बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण वाणिज्य शिक्षणरामपाल सिंहपृथ्वी सिंह
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बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक
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वाणिज्य-शिक्षण की रीतियाँ या प्रविधियाँ
(TECHNIQUES OF COMMERCE TEACHING)
शिक्षण एक सोद्देश्य तथा कठिन साध्य कार्य है। शिक्षण का मुख्य ध्येय
पूर्वनिर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति करना है। पूर्व निश्चित शिक्षण
उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु वह विभिन्न स्तरों पर शिक्षण कार्य करता है।
शिक्षण के सामान्यतः तीन स्तर होते हैं-(6) स्मृति स्तर, (ii) अवबोध स्तर
(iii) चिन्तन या परावर्तन। शिक्षक किस स्तर के लिए शिक्षण कर रहा है यह बहुत
कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि शिक्षक किन शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति
हेतु शिक्षण कार्य कर रहा है। शिक्षण के जो उद्देश्य होते हैं अध्यापक न केवल
तदनुसार ही विषयवस्तु का प्रस्तुतीकरण करता है अपितु उसे उसके अनुसार ही
विषयवस्तु के प्रस्तुत करने की विधियाँ, तकनीकियाँ तथा नीतियाँ अपनानी
पड़ेंगी। वास्तव में शिक्षण कार्य किसी रणक्षेत्र से कम नहीं है। जिस प्रकार
युद्ध क्षेत्र में विजय पाने के लिए सफल रण नीतियाँ अपनानी आवश्यक हैं, ठीक
उसी प्रकार कक्षाकक्ष में सफल शिक्षण के लिए सुनिश्चित तथा उपयुक्त शिक्षण
नीतियों का अपनाया जाना नितान्त आवश्यक है।
शिक्षण रीतियों का अर्थ-शिक्षण रीतियों के लिए शिक्षण से सम्बन्धित पुस्तकों
में पृथक-पृथक शब्दों का प्रयोग पाया जाता है जैसे शिक्षण नीतियाँ,
शिक्षण-युक्तियाँ, शिक्षणकलाएँ, शिक्षण कौशल आदि-आदि। यदि इन सभी शब्दों के
स्वभाव को गम्भीरता के सन्दर्भ में देखें तो पाते हैं कि ये सभी विभिन्न शब्द
एक ही बात के द्योतक हैं। वहाँ यहस्पष्ट कर देना सर्वथा उपयुक्त है कि शिक्षण
पद्धति तथा शिक्षण रीति में आधारभूत अन्तर है। शिक्षण रीति को समझने के लिए
शिक्षण पद्धति तथा शिक्षण रीति के अन्तर को समझ लेना आवश्यक है।
जहाँ तक शिक्षण पद्धतियों तथा शिक्षण रीतियों का प्रश्न है इन दोनों में
आधारभूत अन्तर है। शिक्षण पद्धति शिक्षण के आधारभूत चरणों का व्यक्तिकृत
मिश्रण है जिसका मुख्य उद्देश्य प्रभावोत्पादक ढंग से विषय सामग्री का
छात्रों के सम्मुख प्रस्तुतीकरण करना है जबकि शिक्षण रीति एक ऐसा सूत्र, उपाय
या सुझाव है जिससे किसी विशिष्टशिक्षण बिन्दु को स्पष्ट किया जाता है अथवा
शिक्षण पद्धति को प्रभावी बनाया जाता है।एक शिक्षण पद्धति के अन्तर्गत हम कई
शिक्षण रीतियों का प्रयोग कर सकते हैं जैसे वाद-विवाद एक पद्धति है इसे और
अधिक प्रभावोत्पादक बनाने हेतु हम प्रश्न, प्रस्तावना, मूल्यांकन आदि शिक्षण
रीतियों का प्रयोग कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में किसी शिक्षणपद्धति को जो
वास्तव में शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति की विधि होती है. प्रभावी और
सफलबनाने हेतु प्रयुक्त की जाने वाली रीतियाँ ही शिक्षण रीतियों कहलाती हैं।
शिक्षण रीति की परिभाषा-शिक्षण रीति क्या है इसे और अधिक स्पष्ट ढंग सेसमझने
के लिए यह उचित रहेगा कि विभिन्न विद्वानों ने शिक्षण रीति की जो परिभाषा
दीहै उनका अध्ययन किया. जाय। इसी उद्देश्य से नीचे कतिपय विद्वानों द्वारा दी
गईपरिभाषाओं का उल्लेख किया गया है-
(1) स्टोन्स तथा मोरिस (Stones and Morris)-शिक्षण रीति पाठ की सामान्यीकृत
योजना है जिसमें पूर्व निश्चित अधिगम व्यवहारों की रचना को सम्मिलित किया
जाता है तथा इसमें रीतियों की क्रियान्वित हेतु आवश्यक शिक्षण रीतियों का भी
उल्लेख किया जाता है।
(2) बी० ओ० स्मिथ (B.O. Smith)-रीतियाँ उन कार्यों के रूपों की द्योतक
हैंजिनसे कुछ पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति होती है तथा कुछ
कार्यों से परिपृष्ठ हमारी रक्षा की जाती है।
(3) स्ट्रेसर (Strasser)-शिक्षण रीति वह योजना है जो शिक्षण.उद्देश्य
व्यवहारगतपरिवर्तन विषयवस्तु कार्य विश्लेषण, अधिगम अनुभव तथा छात्रों के
परिपृष्ठ अनुभवों कोविशेष महत्त्व देती है। उपरोक्त परिभाषाओं का यदि हम
विश्लेषण करें तो पाते हैं कि शिक्षण रीति में सामान्यतः निम्न विशेषताएँ पाई
जाती हैं-
(1) शिक्षण रीति शिक्षण विधि को प्रभावी और सफल बनाती हैं।
(2) शिक्षण रीति शिक्षण उद्देश्यों के आधार पर चुनी जाती है।
(3) शिक्षण रीति में छात्र व्यवहारों के परिवर्तन पर विशेष बल दिया जाता है।
(4) शिक्षण रीति शिक्षण की एक व्यापक अध्यापन या योजना का पूर्व निश्चित
(प्रतिमान है।
(5) शिक्षण रीतियाँ शिक्षण व्यवस्था को उन्नत बनाने में सहायक होती हैं।
(6) शिक्षण रीतियाँ प्रदत्त कार्य का विश्लेषण कर तदनुसार विविध शिक्षण
रीतियाँप्रयुक्त करने पर बल देती हैं।
वाणिज्य-शिक्षण में प्रायः निम्नांकित शिक्षण रीतियों का प्रयोग किया जाता
है-
(1) प्रश्न-रीति (Questioning Technique)
(2) कार्य निर्धारण रीति (Assignment Technique)
(3) कथन रीति (Narration Technique)
(4) उदाहरण रीति (Illustration Technique)
(5) परीक्षा रीति (Examination Technique)
(6) अभ्यास रीति (Drill Technique)
(7) प्रदर्शन रीति (Demonstration Technique)
1. प्रश्न रीति
(QUESTIONING TECHNIQUE)
प्रश्न शिक्षण की एक महत्त्वपूर्ण युक्ति है। अति प्राचीनकाल से शिक्षण में
प्रयोगहोता आया है। शिक्षण में प्रश्नों का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है।
पाठ्य-सामग्री को सरलतथा स्पष्ट करने में प्रश्नों का विशेष योगदान रहता है।
बालकों को जो भी ज्ञान प्रदानकिया गया है उसे छात्र कहाँ तक आत्मसात् कर पाये
हैं प्रश्न पूछकर आसानी से ज्ञातकिया जा सकता है। प्रश्नों को अच्छे ढंग से
पूछना एक कला है। शिक्षक जितना उनप्रश्नों को पूछने की कलाओं में पारंगत होता
जाता है उसका शिक्षण उतना ही प्रभावी होता जाता है। कुछ विद्वान इसलिए कहते
हैं कि शिक्षण की निपुणता बहुत हद तकप्रश्न पूछने की कला पर निर्भर करती है।
मनोविज्ञान की नवीन विचारधाराओं केअनुसार शिक्षा बालकों की रुचि, योग्यता,
क्षमता व आवश्यकतानुसार होनी चाहिए। अध्यापक उसी आधार पर प्रश्नों के माध्यम
से बालकों की रुचि, स्तर, योग्यता वआवश्यकता का पता लगा सकता है। प्रश्नों का
महत्व छात्रों व अध्यापकों दोनों के लिएसमान है। शिक्षण को सफल व प्रभावी
बनाने के लिए प्रश्न पूछने की कला में निपुण होना चाहिए।
टी० रेमेण्ट के अनुसार. प्रश्न करने की उत्तम शैली का विकास करना. प्रत्येकनए
अध्यापक की सबमें बड़ी आकांक्षा होती है, चाहे इस कथन में पूर्ण सत्यता हो
किअच्छा प्रश्नकर्ता अच्छा शिक्षक होता ही है, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं
है कि अच्छेप्रश्न न करने वाला व्यक्ति अच्छा शिक्षक नहीं हो सकता है।
कोलविन महोदय के अनुसार प्रश्न सबसे बड़ा उत्तेजक है जो यह अध्यापक कोशीघ्र
उपलब्ध हो जाता है।
प्रश्नों का शिक्षण कार्य में प्रयोग न केवल अपरिहार्य एवं अनिवार्य ही है
अपितुअत्यन्त ही उपयोगी तथा प्रेरणादायक भी है। शिक्षण कार्य में प्रश्न एक
ऐसी विधि केरूप में काम आते हैं। जो शिक्षण के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को
प्राप्त करने में सहायकहोते हैं। प्रश्नों के द्वारा ही शिक्षक कक्षा में
अन्य उद्देश्यों को भी प्राप्त कर सकता है।
प्रश्नों के कार्य
कक्षाकक्ष में शिक्षण करते समय शिक्षक सामान्यतया निम्नांकित कार्यों के
लिएप्रश्न पूछ सकता है। दूसरे शब्दों में कक्षाकक्ष में प्रश्न पूछने के
निम्नांकित कार्य हो सकते हैं-
(1) उस क्षेत्र का पता लगाना जिसका छात्रों को ज्ञान हो अर्थात छात्रों के
पूर्वज्ञान का पता लगाना।
(2) उन क्षेत्रों का पता लगाना जिसका छात्रों को ज्ञान नहीं है।
(3) छात्रों को प्रस्तुत पाठ के लिए तत्पर करना।
(4) छात्रों के पूर्व ज्ञान तथा प्रस्तुत पाठ में सम्बन्ध स्थापित करना।
(5) छात्रों को प्रेरणा प्रदान करना।
(6) पाठ का विकास करना।
(7) छात्रों की चिन्तन शक्ति का विकास करना।
(8) छात्रों की रुचि जाग्रत करना।
(9) छात्रों की कल्पना शक्ति का विकास करना।
(10) कक्षा में छात्रों को मानसिक रूप से उपस्थित रखना।
(11) अभ्यास तथा पुनरावृत्ति कार्यों के लिए।
(12) छात्रों की इस प्रकार सहायता करना कि विषयवस्तु को व्यवस्थित कर सकें।
(13) विषयवस्तु के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर बल देना।
(14) छात्रों का रुझान व अभिरुचि का पता लगाना।
(15) छात्रों का मूल्यांकन करना।
(16) शिक्षण कार्य तथा शिक्षण से सम्बन्धित अन्य विधियों व रीतियों आदि की
सफलता का मूल्यांकन करना।
उपरोक्त बिन्दुओं से स्पष्ट है कि कक्षा शिक्षण में प्रश्न पूछने की रीति
अत्यन्त ही उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्नों के प्रकार
ऊपर हम देख चुके हैं कि कक्षा में प्रश्न अनेक उद्देश्यों से पूछे जाते हैं
और जिस उद्देश्य से प्रश्न पूछे जाते हैं प्रश्न उसी प्रकार का हो जाता है
जैसे यदि प्रश्न पाठ के विकास के लिए हो तो वह प्रश्न विकासात्मक होगा और यदि
प्रश्न अभ्यास के लिए हो तो वह अभ्यास प्रश्न होगा। इसी प्रकार यदि शिक्षक
छात्रों के पूर्व ज्ञान का पता लगाने को प्रश्न पूछते हैं तो वह पूर्व ज्ञान
प्रश्न होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रश्नों के प्रकार सामान्यतः इस बात
पर निर्भर करते हैं कि प्रश्न किस उद्देश्य से पूछे गये हैं। कक्षा में
उद्देश्यों के अनुसार निम्नांकित प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं-
(1) प्रस्तावना प्रश्न-प्रस्तावना प्रश्न निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति
हेतु पूछे जाते हैं।
(i) छात्रों के पूर्व ज्ञान का पता लगाने के लिए।
(i) छात्रों को प्रस्तुत पाठ के लिए तत्पर तथा प्रेरित करने के लिए।
(ii) छात्रों के पूर्व ज्ञान एवं नवीन ज्ञान में सम्बन्ध स्थापित करने के
लिए।
इन प्रश्नों के द्वारा छात्रों में प्रस्तुत पाठ के लिए रुचि भी जाग्रत की
जाती है।प्रस्तावना प्रश्न छात्रों के पूर्व ज्ञान से प्रारम्भ होकर एक
श्रृंखलाबद्ध रूप में सरल सेकठिन होकर नवीन पाठ के सम्बन्ध में छात्रों के
सम्मुख एक समस्या निर्मित करते हैं।नीचे प्रस्तावना प्रश्नों का एक उदाहरण
दिया गया है-
(1) वस्तुओं के लेन-देन को क्या कहते हैं ?
