर उत्पादन करती है। इस सिद्धान्त की दूसरी मुख्य मान्यता यह है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में कीमत प्रणाली को स्वतंत्र रूप से कार्य करने दिया जाये तथा अर्थ व्यवस्था में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न किया जाये तो श्रम सहित उत्पादन में वे सभी साधन पूर्णतया सेवा नियुक्त रहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार वस्तु तथा साधन बाजार दोनों में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती हैं। मौद्रिक मजदूरी तथा वास्तविक मजदूरी में प्रत्यक्ष एवं आनुपातिक संबंध पाया जाता है तथा मजदूरी एवं कीमतें लोचपूर्ण होती हैं। रोजगार के इस प्रतिष्ठित सिद्धान्त का आधार प्रो. जे.वी. से का बाजार नियम है। जिसका सारांश यह है कि सामान्यतया अति उत्पादन संभव नहीं है और उत्पादन ही वस्तुओं के लिए बाजार का सृजन करता है अर्थात बाजार में वस्तुओं का आपूर्ति करने वाला प्रत्येक उत्पादन अपनी वस्तुओं के लिए विनिमय के 'उद्देश्य से ऐसा करता है और जिस समय किसी वस्तु का उत्पादन होता है उसी समय वह अन्य उत्पादनों के लिए बाजार प्रदान करता है जो उसके कुल मूल्य के बराबर होता है। से के बाजार के नियम के अनेक स्वाभाविक निष्कर्ष हैं। इसकी मान्यता है कि अति उत्पादन एक असंभव स्थिति है और अर्थव्यवस्था की कार्य प्रणाली में स्वतः समायोजन कार्यशील होता है। इसी कारण पूर्ति अपनी माँग का स्वयं सृजन कर लेती है। अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति रहती है जिसमें बचत एवं विनियोग सदैव बराबर होते हैं। अर्थव्यवस्था में स्वयं लोच का समावेश रहता है और इसमें किसी प्रकार के सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है। यद्यपि प्रतिष्ठित सिद्धान्त की अनेक विशेषतायें हैं फिर भी इसमें कई कमियाँ भी है जिसकी वजह से कुछ विद्वानों ने इसकी आलोचना की है। अन्ततः पीगू ने प्रतिष्ठित सिद्धान्त में संशोधन करके इसे और अधिक तर्कसंगत बनाने का प्रयास किया। इस क्रम में पीगू ने यह मत प्रतिपादित किया कि एक स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था में श्रम बाजार में आर्थिक प्रणाली की प्रवृत्ति सम्पूर्ण रोज़गार देने की रहती है तथा पूर्ण प्रतियोगिताओं की दशा में मजदूरों के बीच किसी प्रकार की अनैच्छिक बेरोजगारी नहीं होगी परन्तु यदि इस स्वतन्त्र प्रणाली में किसी प्रकार का हस्तक्षेप किया जाता है अथवा मजदूरी की माँग में लोच का अभाव रहता है तो बेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। परन्तु यदि सरकारी हस्तक्षेप को समाप्त कर दिया जाये और प्रतियोगिता की शक्तियाँ स्वतन्त्र रूप से काम करने लगे तो मजदूरी में होने वाले परिवर्तन पुनः पूर्ण रोजगार की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। इस प्रकार पीगू का सिद्धान्त परम्परागत प्रतिष्ठित सिद्धान्त में एक महत्व पूर्ण सुधार है यद्यपि यह भी आलोचना से परे नहीं है।
महत्वपूर्ण तथ्य
