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बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षा

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2759
आईएसबीएन :0

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बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षा - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 2  पर्यावरण के सन्दर्भ में विकास की सोच

(Understanding Development in the Context of Environment)

प्रश्न- वर्षा जल संग्रहण पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-

वर्षा जल संग्रहण
(Rainwater Harvesting)

भौगोलिक कारणों से हमारे देश में जल को भविष्य के उपयोग के लिए एकत्र करके रखना जरूरी है। यहाँ गर्मियों के महीनों में लगभग सभी नदी-नाले सूखे दिखाई देते हैं पर जहाँ मानसूनी वर्षा के कारण नदियों में बाढ़ आ जाती है अर्थात् इसी जल को सहेजकर रखने की जरूरत है, ताकि गर्मियों के महीनों में फसलों की प्यास बुझती रहे, इसीलिए नदियों पर बाँध बनाकर विशाल जलाशयों के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई, छोटे जलाशय भी बनाए गये। फिलहाल हम नदियों के बहाव से सीधे लगभग 100 घन किलोमीटर पानी का उपयोग कर लेते हैं, जबकि छोटे-बड़े जलाशयों में पानी इकट्ठा करने की क्षमता 262 घन किमी. है, विशेषज्ञों की राय है कि नदियों के बहाव से सीधे और ज्यादा जल उपयोग कर पाना कठिन है, इसलिए जल की उपलब्धता बढ़ाने के लिए हमें अपनी जल संग्रह क्षमता बढ़ानी होगी। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि हमें इसके लिए ज्यादा बड़े बाँध बनाने चाहिए, कारण कि बड़े बाँधों में उपलब्ध जल की मात्रा में साल दर साल कोई खास अन्तर नहीं आता। इसलिए बाँध द्वारा सिंचित क्षेत्र में सूखे का तुरन्त असर नहीं पड़ता, जबकि मंझोली योजनाएँ और छोटे बाँध तुरन्त सूखे की चपेट में आ जाते हैं। सन् 1987 में जब सौराष्ट्र में भयंकर सूख पड़ा तो वहाँ की जनता और पशु दोनों ही बूंद-बूंद जल के लिए तरस गये, जबकि वहाँ 76 मंझोली योजनाएँ और 197 छोटे बाँध थे। हमारे देश में बड़े बाँधों का भी जबर्दस्त विरोध रहा है। मुख्य आपत्ति विशाल जलाशय से डूबने वाले क्षेत्र और इसमें बसे लोगों की है। बाँध के पक्षधरों की राय में विशाल जलाशय से सिर्फ 10 प्रतिशत भूमि डूबती है, जबकि 10 प्रतिशत भूमि को सिंचाई का लाभ मिलता है, डूबने वाली भूमि अपेक्षाकृत अनुर्वर होती है, इसलिए वहाँ आबादी की सघनता भी कम होती है, औसत रूप से ऐसे लोगों की संख्या लाभार्थियों की मात्र पाँच प्रतिशत होती है, यानी पाँच प्रतिशत विस्थापितों को उचित मुआवजा व पुनर्वास की सुविधाएँ देकर 25 प्रतिशत लोगों तक सिंचाई की सुविधा पहुँचाई जा सकती है।

बड़े बाँध के विरोधी इस सुखद और सुविधाजनक पक्ष को महज एक भ्रमजाल मानते हैं। उनके अनुसार बड़े बाँध हमारे देश की भौगोलिक व आर्थिक दशाओं के माफिक नहीं हैं। हमारे देश में जितनी वर्षा होती है उसे नदियाँ नहीं संभाल सकतीं, इसलिए नदियों पर बाँध बनाकर जल रोकना ज्यादा कारगर नहीं है। इसलिए जरूरी है कि वर्षा के पानी को नदियों में आने से पहले ही कहीं एकत्र कर लिया जाए। यह काम गाँवों, कस्बों में बड़ी आसानी से हो सकता है और पहले होता भी था, गाँव-गाँव में छोटे-बड़े, कच्चे-पक्के, तालाब मुख्य रूप से इसीलिए बनवाये जाते थे। देश का कोई भी गाँव या शहर ऐसा नहीं है, जहाँ किसी प्राचीन तालाब के अवशेष दिखाई न पड़े। राष्ट्रीय कृषि आयोग 1976 की रिपोर्ट के अनुसार देश में लगभग पाँच लाख पुराने तालाब हैं, कोई डेढ़-दो सौ वर्ष पहले तक यही तालाब हमारी सिंचाई व्यवस्था के प्रमुख कर्णधार थे।