(2) विक्रय किसे कहा जाता है ?
(3) क्रय-विक्रय में कितने पक्ष होते हैं ?
उपरोक्त सभी प्रश्नों में श्रृंखलाबद्धता होती है तथा प्रत्येक प्रश्न पूर्व
प्रश्नों कीतुलना में क्रमशः कठिन हो जाता है।
(2) विकासात्मक प्रश्न-विकासात्मक प्रश्नों के द्वारा पाठ का विकास किया
जाताहै। ये प्रश्न पाठ को आगे बढ़ाते हैं तथा पाठ में छात्रों की रुचि को
बनाए रखता है। ये प्रश्न शिक्षण क्रिया के अनिवार्य अंग हैं। इन्हीं के
माध्यम से विषयवस्तु छात्रों के सम्मुख रखी जाती है। शिक्षक का कार्य यह भी
देखना है कि छात्र विषयवस्तु को ग्रहण कर रहे हैं, उसे समझ रहे हैं. अपनी
रुचि व ध्यान बनाये हुए हैं तथा इस कार्य में वे कितना सफल हो रहे हैं। अतः
विकास प्रश्न उन सभी उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं।
(3) बोध प्रश्न-प्रस्तुत पाठ को समझने में छात्र कहाँ तक सफल हुए हैं यहजानने
के लिए बोध प्रश्न पूछे जाते हैं। इन प्रश्नों के द्वारा यह भी प्रयास किया
जाताहै कि छात्रों ने जो नवीन ज्ञान प्राप्त किया है उसे वे एक व्यवस्थित रूप
प्रदान करसकें। इससे निश्चित है कि बोध प्रश्न विषयवस्तु के उपरान्त ही
प्रश्न पूछे जाते हैं
(1) फाइल करना किसे कहते हैं ?
(2) पत्रों को फाइल क्यों करना चाहिए?
(3) फाइलिंग की मुख्य विधियाँ कौन-कौन सी हैं ?
3 तुलनात्मक प्रश्न-शिक्षण के अवबोधात्मक उद्देश्य की परिपूर्ति हेतु
सामान्यतःतुलनात्मक प्रश्न पूछे जाते हैं। इन प्रश्नों के माध्यम से यह पता
लगाया जाता है किछात्र दो तथ्यों के मध्य तुलना अथवा अन्तर कर सकते हैं अथवा
नहीं। नीचे इस प्रकारके कुछ प्रश्न दिये हुए हैं-
(1) देशी व्यापार और विदेशी व्यापार में क्या अन्तर है?
(2) खड़ी फाइल और आड़ी फाइल प्रणाली में क्या अन्तर है ?
(3) हुण्डी और विनिमय पत्र में क्या अन्तर है ?
परिभाषा प्रश्न-जिन प्रश्नों के माध्यम से परिभाषायें निकलवाई जायें। वे
परिभाषा प्रश्न कहलाते हैं जैसे-
(1) चैक किसे कहते हैं ?
(2) अर्थशास्त्र की परिभाषा दीजिए।
(3) वाणिज्यिक भूगोल की परिभाषा दीजिए।
पुनरावृत्ति प्रश्न-एक प्रश्नों को पाठ के समाप्त होने पर पूछे जाते हैं। इन
प्रश्नोंका उद्देश्य पाठ को दोहराना होता है। यदि बालक इन प्रश्नों के ठीक
उत्तर देते हैं तो इसका तात्पर्य होता है छात्रों ने ढंग से पाठ को आत्मसात्
किया है।
(1) सूती कपड़ों की मिलों के लिए भारत का मेनचेस्टर किसे कहते हैं ?
(2) सूती कपड़े की मिलें अहमदाबाद में ज्यादा होने के क्या कारण हैं ?
(3) सूती कपड़े की मिलें किस राज्य में खोलनी चाहिए?
अच्छे प्रश्नों की विशेषताएँ-प्रश्न रीति शिक्षण कार्य की सफलताओं के लिए
एकबहुतही अच्छी एवं उपयोगी विदा है किन्तु यह तभी सफलतापूर्वक कार्य कर सकती
है जब कि पूछे गये प्रश्न अच्छे हों। अच्छे प्रश्नों में सामान्यतः निम्न
विशेषताएँ होती हैं-
(1) स्पष्टता-अच्छे प्रश्नों की भाषा में स्पष्टता होती है। अच्छे प्रश्नों
की भाषा से छात्र चाहे उसका उत्तर जानता हो अथवा नहीं, इतना अवश्य जान लेता
है कि क्यापूछा गया है। यदि प्रश्न की भाषा ही अस्पष्ट है तो छात्र जानते हुए
भी उसका उत्तर नहीं दे सकता है। बैंक ऑफ बड़ौदा के डाइरेक्टर का नाम क्या है।
अस्पष्ट प्रश्न है।ऐसे प्रश्न से उद्देश्य पूरा नहीं होता है।
(2) निश्चितता-अच्छे प्रश्नों का एक सुनिश्चित उत्तर होता है और उस उत्तर के
अलावा अन्य सभी उत्तर गलत होते हैं क्या चेक लिखने वाले का खाता बैंक मेंहोना
आवश्यक है। अनिश्चित प्रश्नों के द्वारा पाठ का विकास सही रूप से नहीं हो
सकता है।
(3) उपयुक्तता-अच्छे प्रश्न छात्रों की आयु, योग्यता. स्तर व रुचि के
अनुसारहोते हैं. इतना ही नहीं वे विषय वस्तु तथा किसी पूर्व निर्धारित
उद्देश्य के अनुसार भी होते हैं। अध्यापक को प्रश्न पूछते समय इस तथ्य को भी
ध्यान में रखना चाहिए किप्रश्न उपयुक्त हो। छोटे बालकों से तार्किक प्रश्न
पूछना असंगत होता है।
(4) चुनौती-अच्छे प्रश्न छात्रों के सम्मुख ऐसी' समस्या प्रस्तुत करते हैं
जिसे छात्र के एक चुनौती के रूप में स्वीकार करते है और उसके समाधान हेतु
प्रेरित होते हैं। विशिष्टप्रश्न प्रत्यक्ष तथा सीधे-सादे होते हैं। पेचीदा,
समस्या में डालने वाले प्रश्नों का प्रयोगनहीं करना चाहिए।
(5) संक्षिप्तता-अच्छे प्रश्न संक्षिप्त होते हैं। किन्तु इतने संक्षिप्त भी
नहीं होने (चाहिए कि छात्र उनका अर्थ ही न समझ सके। अच्छे प्रश्न बहुत लम्बे
नहीं होने चाहिए।लम्बे प्रश्नों को समझने में छात्रों को कठिनाइयाँ आती हैं।
(6) भाषा शैली-अच्छे प्रश्नों की भाषा शैली सरल, छात्रों के स्तरानुकूल होती
है प्रश्नों में प्रयुक्त भाषा शैली पेचीदा, क्लिष्ट तथा अलंकारिक न हो।
प्रश्नों के वाक्य छात्रों के उपयुक्त होने चाहिए।
(7) सोद्देश्यता-प्रश्न पूछने का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। इसलिए
प्रश्नों का उद्देश्य पहले से निश्चित कर लेना चाहिए। रचनात्मक उद्देश्य के
लिए जब प्रश्न पूछेजायें तो प्रश्न पुनमरण से सम्बन्धित हो, इसी प्रकार अवबोध
के लिए पूछे गये प्रश्नतुलना, अन्तर, वर्गीकरण तथा श्रेणी विभाजन कराने आदि
से सम्बन्धित होने चाहिए।
प्रश्न पूछने की कला
वैसे तो हर कोई प्रश्न पूछ सकता है किन्तु शैक्षणिक दृष्टि से प्रश्न पूछना
हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। प्रश्न पूछना दिखने में जितना सरल व आसान लगता
है वास्तव में उतना सरल है नहीं। कक्षा में उद्देश्यपूर्णता के साथ प्रश्न
करना हर अध्यापक को आता भी नहीं है। यह तो एक कला है जिसमें चिन्तन अभ्यास
एवं प्रशिक्षण के द्वारा ही पारंगत हुआ जा सकता है। इस कला के निखार के लिए
आवश्यक है कि अध्यापक जब भी प्रश्न पूछे वह निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में
रखे-
(1) प्रश्न पूछने से पूर्व अध्यापक प्रश्न पूछने का उद्देश्य निर्धारित करे।
(2) प्रश्न की संरचना प्रश्न पूछने के उद्देश्य के अनुरूप हो।
(3) प्रश्न पूछते समय पूरी कक्षा को सम्बोधित करके उच्चारित किया जाग।
(4) किसी एक छात्र को सम्बोधित करके प्रश्न न पूछा जाय ।
(5) प्रश्न का फैलाव अधिक-से-अधिक हो। प्रश्नों का फैलाव पूरी कक्षा पर
हो।सभी प्रकार के बच्चों से उनके अनुरूप प्रश्न पूछे जायें।
(6) कक्षा में प्रश्न इतनी जोर से उच्चारित किया जाय कि पीछे बैठने वाले
छात्र भी आसानी से सुन सकें।
(7) प्रश्नों की भाषा छात्रों के स्तर के अनुरूप हो।
(8) प्रश्नों की भाषा कटु, कटाक्ष करती हुई नहीं होनी चाहिए। व्यंगात्मक
तरीका काम में नहीं लिया जाय। प्रश्न सहज स्वरूप में तथा मधुर-वाणी में पूछे
जायें।
(9) आवश्यकता पड़ने पर अध्यापक छात्रों को उत्तर देने के लिए प्रेरित करें व
सहायता करें।
(10) प्रश्न पूछते समय व्यक्तिगत विभिन्नताओं को भी ध्यान में रखा जाय ।
कमजोर छात्रों से सरल व बुद्धिमान छात्रों से कठिन प्रश्न पूछे जायें।
(11) प्रश्न इतने कठिन न हों कि छात्र उन्हें सुनते ही हताश हो जायें।
समाधानका प्रयास ही न करें।
(12) अनावश्यक रूप से कक्षा में प्रश्नों का दोहराना अनुचित है।
(13) प्रश्नों के उच्चारण में कृत्रिमता न हो, प्रश्न सहज भाषा व सरल ढंग से
पूछे जायें तथा प्रश्न धीमी गति में पूछे जायें।
(14) चक्कर में डालने वाले प्रश्न नहीं पूछे जायें।
(15) कक्षा में अलंकारिक प्रश्न भी नहीं पूछे जायें।
(16) सुझावात्मक प्रश्न भी न पूछे जायें।
(17) सामान्यतः ऐसे प्रश्न भी न पूछे जायें जिनके प्रश्नों का उत्तर हाँ या
ना में हो।
इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देने में छात्रों को अधिक चिन्तन करने की
आवश्यकता नहीं पड़ती है।
2. कार्य निर्धारण नीति छात्रों को मानसिक विकास के अपरिपक्व होने के कारण
निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। अपरिपक्वता के कारण छात्र-यह नहीं समझ पाते
कि क्या अध्ययन किया जाय। किस प्रकार अध्ययन किया जाय, विषय-वस्तु को किस
प्रकार संगठित कियाजाय। इन सभी कार्यों में निर्देशन देने हेतु सुनिरीक्षित
कार्य-निर्धारण की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार कार्य निर्धारण किये हुए
