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तुलनात्मक सरकार और राजनीति : यू के, यू एस ए, स्विटजरलैण्ड, चीन
प्रश्न- रूढ़ियों का पालन क्यों होता है? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर -
(Why are Conventions followed?)
रूढ़ियों के पीछे कानून की भाँति बाध्यकारी शक्ति नहीं होती न ही इन्हें न्यायालयों का संरक्षण प्राप्त होता है फिर भी किसी भी सरकार के लिये इनकी उपेक्षा करना कठिन होता है। रूढ़ियों की इस मान्यता के क्या कारण हो सकते हैं? इस पर विचार करना समीचीन होगा।
रूढ़ियों के पालन के विषय में अनेक विचारकों ने मत व्यक्त किये हैं जिनमें प्रमुख मत निम्न प्रकार हैं-
(अ) कानून व रूढ़ियाँ परस्पर संबद्ध हैं - ब्रिटिश विचारक ए. बी. डायसी मानते हैं कि रूढ़ियाँ और कानून परस्पर इस प्रकार आबद्ध हैं कि यदि किसी रूढ़ि का उल्लंघन किया जाता है तो स्वयं ही किसी न किसी कानून का भी उल्लंघन हो जाता है चूँकि कानून का उल्लंघन नहीं किया जा सकता अतः रूढ़ि का भी पालन करना पड़ता है। डायसी अपने मत के समर्थन में एक रूढ़ि का हवाला दिया कि 'संसद की बैठक वर्ष में एक बार अवश्य होनी चाहिये यदि इस रूढ़ि का उल्लंघन किया जाये तो दो कानूनी व्यवस्थाओं का खंडन होता है
1. प्रतिवर्ष बजट स्वीकृत होना चाहिए और
2. सेना के बजट का प्रतिवर्ष नवीनीकरण होना चाहिये।
अतः डायसी मानते हैं कि अप्रत्यक्ष रूप से रूढ़ियों के पीछे कानूनी शक्ति प्राप्त हो जाती है। उसके शब्दों में "जिस शक्ति के कारण अंत में संवैधानिक नैतिकता का पालन करना पड़ता है, स्वयं कानून की शक्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। किसी विशुद्ध परम्परागत नियम या किसी पूर्णतः अज्ञात एवं वास्तविक रूप से कानून के सिद्धान्त के विपरीत प्रथा के उल्लंघन से अंत में देश के कानून के साथ संघर्ष की स्थिति आ ही जाती है।"
डायसी के इस मत की आलोचना निम्नांकित आधार पर की गई है -
1. सभी रूढ़ियों का उल्लंघन करने पर कानून का उल्लंघन नहीं होता जैसे ब्रिटेन में रूढ़ि है कि जब लार्ड सभा सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय के रूप में भाग लें तो किसी कानून का उल्लंघन नहीं होता। इसी प्रकार यह भी रूढि है कि प्रत्येक विधेयक के तीन वाचन प्रत्येक सदन में होने चाहिये। यदि संसद का मत कुछ ही रूढ़ियों पर लागू होता है सब पर नहीं।
2. यदि डायसी का यह मत स्वीकार कर लिया जाये कि रूढ़ियों को कानून का समर्थन प्राप्त है तो संसद की व्यवस्थापन संबंधी सर्वोच्चता समाप्त हो जायेगी क्योंकि संसद कानून में तो परिवर्तन कर सकती है परन्तु रूढ़ियों में नहीं जबकि संसद की संप्रभुता का विचार डायसी की ही देन है।
(ब) रूढ़ियों के पीछे लोकमत का समर्थन है - अमेरिकन लेखक लावेल (Lowell) का मत है कि रूढ़ियों का पालन इसलिये किया जाता है कि उनके पीछे लोकमत का समर्थन होता है। वह डायसी के मत का खंडन नहीं करता बल्कि उसे अपर्याप्त पाता है एवं वह कहता है अनेक रूढ़ियाँ तोड़ी जातीं हैं पर उनसे किसी कानून का उल्लंघन नहीं होता उदाहरणतः यदि कोई प्रधानमंत्री 'हाउस आफ कामन्स' में पराजित हो जाता है और त्यागपत्र नहीं देता तो उस पर किसी कानून के उल्लंघन का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता लेकिन जनमत विरुद्ध हो जाने के भय से कोई भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं कर सकता। अतः रूढियों के पीछे जनमत का समर्थन और विश्वास है अतः उनका उल्लंघन करना सहज नहीं होता।
(स) ब्रिटिश जनता का रूढ़िवादी रुझान - रूढ़ियों के पालन का एक प्रमुख कारण ब्रिटिश जनता का रूढ़िवादी चरित्र है। वे अपनी प्राचीन संस्थाओं व परम्पराओं को समुचित महत्व देते हैं एवं उन पर गर्व करते हैं। यही कारण है कि ब्रिटिश व्यवस्था निरंकुश राजतंत्र से संवैधानिक राजतंत्र में परिवर्तित हो गई राजतंत्र बना रहा और 'लोकतंत्र की जननी का श्रेय भी ब्रिटेन को ही है।
(द) रूढ़ियाँ संवैधानिक व्यवस्था की पूरक हैं - प्रसिद्ध ब्रिटिश संविधान विचारक सर आइवर जेनिंग्स मानते हैं कि संवैधानिक व्यवस्था के लिये लिखित और खत दोनों ही नियमों का सहयोगी रूप में रहना आवश्यक है केवल कानूनी नियमों से ही व्यवस्था का रूपन नहीं हो सकता। रूढ़ियाँ अलिखित नियमों का प्रतिनिधित्व करती हैं जनता को लिखित अलिखित दःमें ही नियमों के पालन की आदत होती है।
हरमन फाइनर लावेल और जेनिंग्स के मत से सहमति व्यक्त करते हुये कहते हैं- "सच यह है कि ये बाध्यतायें प्रतिरोध की अंतिम रेखा है। ब्रिटेन के राजनीतिक नेताओं न इन रूढ़ियों का उसी प्रकार पालन किया है जिस प्रकार अन्य राष्ट्रों के नेताओं ने अपने राजनैतिक गतिविधियों के लिखित नियमों का पालन किया है।
(य) रूढ़ियाँ तर्क पर आधारित हैं - रूढ़ियों का पालन इसलिये भी होता है क्योंकि वे तर्क पर आधारित होती हैं। उदाहरणतः एक रूढ़ि यह है कि संप्रभु को सदैव मंत्रिमंडल की सलाह पर कार्य करना चाहिये। यदि राजा ऐसा न करें तो उसके गम्भीर परिणाम होंगे। मंत्रिमंडल त्याग पत्र दे देगा। संप्रभु विरोधी दल के नेता को मंत्रिमंडल बनाने के लिये बुलायेगा। साधारणतया ऐसा आमंत्रण स्वीकार नहीं किया जाता लेकिन यदि वह स्वीकार भी करता हो तो कामन्स सभा की पहली बैठक में ही वह पराजित हो जायेगा। राजा को चुनाव कराना पड़ेगा, लेकिन यदि निर्वाचन में वही दल पुनः जीत कर आ जाता है तो संप्रभु को अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में राजपद के अधिकारों पर नई बहस छिड़ जायेगी। जनमत राजपद के विरुद्ध भी हो सकता है। अतः रूढियों का पालन करना ही श्रेयस्कर होता है।
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