प्राचीन समय में सार्वजनिक तालाबों का निर्माण पुण्य का (धार्मिक) कार्य माना जाता था, इनकी देखभाल करना भी 'पवित्र कार्य' कहा जाता था, इन तालाबों की तलहटी में जमी गाद साफ करने का काम गाँव के लोग सामूहिक रूप से करते थे, चिकनी मिट्टी का इस्तेमाल घर बनाने और दीवारें लीपने पोतने में होता था, पोषक जीवांश से भरपूर होने के कारण इसे खाद के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था, इस तरह तालाब गाँवों के सार्वजनिक जीवन में रचे बसे थे, किन्तु जैसे-जैसे सरकार द्वारा सिंचाई सुविधाओं का विकास किया जाने लगा, वैसे-वैसे तालाबों की सार्वजनिक प्रतिष्ठा गिरने लगी, और वे उपेक्षित होते गये, हैरानी की बात यह है कि सरकार ने भी जल संग्रह के इन महत्त्वपूर्ण स्रोतों की गिरती हुई हालत की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, नतीजन आज तालाबों द्वारा सिंचित क्षेत्र लगभग न के बराबर हैं, जबकि सिर्फ 46 वर्ष पहले सन् 1950 में 36 लाख हेक्टेयर भूमि तालाब से ही सींचते थे।

तालाबों द्वारा सिंचाई की बात जब भी उठाई जाती है, योजनाकार, मुख्य रूप से दो आपत्तियाँ उठाते हैं, पहली यह कि इतने बड़े देश के लिए बहुत बड़ी संख्या में तालाबों का निर्माण करवाना कठिन है, दूसरी आपत्ति यह है कि इस निर्माण कार्य पर आने वाले विशाल खर्च को लेकर की जाती है। पहली आपत्ति अर्थहीन है, कारण कि देश में पहले से ही पाँच लाख तालाबों की मौजूदगी दर्ज है, यदि इनकी अच्छी तरह मरम्मत करवा दी जाय और रख-रखाव किया जाय तो वे आज भी अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकते हैं, एक मोटे अनुमान के अनुसार इनमें से कोई पौने चार लाख तालाब औसतन सिर्फ 20 हजार रुपये प्रति तालाब खर्च करके काम में लाये जा सकते हैं, यानि कुल 750 करोड़ रुपये खर्च करके 70 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की तुरन्त व्यवस्था की जा सकती है। साथ ही 80 लाख हेक्टेयर मीटर जल का मानसून के महीनों में नदियों में जाने से रोका जा सकता है, इस तरह बाढ़ की सलाना तबाही में काफी कमी आयेगी । वैज्ञानिकों के अनुसार तालाब से होने वाली सिंचाई कम खर्चीली और ज्यादा उत्पादक है।

तालाबों का एक बड़ा परोक्ष लाभ यह भी है कि तालाबों में एकत्रित जल जमीन में जज्बा होकर कुओं का जल स्तर ऊपर उठाता है, अगर हमारे कुओं में भरपूर पानी हो तो किसान देशी तरीकों से जल खींचकर अपना काम चला लेंगे, उन्हें नलकूप या पंप चलाने के लिए बिजली का मुँह नहीं देखना पड़ेगा, तालाबों के हिमायती की राय में तालाब गाँवों की पेयजल समस्या भी काफी हद तक सुलझा सकते हैं।

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