कार्य का क्षेत्र एवं दिशा निर्धारित करता है तथा दिए हुए कार्य को सरल, सुगम
व स्पष्ट बनाता है।
कार्य निर्धारण का दूसरा उद्देश्य व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर शिक्षा
प्रदान करना है। पिछड़े हुए बालकों को अतिरिक्त समय में कार्य देकर सामान्य
स्तर पर लाने की चेष्टा की जाती है तथा तीव्र बुद्धि बालकों को अतिरिक्त
कार्य देकर उनकी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।
कार्य निर्धारण का एक उद्देश्य छात्रों के किसी कार्य को सम्पादित करने के
लिए तैयार करना है। कार्य छात्रों के किसी कार्यों को सम्पादित करने के लिए
प्रेरित करता है। कार्य निर्धारण छात्रों को न केवल कार्य करने के लिए
प्रेरित करता है वरन् यह भी बतलाता है कार्य किस प्रकार सम्पादन करना है।
इससे छात्रों को कार्य करने में सरलता होती है।
अच्छे कार्य निर्धारण की विशेषताएँ
अच्छे कार्य निर्धारण में निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं-
(1) अच्छा कार्य निर्धारण निश्चित होता है।
(2) अच्छा कार्य निर्धारण स्पष्ट होता है।
(3) अच्छा कार्य निर्धारण उपयोगी होता है।
(4) अच्छा कार्य निर्धारण रोचक होता है।
(5) अच्छा कार्य निर्धारण छात्रों के मानसिक स्तर के अनुरूप होता है।
(6) प्रेरणा अच्छे कार्य निर्धारण की प्रमुख विशेषता है।
(7) अच्छा कार्य निर्धारण छात्रों में चिन्तन, मनन तथा विश्लेषण शक्ति का
विकास करता है।
कार्य निर्धारण करना-कार्य का निर्धारण करते समय अध्यापक को कक्षा का
स्तरसदैव ध्यान में रखना चाहिए। अध्यापक को देखना चाहिए कि कक्षा का मानसिक
एवंनिष्पत्ति स्तर समान है या असमान। यदि स्तर समान है तो सम्पूर्ण कक्षा को
एक हीकार्य दे देना चाहिए। कार्य देने से पूर्व छात्रों को कार्य करने हेतु
विभिन्न उपायों से प्रेरित करना चाहिए। जिस कार्य को निर्धारित किया जाय वह
अच्छा हो। जो भी कार्य देना है उसके लिए आदेश नहीं दिया जाय वरन् कार्य नम्र
एवं सहानुभूतिपूर्ण ढंग से दिया जाय। कार्य निर्धारण में समय तत्त्व का भी
ध्यान रखा जाय। कार्य निर्धारण करते समय यह भी ध्यान रखा जाय कि जो कार्य
दिया जा रहा है उसके लिए सम्बन्धित पुस्तकें व अन्य आवश्यक सामग्रियाँ भी हैं
या नहीं। अन्त में यह भी पता लगाते रहना चाहिए कि छात्र निर्धारित कार्य को
किस सीमा तक सम्पादित करने में सफल रहे हैं। वे कितनासीख पाये, उनके व्यवहार
में क्या वांछित परिवर्तन हुए?
3. कथन रीति
वाणिज्य शिक्षण में कथन रीति अत्यन्त उपयोगी है ? वांछित शिक्षण में कथन रीति
का बड़े व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। अध्यापक द्वारा पूछे जाने पर जब
छात्रकिसी प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाते हैं तो अध्यापक कथन के द्वारा उस
प्रश्न का उत्तरछात्रों को प्रदान करता है। इस प्रकार कथन रीति प्रश्न रीति
की कमियों को दूर करतीहै।कथन रीति में उपरोक्त गुणों के साथ ही साथ कुछ दोष
होते हैं। कथन रीति का सबसे प्रमुख दोष है कि यह छात्रों को कक्षा में
निष्क्रिय क्षेत्र मात्र बना देती है। इससे कक्षा में नरीसता आ सकती है,
इसलिए अध्यापक को इस रीति का प्रयोग करते समयसामान्यतया निम्न बिन्दुओं को
ध्यान में रखना चाहिए-
(1) इतना ही कथन दिया जाय जितना आवश्यक हो।
(2) सरल, सुगम एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया जाय।
(3) छात्रों के मानसिक स्तर के अनुरूप कथन दिया जाय।
(4) आवश्यक सहायक सामग्री के द्वारा कथन को आकर्षक बनाया जाय।
(5) कथन तार्किक रूप से व्यवस्थित किया जाय।
(6) कथन के समय छात्रों को लिखने का अवसर दिया जाय।
(7) कथन करते समय पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखा जाए।
4.उदाहरण रीतिउदाहरण वह क्रिया है जिसके माध्यम से अध्यापक किसी घटना, विचार
या वस्तुका उल्लेख कर उसका सम्बन्ध किसी नवीन एवं अज्ञात विचार, घटना या
वस्तु सेस्थापित करता है, और इस प्रकार इस नवीन एवं अज्ञात विचार, घटना,
वस्तु कोअधिक रोचक एवं बोधगम्य बनाता है। उदाहरण का दूसरा कार्य किसी सूक्ष्म
विचार को स्थूल रूप प्रदान करना है। सूक्ष्म विचार सीखने के दृष्टिकोण से
कठिन होता है और स्थूल विचार सरल होता है। उदाहरण के द्वारा सूक्ष्म विचार को
स्थूलता प्रदान की जाती
है अर्थात् विषय वस्तु को सरलता प्रदान की जाती है। छात्र सूक्ष्म, दुरूह तथा
जटिल विषय का आत्मसात् करने में असफल रहते हैं। ऐसे विषयों को स्पष्ट करने
हेतुउदाहरण रीति का प्रयोग किया जाता है।
उदाहरण के उद्देश्य-शिक्षण कार्य में उदाहरणरीति का प्रयोग निम्न उद्देश्यों
की पूर्ति हेतु किया जाता है-
(1) छात्रों का ध्यान विषय वस्तु की ओर आकर्षित करने हेतु,
(2) ज्ञात विचार, वस्तु एवं घटना का सम्बन्ध अज्ञात विचारों, वस्तुओं तथा
.घटनाओं से स्थापित करने हेतु,
(3) छात्रों को प्रेरणा प्रदान करने हेतु,
(4) विषय वस्तु को बोधगम्य बनाने हेतु,
(5) छात्रों के अनुभवों को विकसित करने हेतु।
उदाहरणों के प्रकार
वाणिज्य शास्त्र शिक्षण में प्रायः नीचे लिखे दो प्रकार के उदाहरणों का
प्रयोग किया जाता है--
(1) मौखिक उदाहरण-मौखिक उदाहरण वे उदाहरण हैं जो शिक्षक द्वारा मौखिकरूप से
छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत किये जाते हैं। इन उदाहरणों से अध्यापक छात्रों
के मस्तिष्क पर विषय वस्तु का मौखिक चित्र अंकित करता है। यहाँ पर शिक्षक
ज्ञात का अज्ञात से सम्बन्ध मौखिक रूप से स्थापित करता है इसके लिए अध्यापक
या तो ज्ञातएवं अज्ञात में समानता का वर्णन करता है या असमानता का । मौखिक
उदाहरण प्रस्तुत करते समय अध्यापक को अपनी भाषा का विशेष ध्यान रखना चाहिए,
उदाहरण देते समय अध्यापक की भाषा सरल, स्पष्ट तथा ओजपूर्ण होनी चाहिए। शिक्षक
को लम्बे उदाहरण कभी भी नहीं देने चाहिए। अच्छा हो जो उदाहरण दिये जाएँ वे
जीवन से सम्बन्धित हों।
(2) प्रदर्शनात्मक उदाहरण-ये उदाहरण स्थूल वस्तुओं से सम्बन्धित होते हैं। इस
प्रकार के उदाहरणों में हम सामान्यतः निम्नांकित उदाहरणों का प्रयोग करते
हैं-
(1) चित्र एवं रेखाचित्र
(2) प्रतिरूप
(3) चार्ट
(4) ग्राफ
(5) श्यामपट पर खींचे गए चित्रादि
(6) प्रयोग
(7) अन्य अव्य-दृश्य सामग्रियाँ
5. अभ्यास रीतिशिक्षण में अभ्यास का बहुत महत्व है। यह रीति थॉर्मडाइक के
अभ्यास के नियमपर आधारित है। इस नियम के अनुसार बालक किसी प्रश्न, तथ्य या
समस्या की जितनी बार आवृत्ति करेगा वह उतना ही अधिक मस्तिष्क में स्थायी बनता
जायेगा। एम० पी० मुफात के अनुसार अभ्यास के द्वारा छात्रों में आदतों का
निर्माण, कुशलताओं की प्राप्ति तथा उनको किसी परीक्षा के लिए तत्पर बनाया जा
सकता है।
अभ्यास रीति का वाणिज्य शास्त्र में काफी हद तक प्रयोग किया जाता है।वाणिज्य
शास्त्र के पुस्तपालन तथा बहीखाता आदि विषयों में इसका विशेष स्थान है।इनमें
अभ्यास रीति का जितना प्रयोग किया जाता है उतनी ही ज्ञान में सफलता मिलतीजाती
है। पुस्तपालन में तथा लेखा कार्य में जनरल, लेजर, रोकड़ आदि लिखना
इसीरीति.के द्वारा आसानी से सिखाया जा सकता है। इसी प्रकार व्यापार पद्धति
में, बैंकिंग कार्यों में, आशुलिपि एवं टंकन में अभ्यास रीति बड़ी लाभदायक
सिद्ध होती है। इनमेंअभ्यास का जितना सहारा लिया जाता है उतनी ही सफलता
प्राप्त होती है।
6. प्रदर्शनशिक्षण में प्रदर्शन की रीति का अपना महत्व है। प्रदर्शन का अर्थ
है करकेदिखाना। शिक्षक अनेक तथ्यों को पहले स्वयं करके छात्रों को दिखाता है।
इससे छात्र किसी कार्य को सही रूप से करने की विधि सीखते हैं तथा उन्हें इस
बात का भी ज्ञान होता है कि किसी कार्य के क्या परिणाम होते हैं। प्रदर्शन के
द्वारा अध्यापक पूर्व स्थापित अनेक तथ्यों व सिद्धान्तों की प्रामाणिकता को
भी छात्रों के सम्मुख प्रदर्शन करके सिद्धकर सकता है। प्रदर्शन के बाद छात्र
प्रदर्शित क्रिया को स्वयं करके अपने ज्ञान कोस्थायित्व देते हैं तथा कौशल का
विकास करके करते हैं।
वैसे तो प्रदर्शन का विज्ञान व वाणिज्य विषयों में बड़ा महत्त्व है जिनमें
किसी कौशल के विकास पर बल देने की प्रमुखता होती है। पुस्तपालन, बहीखाता व
टंकण आदि विषयों में इसका बड़ा महत्त्व है। किन्तु आज सैद्धान्तिक विषयों में