रोजगार के प्रतिष्ठित सिद्धान्त की दो प्रमुख मान्यतायें है पहला - बिना स्फीति के पूर्ण रोजगार पाया जाना तथा दूसरा - आर्थिक क्रियाओं पर कोई प्रतिबंध नहीं।
रोजगार के पहले सिद्धांत की मान्यता है कि एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बिना स्फीति के पूर्ण रोजगार पाया जाता है।
मजदूरी कीमत की लोचशीलता होने पर आर्थिक प्रणाली के स्वतः शक्तियां उत्पन्न हो जाती है जो पूर्ण रोजगार कायम रखने की प्रवृत्ति रखती है तथा इसी प्रकार उत्पादन करती है। रोजगार सिद्धान्त की दूसरी मान्यता यह है कि यदि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में कीमत प्रणाली को स्वतंत्र रूप से कार्य करने दिया जाये तथा अर्थव्यवस्था में किसी भी प्रकार हस्तक्षेप न किया जाय तो श्रम सहित उत्पादन में वे सभी साधन पूर्णतया सेवा विमुक्त रहते है।
अनेकों अर्थशास्त्रियों के अनुसार पूर्ण रोजगार को एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था की सामान्य स्थिति माना गया है।
स्वतंत्र अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति में श्रम एवं अन्य साधन सदैव उपलब्ध रहते है जो कि एक सामान्य स्थिति होती है।
अनेकों अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि यदि बाजार में सदैव पूर्ण स्पर्धा की स्थिति बनी रहे तो लोग कभी भी बेरोजगार नहीं रह सकते हैं।
बेरोजगारी की स्थिति उस दशा में उत्पन्न हो सकती है जब सरकार द्वारा मूल्य, मजदूरी या उत्पादन में हस्तक्षेप किया जाय।
रोजगार के प्रतिष्ठित सिद्धांत का आधार बिन्दु प्रो. जे. बी. से का बाजार नियम है।
प्रो. से के बाजार नियम का सारांश यह है कि सामान्यतः अति उत्पादन संभव नहीं है। उत्पादन ही वस्तुओं के लिए बाजार का सृजन करता है।
प्रो. से के अनुसार "पूर्ति स्वयं अपनी मांग का सृजन करती है।"
प्रो. से का बाजार नियम मौद्रिक अर्थव्यवस्था में लागू करने पर यह स्पष्ट होता है कि मांग का मुख्य स्त्रोत साधनों की आय से है जिसकी उत्पत्ति उत्पादन प्रणाली से होती है।
'से' का बाजार नियम कहता है कि 'उत्पादन ही वस्तुओं की माँग है' को वर्तमान समय में क्रियान्वित करना अनुचित है।
से का विचार है कि मुद्रा का उत्पादन कार्य पर प्रभाव नहीं पड़ता। यह विचारधारा त्रुटिपूर्ण है। से के नियम के अनुसार स्वयं समायोजित प्रक्रिया के माध्यम से दीर्घकाल में पूर्ण रोजगार स्थापित होता है। केन्स इससे सहमत नहीं है।
केन्स के अनुसार बेरोजगारी को तभी दूर किया जा सकता है जब विनियोग में वृद्धि की जाय तथा जिस स्तर पर विनियोग को बढ़ाया जाय वह अल्प रोजगार का स्तर हो।
केन्स ने पूर्ण रोजगार को एक विशेष दशा माना है जबकि पूँजीवाद में अल्प रोजगार रहता है। केन्स ने रोजगार उपलब्ध कराने हेतु बेकार साधनों का उपयोग करने की बात कही है।
से के नियम के अनुसार बचत व निवेश हमेशा समान रहते है तथा इनमें अन्तर होने पर ब्याज दर में समानता लायी जाती है।
केन्स का मत है कि बचत व निवेश में समानता आय में परिवर्तनों से लायी जाती है क्योंकि बचत ब्याज पर निर्भर न रहकर आय पर निर्भर होती है तथा निवेश की ब्याज पर नहीं अपितु पूँजी की सीमान्त उत्पादकता से तय होता है।