भी प्रदर्शन का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। शिक्षण के दौरान अध्यापक
आदर्श शिक्षण प्रक्रिया का प्रदर्शन करता है। जिन विद्यालयों में साधन
सुविधाएँ उपलब्ध हैं तथा उनकेअध्यापकों में सफल व प्रभावी शिक्षण की लगन है
वे प्रदर्शन रीति का सफलता एवं प्रभाव के रूप में प्रयोग करते हैं।
प्रदर्शन से लाभ-प्रदर्शन से निम्नांकित लाभ हैं-
(1) छात्र अवलोकन एवं निरीक्षण करना सीखते हैं।
(2) छात्रों को सिद्धान्तों तथा कारण-परिणाम सम्बन्धों की प्रामाणिकता सिद्ध
करके दिखाई जा सकती है।
(3) छात्रों में कौशल का विकास सम्भव है।
(4) सहायक सामग्री का अधिकतम प्रयोग सम्भव है।
(5) छात्र करके सीखते हैं।
(6) प्रदर्शन से कक्षा में अनुशासन व छात्र सक्रियता को बढ़ावा मिलता है।
(7) छात्र विभिन्न उपकरणों का प्रयोग सीखते हैं।
(8) प्रदर्शन से व्यावहारिक शिक्षण सम्भव है।
प्रदर्शन के सम्बन्ध में सुझाव
(1) प्रदर्शित वस्तु या क्रिया छात्रों के मनोशारीरिक स्तर के अनुरूप हो।
(2) सभी छात्र सुविधापूर्वक प्रदर्शन की प्रत्येक क्रिया को देख सकें।
(3) प्रदर्शन करते समय अध्यापक प्रत्येक क्रिया की मौखिक अभिव्यक्ति भी करे।
(4) प्रदर्शन के पूर्व व उपरान्त की तैयारियों व क्रियाओं से छात्रों को
परिचित करा दे।
(5) बीच-बीच में छात्रों से प्रश्न पूछे जायें ताकि जिज्ञासा शान्त होती रहे।
(6) प्रदर्शन में विशिष्ट उपकरण प्रयोगित हो तो छात्रों को उसके बारे में
बतलादे।
(7) प्रदर्शन के उद्देश्य पहले से निश्चित कर लिये जायें।
(8) प्रदर्शन के बाद छात्रों का प्रयोग करने के अवसर दिये जाये।
(9) यदि एक बार के प्रयोग से वांछित कौशल न आये तो उसे दोहरायें।
(10) प्रदर्शन के समय उपलब्ध साधनों का पूरा-पूरा उपयोग किया जाय।
अभ्यासार्थ प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न
1. शिक्षण रीतियों से आप क्या समझते हैं ? वाणिज्य-शिक्षण में कौन-कौन सी
रीतियों का प्रयोग किया जाता है ?
2. अध्यापक को प्रश्न पूछते समय किन-किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
अच्छे प्रश्न की क्या विशेषता होती है?
3. वाणिज्य-शिक्षण की शिक्षण रीतियों पर आलोचनात्मक विवरण लिखिए।
4. उदाहरण देने के क्या उद्देश्य होते हैं ? अच्छे उदाहरण की विशेषताओं का
उल्लेख कीजिए।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
1. प्रदर्शन रीति को प्रभावी बनाने हेतु कुछ सुझाव दीजिये।
2. कथन करते समय शिक्षक को किन-किन बातों को ध्यान में रखना चाहिये?
3. अच्छे प्रश्नों की प्रमुख विशेषतायें बताइये।4. छात्रों के लिये कार्य
निर्धारित करते समय आप किन-किन बातों को ध्यान में रखेंगे?
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. शिक्षण के सामान्यतः तीन स्तर होते हैं-
(1) स्मृति स्तर ।
(2) अवबोध स्तर।
(3)2. छात्रों के पूर्व ज्ञान का पता लगाने के लिए किस प्रकार के प्रश्न पूछे
जाते हैं ?
(अ) विकासात्मक प्रश्न
(ब) तुलनात्मक प्रश्न
(स) परिभाषा प्रश्न
(द) प्रस्तावना प्रश्न
3. अच्छे प्रश्नों की भाषा में ........होती है।
4. अच्छे प्रश्न छात्रों की आयु, योग्यता, स्तर, रुचि के अनुसार होते हैं-
(अ) सत्य
(ब) असत्य
उत्तर-1.चिन्तन या परावर्तन। 2. (द) प्रस्तावना प्रश्न । 3. स्पष्टता। 4. (अ)
सत्य।
11
वाणिज्य-शिक्षण के नये आयाम
(NEW DIMENSIONS OF COMMERCE TEACHING)
हम जानते हैं कि शिक्षा एक गत्यात्मक (Dynamic) प्रक्रिया है अतः इसमें अनवरत
बहुमुखी परिवर्तन होते रहते हैं। शिक्षण शिक्षा का ही एक अंग है। जब शिक्षा
कीअवधारणा में परिवर्तन होते हैं तो शिक्षण प्रक्रिया में भी परिवर्तन होना
स्वाभाविक है। इस कारण शिक्षण, प्रक्रिया में भी परिवर्तन होते रहते हैं।
दूसरे बहुत से शिक्षाशास्त्री शिक्षक तथा मनोवैज्ञानिक भी कक्षा शिक्षण के
सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोणों से शोधकार्य करकेविभिन्न प्रकार के परिणाम
निकालते रहते हैं। जिनके आधार पर भी शिक्षण-प्रक्रिया में समय-समय पर आवश्यक
परिवर्तन हो जाते हैं। इन परिवर्तनों तथा शोध कार्यों केपरिणामस्वरूप शिक्षण
के नये-नये आयाम उभर कर विकसित होते हैं। आधुनिक युग में वाणिज्यशास्त्र
शिक्षण को क्षेत्र में इन्हीं कारणों से कुछ नये आयाम विकसित हुए हैं।
प्रस्तुत अध्याय में इसी प्रकार के कतिपय आयामों का उल्लेख किया जा रहा है-
1. सूक्ष्म-शिक्षण
(MICRO-TEACHING)सूक्ष्म-शिक्षण अथवा अध्यापन एक ऐसी प्रशिक्षण प्रक्रिया है
जिसका मुख्य उद्देश्यशिक्षण प्रक्रियाओं को प्रभावी रूप से विकास करना होता
है। शिक्षण की इस आधुनिकतम तकनीक के द्वारा शिक्षण के विभित्र कौशलों तथा
दक्षताओं का विकास तथापरिमार्जन किया जाता है। इससे विधि के द्वारा अध्याय को
विभिन्न शिक्षण प्रक्रियाओं काज्ञान भी प्रदान किया जाता है।
बुश ने सूक्ष्म शिक्षण को परिभाषित करते हुए लिखा है 'सूक्ष्म-शिक्षण
अध्यापक-शिक्षा की वह प्रविधि है जो शिक्षक को स्पष्ट रूप से परिभाषित शिक्षण
कौशलों के आधार पर पूर्ण नियोजित ढंग से निर्मित पाठों के आधार पर पाँच से दस
मिनट के समय में कुछ छात्रों को पढ़ाने के अवसर प्रदान करती है तथा प्रायः
वीडियो टेपरिकार्डर के प्रयोग के अवसर प्रदान करती है।
मैक कालम तथा लिडू के अनुसार सूक्ष्म शिक्षण परिस्थितियों में प्रविष्ट होने
से पूर्व दक्षता प्राप्त कर लेने तथा कक्षा-कक्ष कौशलों का विकास कर लेने का
अवसर ही सूक्ष्म-शिक्षण है।
एलन या ईब के शब्दों में सूक्ष्म-शिक्षण एक ऐसी नियन्त्रित प्रविधि है जो
किसी एक विशिष्ट अध्यापन व्यवहार पर ध्यान केन्द्रित करने तथा नियन्त्रित
परिस्थितियों में शिक्षणाभ्यास को सम्भव बनाती है। पीक तथा टकर ने सूक्ष्म
शिक्षण को परिभाषित करते हुए लिखा है कि सूक्ष्म शिक्षण विशुद्ध रूप से
विशिष्ट शिक्षण कौशल की पहचान के लिये प्रत्यक्षीकृत व्यवहारों का इन शिक्षण
कौशलों में विकास को संभावी बनाने की दृष्टि से वीडियो टेप-प्रतिपुष्टि का
सम्मिश्रण है।
डॉ. सिंह के अनुसार-“सूक्ष्म-शिक्षण में विशिष्ट कक्षा-कक्ष व परिस्थितियाँ
निहित होती हैं जो सीमित आकार, क्षेत्र तथा समयावधि से सम्बन्धित होती हैं।
क्लिफ्ट आदि ने सूक्ष्म-शिक्षण की परिभाषा देते हुए लिखा है 'सूक्ष्म
शिक्षणशिक्षक-प्रशिक्षण की वह प्रविधि है जो शिक्षण परिस्थिति को सरल बनाती
है।शिक्षणाभ्यास को विशिष्ट कौशल तक सीमित रखती है तथा शिक्षण-समय तथा
कक्षाकारको घटा देती है।
डेविड यंग ने सूक्ष्म-शिक्षण को एक ऐसी प्रविधि बतलाया है जिसके द्वारा
नव-शिक्षक तथा अनुभवी शिक्षक दोनों ही अपनी शिक्षण कला को परिमार्जित करने के
अवसर प्राप्त करते हैं। सूक्ष्म-शिक्षण की एम. बी. बुच ने बड़ी ही व्यापक तथा
सर्वग्राही परिभाषा दी है। डॉ. बुच सूक्ष्म शिक्षण की परिभाषा देते हुए लिखते
हैं सूक्ष्म शिक्षण अध्यापक शिक्षा की एक ऐसी विधि है जो प्रायः वीडियो टेप
पर अपने परिणामों को देखने के साथ ही पाँच से दस मिनट तक के समय में वास्तविक
छात्रों के छोटे से समूह को सावधानीपूर्वक विकसित पाठ को नियोजित विधि से
सुस्पष्ट रूप से परिभाषित शिक्षण-दक्षताओं के विकास हेतु अवसर प्रदान करती
है।
सूक्ष्म-शिक्षण की विशेषतायें-सूक्ष्म-शिक्षण के ऊपर कई परिभाषाएँ दी हैं। इन
परिभाषाओं का यदि विश्लेषण किया जाए तो उस विश्लेषण से सूक्ष्म-शिक्षण की
निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होंगी-
(1) सूक्ष्म-शिक्षण वास्तविक शिक्षण है।
(2) सूक्ष्म-शिक्षण का उद्देश्य विशिष्ट शिक्षण दक्षताओं का विकास करना है।
(3) सूक्ष्म-शिक्षण में अध्यापन कार्य हेतु कक्षा का आकार पाँच से दस छात्रों
तकसीमित कर दिया जाता है।
(4) सूक्ष्म-शिक्षण में कक्षा कालांश पाँच से दस मिनट तक का होता है।
(5) सूक्ष्म-शिक्षण में पाठ्य-वस्तु की मात्रा व जटिलता घटा दी जाती है।
(6) सूक्ष्म-शिक्षण में शिक्षण कौशलों की संख्या कम कर दी जाती है।
(7) सूक्ष्म-शिक्षण में प्रतिपुष्टि की आवश्यकता होती है।
(8) सूक्ष्म-शिक्षण का उद्देश्य प्रभावी शिक्षण है।
(9).सूक्ष्म-शिक्षण अत्यन्त ही अधिक व्यक्तिगत शिक्षण प्रविधि है।
सूक्ष्म शिक्षण के सिद्धान्त-एलन तथा रियान ने सूक्ष्म-शिक्षण के निम्नलिखित
पाँच आधारभूत सिद्धान्त बतलाए हैं-
(1) वास्तविक अध्ययन का सिद्धान्त।
(2) कक्षा शिक्षण की हासिल जटिलताओं का सिद्धान्त ।
(3) विशिष्ट कौशल के विकास का सिद्धान्त।
(4) नियन्त्रित अभ्यास का सिद्धान्त ।
(5) प्रतिपुष्टि का सिद्धान्त।
इन सिद्धान्तों के आधार पर कहा जा सकता है कि सूक्ष्म-शिक्षण किन्हीं
काल्पनिककृत्रिम अथवा व्यावहारिक परिस्थितियों में शिक्षण करना नहीं है। इस
शिक्षण प्रविधि के द्वारा वास्तविक रूप में वास्तविक छात्रों को वास्तविक
पाठ्यक्रमानुसार शिक्षण प्रदान करते हैं। दूसरे सिद्धान्त के अनुसार
सक्ष्म-शिक्षण के अंतर्गत शिक्षण की जटिलताओं को कम से कम बनाया जा सकता है,
जिसमें शिक्षण कार्य सरल हो जाता है। शिक्षण कार्य जैसा कि हम अध्ययन कर चुके
हैं एक जटिल तथा कष्टसाध्य कार्य है। सूक्ष्म शिक्षण के द्वारा शिक्षण कार्य
की जटिलताओं को दूर किया जाता है। जटिलताओं को दूर करने के लिए कई उपाय काम
में लाये जाते हैं जैसे एक समय में एक ही उद्देश्य की प्राप्ति के प्रयास
करना आदि। सूक्ष्म-शिक्षण एक समय में केवल एक ही शिक्षण-उद्देश्य की प्राप्ति
के प्रयास करता है। सामान्य शिक्षण के समान सूक्ष्म-शिक्षण एक ही
कक्षा-कालांशज्ञानात्मक, अवबोधात्मक तथा सच्चात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति के
लिए नहीं दौड़ता इतना ही नहीं सूक्ष्म-शिक्षण एक कालांश में सम्पूर्ण
ज्ञानात्मक उद्देश्य की प्राप्ति के प्रयास नहीं करता अपितु ज्ञानात्मक की भी
एक सुपरिभाषित अंग को ही प्राप्त करने के प्रयास करता है जैसे किसी एक तथ्य
का केवल प्रत्यास्मरण।
सूक्ष्म-शिक्षण का अगला सिद्धान्त नियन्त्रित अभ्यास का है। इस सिद्धान्त के
अनुसार छात्राध्यापक जिन अभ्यास प्रक्रियाओं को सम्पादित करते हैं वे बड़े ही
नियन्त्रित तथा पूर्व नियोजित ढंग से की जाती हैं। इस प्रकार सूक्ष्म शिक्षण
व्यर्थ तथा सम्बन्धित अभ्यास क्रियाओं की पूर्ण अवहेलना करता है।
सूक्ष्म-शिक्षण में छात्राध्यापक को यह ज्ञात रहता है कि उसके शिक्षण के
परिणाम क्या रहे। यदि छात्राध्यापक को परिणामों का ज्ञान न होगा तो उसे
प्रतिपुष्टि के लिये कठिनाई आयेगी साथ ही सूक्ष्म-शिक्षण के लिये प्रतिपुष्टि
का होना भी अनिवार्य है। सन्1968 में माइयर ने सूक्ष्म-शिक्षण के निम्नलिखित
सात सिद्धान्तों का उल्लेखं किया-
(1) क्या पढ़ाना है इस सम्बन्ध में निर्णय लेते समय छात्र की अभिक्षमताओं
कोध्यान में रखना चाहिए।
(2) छात्र की आन्तरिक अभिप्रेरणा प्रदान की जाय।
(3) उद्देश्यों का वास्तविक परिस्थितियों के अनुसार निर्धारण किया जाय।
(4) एक समय में एक उद्देश्य के एक अंग की प्राप्ति के ही प्रयास किये जायें।
(5) अपने व्यवहारों के परिमार्जन हेतु छात्राध्यापक का सक्रिय सहयोग
आवश्यकहै।
(6) छात्राध्यापक को अपने कार्य के लिए निस्पादन की सफलता व उपलब्धियोंका
बराबर ज्ञान प्राप्त होता रहे।
(7) शिक्षण-कौशल के स्थायी होने से पूर्व ही छात्राध्यापक को उसके शिक्षण के
दोषों से अवगत करा दिया जाय।
सूक्ष्म-शिक्षण की आधारभूत मान्यतायें
सूक्ष्म-शिक्षण का विचार जब पहले-पहल विकसित किया गया तो उनके पीछे अग्रलिखित
पाँच आधारभूत मान्यतायें निश्चित की गईं--
(1) सूक्ष्म-शिक्षण के द्वारा छात्राध्यापकों का विकास न किया जा कर उनके
शिक्षण-कौशल का विकास किया जाता है।
(2) सूक्ष्म-शिक्षण कक्षा के आकार कक्षा-कालांश की अवधि तथा अध्यापन
विषय-वस्तु को अत्यन्त ही सीमित व घटाकर कक्षाकक्ष की जटिलताओं को कम कर देती
है।
(3) सूक्ष्म-शिक्षण एक समय में केवल एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए
प्रयासकरती है इसके लिये उद्देश्यों का सूक्ष्म-निर्धारण आवश्यक है। इससे एक
समय में एक ही शिक्षण-कौशल का विकास किया जाता है।
(4) सूक्ष्म-शिक्षण प्रतिपुष्टि के द्वारा अत्यन्त ही नियन्त्रित कक्षा
शिक्षण के अभ्यास की अनुमति प्रदान करती है। छात्राध्यापक प्रतिपुष्टि के
कारण बड़े ही नियन्त्रित व नियोजित ढंग से शिक्षण अभ्यास करता है
(5) सूक्ष्म-शिक्षण इस बात पर आधारित है कि छात्राध्यापकों को प्रतिपुष्टि
काबराबर ज्ञान मिलता रहे। प्रतिपुष्टि के द्वारा उन्हें अपनी कमजोरियों तथा
दोषों का निरन्तर ज्ञान प्राप्त रहता है। इस ज्ञान के आधार पर वे अपने शिक्षण
में से धीरे-धीरे इन दोषों को दूर करते रहते हैं और जब सभी दोष दूर हो जाते
हैं तब शिक्षा-कौशल को स्थापित प्रदान व करने के प्रयास किये जाते हैं।
सूक्ष्म-शिक्षण चक्र
सूक्ष्म-शिक्षण में सम्पूर्ण शिक्षण एक चक्र के रूप में सम्पादितकिया जाता
है। इस चक्र को निम्न प्रकार से प्रदर्शित कर सकते हैं-
योजना -->पुनर्प्रतिपुष्टि -->शिक्षण -->पुनर्शिक्षण
-->प्रतिपुष्टि -->पुनर्योजना
सूक्ष्म-शिक्षण के चक्र विभिन्न सोपानों को निम्न प्रकार से भी प्रदर्शित
किया जा सकता है-
योजना -->शिक्षण -->प्रतिपुष्टि -->पुनर्योजना -->पुनर्शिक्षण
-->पुनर्प्रतिपुष्टि
Plan -->Teach -->Feedback -->Replan -->Reteach
-->Refeedback
इस चक्र से स्पष्ट है कि यदि पुनः प्रतिपुष्टि के भी बाद वांछित शिक्षण
कौशलका विकास नहीं हो पाता है तो फिर प्रारम्भ से ही सम्पूर्ण चक्र प्रारम्भ
किया जाता है।सूक्ष्म-शिक्षण चक्र के इन विभिन्न पक्षों को ही सूक्ष्म-शिक्षण
के सोपान भी कहा जाता है।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद के डॉ. एल. सी. सिंह ने
सूक्ष्म-शिक्षण के अग्रांकित सोपानों का उल्लेख किया है-
(1) अर्थ स्पष्टीकरण-डॉ. सिंह के अनुसार सूक्ष्म-शिक्षण प्रविधि का सबसे
प्रथम सोपान शिक्षण प्रशिक्षकों तथा छात्राध्यापकों को सूक्ष्म-शिक्षण का एवं
प्रयोग विधि का सैद्धान्तिक ज्ञान प्रदान करना है। इस प्रकार के प्रारम्भिक
ज्ञान के आधार पर ही वे सूक्ष्म-शिक्षण का वास्तविक प्रयोग कर सकते हैं।
(2) शिक्षण-कौशलों की चर्चा-शिक्षण-प्रशिक्षकों तथा छात्राध्यापकों को
जबसूक्ष्म-शिक्षण कर अर्थ स्पष्ट हो जाए तो उन सबको मिलकर उन शिक्षण-कौशलों
कीचर्चा करनी चाहिए जिनका विकास उन्हें करना है। इस सम्बन्ध में इतना कहा जा
सकता है कि इस स्तर पर कम से कम पाँच शिक्षण कौशलों को निश्चित कर लेना
चाहिये जिसका विकास करना है। शिक्षण कौशलों का विकास करने के लिए बड़ौदा के
एम. एस. विश्वविद्यालय के शिक्षा के उच्च स्तरीय अध्ययन केन्द्र द्वारा
प्रकाशित विशिष्टशिक्षण कौशलों की पुस्तिका की सहायता ली जा सकती है। इसके
अलावा कुछ अन्यविद्वानों द्वारा दिये गये शिक्षा कौशलों का उल्लेख प्रस्तुत
अध्याय के अन्तर्गत ही आगामीपृष्ठों में किया गया है।
(3) आदर्श-पाठ का प्रस्तुतीकरण-जिन शिक्षण-कौशलों का विकास करना हैउनका जब
निर्धारण हो जाय तब छात्राध्यापकों के सम्मुख किसी प्रशिक्षित तथा
अनुभवीशिक्षकों, प्रशिक्षकों के द्वारा उनमें से किसी एक या दो शिक्षण-कौशलों
को ध्यान में रखकर प्रदर्शन-पाठ देना चाहिए।
(4) सूक्ष्म-पाठ योजनाओं का निर्माण-इसके बाद छात्राध्यापकों का वास्तविक
शिक्षण के लिए सूक्ष्म-पाठ योजनायें बनानी होती हैं। एक सूक्ष्म-पाठ योजना एक
शिक्षण-बिन्दु से सम्बन्धित होती है तथा इतनी लम्बी होती है जिसे 5 से 10
मिनट के कालान्तर में ही पूरा कर दिया जाय। प्रस्तुत पाठ के अन्त में एक
सूक्ष्म-पाठ योजना का नमूना दिया गया है।
(5) सूक्ष्म शिक्षण का निर्धारण-सूक्ष्म-शिक्षण के लिए सामान्यतः
निम्नलिखितव्यवस्था का निर्माण किया जाता है-
शिक्षण-छात्र संख्या-प्रतिपुष्टि-निरीक्षकपुनर्योजना-12 मिनटपुनर्शिक्षण-पुनः
प्रतिपुष्टि- 6 मिनट योग - 36 मिनट
(6) अभिरूपित परिस्थितियों-अभिरूपित परिस्थितियों में पहले छात्राध्यापकों के
कुछ साथी ही छात्र बन जाते हैं तथा उनमें से कोई एक छात्राध्यापक
सूक्ष्म-शिक्षण के द्वारा अपने ही साथियों को शिक्षा प्रदान करता है। यहाँ
भूमिका निर्वाह का सहारा लिया जाता है।
(7) शिक्षण-कौशलों का अभ्यास-इस सोपान के अन्तर्गत छात्राध्यापक विभिन्न
शिक्षण कौशलों का वास्तविक शिक्षा के माध्यम से अभ्यास करके विकास करते हैं।
इस स्तर पर वे विभिन्न शिक्षण-कौशलों का विकास करते हैं। जैसे प्रश्न पूछना,