प्रो. पीगू का मत है कि "पूर्ण स्वतंत्रता प्रतियोगिता होने पर मजदूरी की दरों की प्रवृत्ति मांग से इस तरह से संबंधित होती है कि प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार प्राप्त हो जाय।
प्रो. पीगू का मानना है कि मजदूरी की कटौती अथवा लोच अर्थव्यवस्था के पूर्ण रोजगार को स्थापित करती है।
पीगू के अनुसार "पूर्ति स्वयं मांग पैदा कर लेती है।
कीन्स अनुसार "मांग स्वयं पूर्ति पैदा कर लेती है। प्रो. कीन्स की विचारधारा ने आर्थिक क्रान्ति ला दी।
मार्शल, रिकार्डी, मिल आदि परम्परावादी अर्थशास्त्री है।
कीन्स को अवसादग्रस्त अर्थशास्त्री कहा जाता है।
पत्राधान अधिशेष दृष्टिकोण का प्रतिपादन जेम्स टोविन ने किया था-1
प्रो. कीन्स की पुस्तक जनरल थ्योरी है।
जनरल थ्योरी का प्रकाशन 1936 में हुआ था।
प्रतिष्ठित दृष्टिकोण में मुद्रा की मांग सट्टाकार्य हेतु किया जाता है
जिस मुद्रा में देश का समस्त लेनदेन किया जाता है उसे प्रधान मुद्रा कहा जाता है।
प्रो. कीन्स ने कभी भी सेवा का समर्थन नही किया।
प्रो. कीन्स को अवसादी अर्थशास्त्री कहा जाता है
प्रो. पीगू ने बेरोजगारी दूर करने के लिए मजदूरी कटौती का सुझाव दिया। रोजगार के क्लाशिकल सिद्धान्त का अर्थ है से के बाजार नियम से। रोजगार सिद्धान्त का अन्तिम रूप कीन्स ने दिया था।
मुद्रा का परिमाण सिद्धान्त भारत में लागू नही होता है।
सामान्य कीमत स्तर तथा मुद्रा के मूल्य में विपरीत सम्बन्ध होता है।
समीकरण में T को स्थिर मान लिया जाता है।
रोजगार सिद्धान्त का आधार स्तम्भ से का बाजार नियम है।
जे. जी, से फ्रांसीसी था।
प्रो. जे. एम. कीन्स ने क्लासिकल की नींव हिला दिया।
प्रो. हैन्शन से के बाजार नियम को अपने व्याख्या में स्वतंत्र रूप से वस्तु विनियम की व्याख्या की।
प्रो. पीगू से के नियम को श्रम बाजार के प्रसंग में सूत्रबद्ध किया।
प्रो. पीगू ने समीकरण के रूप में प्रस्तुत किया।
क्लासिकल अर्थशास्त्री के अनुसार यदि मुद्रा की मात्रा को आधा किया जाता है तो कीमत स्तर भी आधा हो जाता है
कार्ल मार्क्स ने सर्वप्रथम क्लासिकल शब्द का प्रयोग किया था।
दास कैपिटल के लेखक कार्ल मार्क्स हैं।
मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त का प्रतिपादन 16वीं शताब्दी में हुआ।
से के अनुसार "बचत एक सामाजिक गुण है जितना बचा लिया जाता है उसे निवेश में लगाने से उत्पादन में वृद्धि होती है।"
मुद्रा की तटस्थता का विचार प्रो. विकसिड ने दिया।
प्रो. कीन्स के अनुसार बाजार गिर जाने से भी निवेश बचत अधिक होगी।
कीन्स का कथन है—"ब्याज दर घनात्मक होने पर बचत में निवेश अधिक होने की संभावना रहती है।
सिद्धांत | प्रतिपादनकर्त्ता |
अर्थशास्त्र | सेमुल्सन |
आधुनिक मुद्रा का सिद्धांत | फ्रीडमैन |
मुद्रा का परिमाण सिद्धांत | देवनजन्ती |
तरलता का सिद्धांत | कीन्स |
ब्याज का जोखिम तथा अनिश्चितता का सिद्धांत | नाइट |
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