पुनर्बलन.उदाहरण देना, उत्तर देना, व्याख्या करना, प्रेरणा प्रदान करना आदि।
(8) प्रतिपुष्टि-सूक्ष्म-शिक्षण के शिक्षण तथा पुनर्शिक्षण काल के बाद
शिक्षक-प्रशिक्षकों द्वारा अविलम्ब प्रतिपुष्टि प्रदान की जाती है। यह
प्रतिपुष्टि प्रदर्शन पाठ निश्चित वनिर्धारित शिक्षण कौशलों के सन्दर्भ में
हो सकती है।
(9) शिक्षण-समय-जिस शिक्षण-चक्र का पहले उल्लेख किया गया है उसे पूरा करने
में करीब 35-36 मिनट का समय लग जाता है। एक अध्यापक एक समय में एकपूरा चक्र
समाप्त करना पड़ता है।
सरल शब्दों में सूक्ष्म-शिक्षण के लिये निम्न प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है
(1) सबसे पहले शिक्षक-प्रशिक्षक तथा छात्राध्यापक मिलकर कुछ शिक्षण कौशलों को
परिभाषित करते हैं।
(2) छात्राध्यापक के सम्मुख शिक्षक प्रशिक्षक या कोई अन्य दक्ष व्यक्ति
सूक्ष्म-प्रशिक्षणविधि के द्वारा कुछ छात्रों को पढ़ा कर प्रदर्शन करता है
अथवा किसी भी चलचित्र द्वारा यह प्रदर्शन किया जा सकता है।
(3) छात्राध्यापक सूक्ष्म-पाठ योजनायें बनाना सीखते हैं।
(4) छात्राध्यापक वास्तविक रूप से 5-10 छात्रों की कक्षा को 5-6 मिनट के
कालांशमें कोई एक शिक्षण-बिन्दु पढ़ाता है तथा निरीक्षकगण उसके शिक्षण का
अवलोकन करते हैं।
(5) छात्राध्यापक ने जो कुछ पढ़ाया है उस पर वाद-विवाद व चर्चा होती है
अर्थात्छात्राध्यापक के शिक्षण की समालोचना की जाती है उससे छात्राध्यापक को
अपने शिक्षणकी कमजोरियों का पता चल जाता है।
(6) अपने पूर्व-शिक्षण की आलोचनाओं के प्रकाश में छात्राध्यापक दुबारा
सूक्ष्म-पाठयोजना बनाता है।
(7) दुबारा बनी पाठ-योजना के आधार पर छात्राध्यापक पुनःशिक्षण कार्य करता है
(8) पुनः शिक्षण की पुनः आलोचना की जाती है।
(9) इस प्रकार की आलोचनाओं के आधार पर छात्राध्यापक पुनः पाठ योजना बनाता है
और पुनः पढ़ाता है। यह क्रम उस समय तक चलता रहता है जब तक किछात्राध्यापक
पूर्व-निर्धारित शिक्षण-कौशलों का स्थायी रूप से विकास नहीं कर लेता है।
सम्भावित शिक्षण-कौशल-सूक्ष्म शिक्षण के द्वारा सामान्यतः जिन
शिक्षण-कौशलोंका विकास किया जा सकता है। एलन या रियान ने निम्न सूची दी है-
(1) उद्दीपक परिवर्तन
(2) व्यवस्था पूर्ति
(3) समाप्ति
(4) मौन तथा अशाब्दिक उपाय
(5) पुनर्बलन
(6) प्रश्न पूछना
(7) खोजपूर्ण प्रश्न
(8) विभिसारी प्रश्न
(9) प्रतिच्छित व्यवहार
(10) उदाहरण देना
(11) भाषण देना
(12) उच्च स्तरीय प्रश्न करना
(13) योजित पुनरावृत्ति
(14) विचार संचार
मेरठ विश्वविद्यालय के डॉ. आर. ए. शर्मा ने अपनी पुस्तक टेक्नोलोजी ऑफटीचिंग
में अग्रांकित बाइस सम्भावित शिक्षण-कौशलों का उल्लेख किया है-
(1) उद्दीपक परिवर्तन
(2) विन्यास प्रेरण
(3) समापन
(4) मौन तथा अशाब्दिक संकेत
(5) पुनर्बलन की दक्षता
(6) प्रश्नों में धारा प्रवाह
(7) खोज पूर्ण-प्रश्न
(8) व्यवहार पुनर्पहचान
(9) उदाहरण
(10) व्याख्या
(11) छात्र सहक्रिया
(12) उद्देश्य लेखन
(13) लेखन-पट प्रयोग
(14) कक्षा व्यवस्था
(15) श्रव्य-दृश्य सामग्री प्रयोग
(16) गृह-कार्य प्रदान करना
(17) समायोजन पाठ
(18) उत्तर स्तरीय प्रश्न
(19) विभिसारी प्रश्न
(20) भाषण देना
(21) योजित पुनरावृत्ति
(22) विचार संचार की पूर्णता
(सूक्ष्म शिक्षण के लाभ
(1) सूक्ष्म-शिक्षण शिक्षण-कौशल के विकास में होने वाले अपव्यय तथा जटिलताओं
को दूर करता है।
(2) सूक्ष्म-शिक्षण छात्राध्यापकों के कक्षाकक्ष व्यवहार को परिमार्जित करता
है।
(3) सूक्ष्म-शिक्षण की सहायता से उद्देश्य आधारित शिक्षण सम्भव है।
(4) सूक्ष्म-शिक्षण के द्वारा विभिन्न शिक्षण-कौशलों का विकास सरलता से किया
जाना सम्भव है।
(5) इससे पूर्व-सेवाकालीन एवं उत्तर-सेवाकालीन दक्षताओं का विकास सम्भव है।
(6) सूक्ष्म-शिक्षण के द्वारा अभिप्रेरण तथा पुनर्बलन का प्रयोग सम्भव है।
(7) सूक्ष्म-शिक्षण से शिक्षणाभ्यास का गुणात्मक विकास होता है।
(8) सूक्ष्म-शिक्षण द्वारा कक्षाकक्ष की परिस्थितियों का नियन्त्रण सम्भव है।
(9) वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा छात्राध्यापक को उसकी त्रुटियों का
प्रमाणउपलब्ध कराया जा सकता है।
(10) सूक्ष्म-शिक्षण के द्वारा प्रतिपुष्टि के द्वारा छात्राध्यापक को
शिक्षणाभ्यास कापरिमार्जन करने हेतु प्रेरित किया जा सकता है।
(11) सूक्ष्म-शिक्षण में अधिक सफल व विश्वसनीय पर्यवेक्षण हो सकता है।
(12) सूक्ष्म-शिक्षण वास्तविक तथा अभिरूपित दोनों ही प्रकार की परिस्थितियों
मेंसम्भव है।
(13) इससे छात्राध्यापक को प्रशिक्षण अधिक व्यक्तिनिष्ठ बनाता है।
(14) यह बृहत कक्षाकार दीर्घ समय तथा लम्चे पाठों से उत्पन्न जटिलताओं
वक्लिष्टताओं को दूर करता है।
(15) सूक्ष्म-शिक्षण समय व साधनों की दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक मितव्ययी
होताहै।
(16) सूक्ष्म-शिक्षण में छात्राध्यापक वीडियो टेप आदि के द्वारा अपनी
त्रुटियों कोस्वयं ही सप्रमाण देखकर उन्हें दूर करने के प्रयास करता है।
सूक्ष्म-शिक्षण की सीमाएँ
सूक्ष्म-शिक्षण की निम्नलिखित सीमायें या दोष हैं-
(1) लघु-कक्षा की परिस्थितियाँ वास्तविक कक्षा की परिस्थितियों से भिन्न होती
हैंइसलिए जो छात्राध्यापक सूक्ष्म-शिक्षण से कुछ शिक्षण कौशलों का विकास कर
लेते हैंतो उन कौशलों का वे वास्तविक कक्षा में सफलतापूर्वक नहीं कर सकते हैं
क्योंकि वास्तविक कक्षा की कक्षा-आकार समय तथा पाठ्यवस्तु के सन्दर्भ में
जटिलतायें अधिकहोती हैं। उदाहरण के लिए 5-10 छात्रों की कक्षा में अनुशासन
स्थापित करने हेतु अपनाई गई विधियाँ 50-60 छात्रों में सफलतापूर्वक कार्य
नहीं कर सकती है।
(2) सूक्ष्म शिक्षण से छात्राध्यापक वास्तविक शिक्षण की गहराइयों को नहीं छू
पाताहै।
(3) कुछ विद्वानों का मत है कि सूक्ष्म शिक्षण छात्राध्यापकों में
प्रभावोत्पादकता कापर्याप्त विकास नहीं कर पाता है।
(4) इसमें कौशलों व विषयवस्तु पर बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है।
(5) समय की दृष्टि से यह अधिक व्ययशाली है।
(6) सूक्ष्म-शिक्षण में छात्रों के मूल्यांकन, निदान तथा सधारात्मक शिक्षण का
कोई प्रावधान नहीं होता है।
2. दल-शिक्षण
(TEAM-TEACHING)
दल-शिक्षण की विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग शब्दों में एक ही भाव को
प्रदर्शितकरते हुए कई परिभाषाएँ दी हैं। दल-शिक्षण का अर्थ स्पष्ट करने के
उद्देश्य से नीचे कुछ विद्वानों की परिभाषायें दी जा रही हैं-
शैपलिन तथा ओल्ड-दल शिक्षण अनुदेशात्मक संगठन का वह प्रकार है जिसमें शिक्षण
प्रदान करने वाले व्यक्तियों को कुछ छात्र सुपुर्द कर दिए जाते हैं। शिक्षण
प्रदान करने वालों की संख्या दो या उससे अधिक होती है जिन्हें शिक्षण का
दायित्व सौंपा जाता है तथा जो एक छात्र-समूह को सम्पूर्ण विषयवस्तु या उसके
किसी महत्त्वपूर्ण अंग का एक साथ शिक्षण करते हैं।
कार्लो आलसन-यह एक ऐसी शैक्षणिक परिस्थिति है जिसमें अतिरिक्त ज्ञान व कौशल
से युक्त दो या अधिक अध्यापक पारस्परिक सहयोग से किसी शीर्षक के शिक्षण की
योजना बनाते हैं तथा एक ही समय में एक छात्र समूह को विशिष्ट अनुदेशन
हेतुलोचवान कार्यक्रम तथा सामूहिक विधियों का प्रयोग करते हैं।
दल-शिक्षण की विशेषताएँ
शैपलिन तथा ओल्ड ने दल-शिक्षण में निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं-
(1) दल-शिक्षण अनुदेशात्मक संगठन का एक विशिष्ट प्रकार है जो पूरी तरह से
औपचारिक होता है।
(2) दल-शिक्षण शिक्षक दल को सामूहिक उत्तरदायित्व प्रदान करता है।
(3) दल-शिक्षण में अध्यापक दल द्वारा अनौपचारिक ढंग से की गई
अनुदेशात्मकक्रियायें सम्मिलित की जा सकती हैं।
(4) अनुदेशात्मक व्यवस्था ऐसी होती है जो सम्पूर्ण विद्यालय व्यवस्था के
साथसमन्वित हो सके।
(5) दल-शिक्षण के लिये निश्चित संख्या में कुछ शिक्षण कर्मचारी होते हैं तथा
उन्हेंनिश्चित संख्या में कुछ छात्र अनुदेश हेतु प्रदान किये जाते हैं। इससे
शिक्षण कर्मचारियोंतथा छात्रों में एक विशिष्ट प्रकार के सम्बन्ध स्थापना पर
बल दिया जाता है
(6) दल-शिक्षण के लिए एक साथ दो या दो से अधिक अध्यापक कक्षाकक्ष मेंछात्रों
को अनुदेशन प्रदान करने जाते हैं।
(7) दल-शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत अनुदेशन पूरी तरह से पूर्व नियोजित
तथाव्यवस्थित होता है।
(8) प्रत्येक शिक्षक को कुछ सामूहिक तथा कुछ व्यक्तिगत उत्तरदायित्व
प्रदानकिये जाते हैं।
(9) सभी अध्यापक तथा अन्य शिक्षा कर्मचारी पूर्ण पारस्परिक सहयोग के साथकार्य
करते हैं।
(10) सभी अध्यापकों तथा शिक्षण कर्मचारियों के कार्य किसी एक विशिष्ट
पाठ्यवस्तु या उसके किसी एक महत्वपूर्ण अंग से सम्बन्धित अनुदेशन प्रदान करने
तक हीसीमित रहती है।
(11) कक्षा-कक्ष में गये सभी अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों की स्थिति पहले
से हीनिश्चित कर दी जाती है इनमें से किसी को एक संयोजक, किसी को वरिष्ठ
अध्यापक,किसी को अध्यापक तो किसी को कृनिष्ठ अध्यापक जैसी स्थितियाँ प्रदान
की जाती हैं।
(12) आवश्यकता पड़ने पर दल-शिक्षण हेतु विद्यालय के बाहर के कुछ विशेषज्ञोंकी
सहायता व सहयोग भी लिया जा सकता है।
(13) एक दल में कितने सदस्य हों, निश्चित नहीं होता है। दल शिक्षण
कीआवश्यकता-आधुनिक युग में दल-शिक्षण की दिनोंदिन आवश्यकता बढ़ती जा रही है।
इसके निम्नलिखित कारण हैं-
(1) शिक्षकों का अभाव-प्रथम और विशेष तौर पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद
शिक्षकों की संख्या में कमी आई। अनेक शिक्षक अच्छे वेतन प्राप्त करने की
दृष्टि सेअन्य व्यवसायों में चले गये जिनके स्थान पर अपेक्षाकृत कम योग्यता
वाले शिक्षक आये। इस प्रकार शिक्षकों का अभाव संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों
दृष्टकोणों से हुआ। इस अभाव को--विशेष तौर से गुणात्मक विकास को दूर करने
हेतु दल-शिक्षण कीआवश्यकता हुई।
(2) छात्र संख्या में वृद्धि-पिछले दशकों में कक्षाओं में छात्रों की संख्या
पर्याप्तमात्रा में बढ़ी है। जिन कक्षाओं में सामान्यतः 20-25 छात्र होते थे
आज उन्हीं कक्षाओं में60-65 छात्र पाये जाते हैं। एक अकेले अध्यापक के लिए
इतने छात्रों को सँभालना, अनुशासन में रखना तथा उनकी शैक्षिक आवश्यकताओं की
पूर्ति करना सम्भव नहीं है इसलिए आवश्यकता इस बात की अनुभव हुई कि कक्षा में
60-65 छात्रों का मुकाबला करने के लिए एक अकेले अध्यापक को न भेजा जाय, अपितु
कई अध्यापक मिलकर एक दल के रूप में कक्षा में जायें और छात्रों की शैक्षिक
आवश्यकताओं की पूर्ति करें।
(3) विज्ञान की प्रगति-विज्ञान की प्रगति का स्पष्ट प्रभाव शिक्षा कला पर
पड़ता है। विज्ञान ने शिक्षा जगत को आज विविध प्रकार के शिक्षण यन्त्र तथा
वैज्ञानिक उपकरण प्रदान किए हैं। कक्षा कक्ष में इनका प्रयोग अकेला अध्यापक
नहीं कर सकता है। उसे इनके प्रयोग के लिए लिपिक, टेकनीशियन तथा विद्युत
कर्मचारी आदि की आवश्यकता पड़ती है। इन व्यक्तियों की उपस्थिति के कारण
शिक्षक न केवल अपना कार्य अधिक सुगमता से ही करता है. अपितु उसके कारण शिक्षण
कार्य पर चिंतन करने के लिये अधिक समय, श्रम भी उपलब्ध हो जाता है।
(4) पाठ्यक्रमों में परिवर्तन-पिछले तीन चार दशकों में विश्व के प्रायः
प्रत्येकराष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। शिक्षा
जगत के इन परिवर्तनों में सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन पाठ्यक्रमों में हुआ
है। शैक्षणिक विषयों की संख्या बढ़ी है, नये-नये विषयों का विकास हुआ है,
विषयों में विशिष्टीकरण और भी सूक्ष्म हुआ है तथा विषयों का महत्त्व भी दब
गया है। पाठ्यक्रम के इस बदलाव के कारण शिक्षण भी कठिन हो गया। अब यह कठिन
लगता है कि एक शिक्षक इन नवीन तकनीकी विषयों काअकेला ही सफलतापूर्वक ज्ञान
प्रदान कर सकेगा।
(5) ज्ञान में वृद्धि-पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न विषयों से सम्बन्धित
ज्ञान में भीउल्लेखनीय वृद्धि हुई है। प्रत्येक विषय की व्याख्या व विवेचना
वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर ही की जाने लगी है। इतना ही नहीं आज ज्ञान
की खोज भी बड़ी तीव्र गति से हो रही है। इसलिए छात्रों को नवीनतम ज्ञान देने
की आवश्यकता होती है। एकअकेला शिक्षक अपने छात्रों को नवीनतम ज्ञान नहीं दे
सकता है. क्योंकि प्रत्येक अध्यापक के ज्ञान की मात्रा सीमित होती है। विषयों
के विशिष्टीकरण के कारण भी आज प्रत्येक अध्यापक का भी विशिष्टीकरण हो गया है।
दल-शिक्षण से विशिष्टीकृत ज्ञान प्रदत्त करने में सहायता मिलती है।
(6) नवीन शिक्षण-योजनाओं का विकास-विगत कुछ वर्षों से विभिन्न विद्वानों ने
कुछ विशिष्ट शिक्षण-योजनाओं का विकास किया। इनमें बिनेट का प्लान तथा डाल्टन
प्लान का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। इस प्रकार की शिक्षण योजनाएँ
व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षण कार्य करने पर बल देती हैं। अकेला
शिक्षक, न तो एक कक्षा के सभी छात्रों की व्यक्तित्व विभिन्नताओं का पता ही
कर सकता है और न यह उन सब की विभिन्नीकृत आवश्यकताओं की पूर्ति ही कर सकता
है। इसलिए कक्षा का उत्तरदायित्व एक साथ कई अध्यापकों को सौंपा जाता है।
(7) व्यक्तिगत विभिन्नताओं की स्वीकृति-मनोविज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्रों
में क्रान्ति ला दी है। इन्हीं क्षेत्रों में एक क्षेत्र व्यक्तिगत
विभिन्नताओं का है। अब बालक शिक्षा के लिए नहीं अपितु शिक्षा बालक के लिए है।
इस तथ्य के अनुसार बालक की जो योग्यताएँ, क्षमताएँ तथा प्रवृत्तियाँ आदि हैं
उसे उसी के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए। इसलिए आज औसत मन्द बुद्धि, तीव्र
बुद्धि तथा मेधावी आदि सभी प्रकार के बालकों के लिये पृथक्-पृथक् प्रकार की
शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। इन सब प्रकार के बालकों के लिये पृथक-पृथक्
प्रकार की शिक्षण-विधियाँ अधिक उपयुक्त होती हैं. इस उद्देश्य से भी
दल-शिक्षण आवश्यक हो गया है।
(8) शिक्षा तकनीकी का विकास-पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा-तकनीकी का विकासहोना
भी एक प्रमुख घटना है। इस सम्बन्ध में शैक्षिक दूरदर्शन का नाम विशेष रूप
सेलिया जा सकता है। शैक्षिक दूरदर्शन के अलावा अभिकृमित अधिगम का भी इन्हीं
वर्षों में विकास किया गया। इन सबके विकास का स्पष्ट प्रभाव विद्यालय-संगठन
पर पड़ा है। इन सबका उपयोगी ढंग से प्रयोग हो सके, इसके लिए दल-शिक्षण
अनिवार्य है। फोर्ड फाउन्डेशन के एक प्रतिवेदन में इस सम्बन्ध में कहा गया है
शैक्षिक दक्षताओं का प्रयोग दल शिक्षण की सहायता से सरल हो गया है।
दल के सदस्य-दल-शिक्षण के लिए अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों के लिए एक दल
की आवश्यकता होती है इस दल में कुल कितने सदस्य हों तथा कौन-कौन सदस्य हों,
यह बहुत कुछ विद्यालय के स्तर, विद्यालय के पास उपलब्ध साधन तथा विषय-वस्तु
की विशेषता पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए एक साधनहीन प्राथमिकविद्यालय
में दो या तीन अध्यापक ही दल का गठन कर लेते हैं, जबकि किसी साधन-सम्पन्न
उच्च माध्यमिक विद्यालय में कई श्रेणी के अध्यापक बिजली-मिस्त्री, तकनीकी
व्यक्ति तथा एक दो लिपिकीय कर्मचारी मिलकर दल का गठन कर सकते हैं। जिन
व्यक्तियों के पास साधन उपलब्ध होते हैं, वहाँ दल निम्नलिखित व्यक्तियों का
दल गठित किया जाता है-
(1) प्रधानाध्यापक,
(2) दल संयोजक
(3) वरिष्ठ अध्यापक,
(4) कनिष्ठअध्यापक,
(5) प्रयोगशाला सहायक,
(6) लिपिक,
(7) शरीर शिक्षा अध्यापक,
(8) कलाअध्यापक तथा व संगीत अध्यापक ।
इसमें भी यह बहुत कुछ उपलब्ध साधनों पर निर्भर करता है कि विभिन्न स्तरों के
अध्यापकों की संख्या कितनी हो। संयोजक दो या तीन भी हो सकते हैं जो विभिन्न
क्षेत्रों से सम्बन्धित कार्यों का समन्वय करेंगे। इसी प्रकार वरिष्ठ व
कनिष्ठ अध्यापकों की संख्या भी कम या अधिक हो सकती है। दल-शिक्षण व्यवस्था
में दल के विभिन्न सदस्यों की क्या स्थिति रहती है इसका निर्धारण करने के लिए
विभिन्न विद्वानों प्रशासकों तथा विद्यालयों ने अपने-अपने प्रारूप विकसित कर
रखे हैं। नीचे लैवि-संगठन शिक्षण दल प्रारूप का एक ऐसा ही नमूना दिया गया है।
यह प्रारूप सैपलिन तथा ओल्ड ने अपनी पुस्तक टीक टीचिंग में दिया है।
1.(1) लघुरूप
लघुरूप
इसमें TL-Team Leader (दल संयोजक).
ST-Senior Teacher (वरिष्ठ) (अध्यापक)
T = Teacher (अध्यापक)
TA = Teacher Aide (अध्यापक सहायक) तथा
CA= Clerical Aide (लिपिकीय सहायक)
(2) बृहत रूप बड़े विद्यालयों के लिये लैवि-संगठन शिक्षा दल के एक बृहत
प्रारूप का भी विकास किया गया। यह प्रारूप नीचे दिया जा रहा है
PRINCIPAL
Specialist in Phy. Edu
Spécialist in Art
Specialist in Music
Team Leader
Senior Teacher
Teacher
Teacher Aide
Clerical Aide
इस प्रारूप में दल का गठन सीधे प्राचार्य की देखरेख में हुआ है तथा तीन
संयोजक हैं जो पृथक-पृथक क्षेत्रों से सम्बन्धित मामलों का संयोजन करेंगे तथा
प्रत्येक संयोजक को एकाधिक वरिष्ठ अध्यापक दिए गये हैं। जहाँ तक भारतीय
विद्यालयों का प्रश्न है यहाँ आर्थिक तथा व्यवस्थागत कारणों से इतने बृहत
स्तर के दलों का गठन नहीं किया जा सकता है। भारतीय विद्यालयों में लघु-आकार
के दल ही गठित किए जासकते हैं। इन लघु-दलों में एक दल नेता, एक दो सहयोगी
अध्यापक तथा एक दो सहायक रखे जा सकते हैं। दल नेता तो कुछ भी विषयवस्तु पढ़ा
रहा है उसमें सम्बन्धित विषयानुसार आवश्यक मात्रा में सहयोगी अध्यापकों की
आवश्यकता पड़ेगी तथा एक लिपिक तथा एक ऐसे चपरासी की आवश्यकता पड़ेगी जो थोड़ा
बहुत बिजलीका काम भी जानता हो। यही व्यक्ति श्रव्य-दृश्य सामग्री का दल नेता
के निर्देशानुसार प्रयोग करेगा। इस दल के प्रारूप का हम निम्न प्रकार से
व्यक्त कर सकते हैं-
विभिन्न विषयों से सम्बन्धित सहयोगी शिक्षक दल नेता प्रमुख
शिक्षक लिपिकीय सहायक सामान्य सहायक
छात्र
दल शिक्षण के लाभ-दल-शिक्षण के निम्नलिखित लाभ हैं-
(1) अनुदेशन में वृद्धि-दल-शिक्षण के अन्तर्गत एक साथ कक्षा में कई अनुभवी
वप्रतिष्ठित अध्यापक जाते हैं। इतने अध्यापकों के होते कक्षा में
अनुशासनहीनता की समस्या उत्पन्न नहीं होती है।
(2) विशिष्टीकृत अनुदेशन सम्भव-दल-शिक्षण के अन्तर्गत विभिन्न विषयों
तथाकार्यों के विशिष्ट अध्यापक तथा व्यक्ति दल का गठन करते हैं। ये विशिष्ट
व्यक्ति अपने-अपने विषयों से सम्बन्धित विशिष्ट अनुदेशन प्रदान करते हैं।
इससे छात्रों को विभिन्न विषयों की आधुनिकतम जानकारी प्राप्त होती है।
(3) वार्ताओं के लिए अवसर-दल-शिक्षण में वाद-विवाद को प्रमुख स्थान दिया जाता
है। इससे छात्रों तथा अध्यापकों को विषय सम्बन्धी उपयोगी वार्ता करने का अवसर
मिलता है।
(4)नियोजित शिक्षण संभव-दल-शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत जब दल के
सदस्यकक्षाकक्ष में शिक्षण हेतु आते हैं तो अपने विभिन्न कार्यों तथा
विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरणकी पूरी तरह योजना बना लेते हैं। इससे नियोजित
शिक्षण सम्भव है।
(5) अव्य-दृश्य सामग्री का उचित प्रयोग-दल-शिक्षण व्यवस्था के
अन्तर्गतश्रव्य-दृश्य सामग्री का अधिक प्रयोग करना सम्भव होता है। अतः इस
प्रकार की सामग्रीके समस्त लाभ दल-शिक्षण को भी प्राप्त होते हैं।
(6) मानवीय सम्बन्धों की स्थापना-दल-शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत छात्र
तथाशिक्षकों के मध्य अधिक निकट सम्बन्ध स्थापित होने की सम्भावना होती है।
इससे छात्रोंका सन्तुलित सामाजिक विकास सम्भव होता है।
(7) लोचनशीलता-दल-शिक्षण के सभी कार्यों में लोच होती है। यह एक अध्यापक तथा
कर्मचारी वर्ग तथा सहायक सामग्री तथा अन्य व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में अधिक
लोचवान नीति अपनाती है।
(8) शिक्षकों के ज्ञान में वृद्धि-दल-शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षक को
नकेवल छात्रों की उपस्थिति में पढ़ाना पड़ता है अपितु उन्हें अन्य अध्यापकों
तथाकर्मचारियों की उपस्थिति में भी पढ़ाना पड़ता है।
दल-शिक्षण की सीमाएँ
एक ओर दल-शिक्षण के इतने सारे गुण या लाभ हैं वहीं दूसरी ओर इसकी अपनी कुछ
सीमायें तथा दोष भी हैं। नीचे इन्हीं सीमाओं का उल्लेख किया है-
(1) सहयोग की भावना अनिवार्य-दल-शिक्षण की सफलता इस बात पर निर्भरकरती है कि
दल के सभी सदस्य परस्पर सहयोग की भावना से कार्य करें। सामान्यतया दल के
सदस्यों में वांछित मात्रा में सहयोग की भावना कम ही पायी जाती है।
परिणामस्वरूप दल-शिक्षण अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं रहता
है।
(2) स्वतन्त्र शिक्षण का हनन-कुछ ऐसे सफल शिक्षक होते हैं जो अकेले ही बहुत
ही प्रभावी शिक्षण अपने छात्रों को प्रदान करते हैं। दल-शिक्षण ऐसे सफल
शिक्षकों को निराश करती है क्योंकि यहाँ वे सफल शिक्षण का श्रेय स्वयं नहीं
ले पाते हैं।
(3) समन्वय स्थापना में कठिनाई-तीव्र व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण अनेकबार
दल संयोजक को विभिन्न शिक्षकों तथा अन्य कर्मचारियों के कार्यों में समन्वय
करने में कठिनाई हो जाती है। इनके कार्यों में जब तक समन्वय नहीं होगा तब तक
दल-शिक्षण सफल नहीं हो सकता है।
(4) आर्थिक भार-दल-शिक्षण के लिये विद्यालय को अनेक प्रकार की व्यवस्थायें व
साधन जुटाने पड़ते हैं। परिणामस्वरूप इन पर काफी व्यय विद्यालय को करना पड़ता
है। इससे उन पर आर्थिक भार अधिक हो जाता है।
(5) अतिरिक्त व्यवस्था की आवश्यकता-दल-शिक्षण के लिये न केवल अतिरिक्त धन की
ही आवश्यकता पड़ती है अपितु कुछ अन्य अतिरिक्त व्यवस्थायें भी करनी पड़तीहैं
जिनके लिये बहुत अधिक मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती है। जैसे दल-शिक्षण के
लिये काफी बड़े-बड़े कमरों की आवश्यकता पड़ती है।
कुछ सुझाव
दल-शिक्षण को सफलता प्रदान करने के लिये कुछ बातें आवश्यक होती हैं। इन बातों
को सुझाव के रूप में नीचे दिया जा सकता है-
(1) दल का गठन-दल-शिक्षण के लिये दल का गठन बड़ी सावधानी से करनाचाहिये। दल
के सदस्यों का चुनाव करते समय निम्न बातें ध्यान में रखी जायें-
(i) दल के सदस्य विभिन्न विषयों से सम्बन्धित हों।
(ii) उनकी क्षमतायें तथा योग्यतायें पृथक-पृथक हों।
(iii) दल के विभिन्न सदस्यों की स्थिति को सुनिश्चित क्रम दिया जाय।
(iv) प्रत्येक सदस्य के दायित्व सदस्य को स्पष्ट हो।
(v) प्रत्येक सदस्य के कार्यों में समन्वय स्थापित किया जाय।
(2) पर्याप्त व्यवस्था-दल-शिक्षण के लिए पर्याप्त बड़े कमरे, सहायक सामग्री
तथाअन्य वस्तुओं तथा उपकरणों की पूर्ण व्यवस्था पहले से ही कर लीजिए।
(3) व्यवस्थित नियोजन-दल-शिक्षण का कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व विषयवस्तु
पाठ सामग्री आदि की पूर्ण व्यवस्थित योजना पहले से ही बना लेनी चाहिए।
(4) समय तत्त्व का निधारण-दल-शिक्षण में समय तत्त्व का भी पर्याप्त महत्व
होता है अतः सभी क्रियाओं का निर्धारण समय तत्त्व के संदर्भ में कर लेना
चाहिये तथा प्रत्येक क्रिया के लिए समय निश्चित कर देना चाहिए। इस हेतु
सुविचार समय चक्र बना लेना ठीक रहता है।
(5) निरीक्षण की व्यवस्था सम्पूर्ण दल तथा दल के प्रत्येक सदस्य के कार्य की
न केवल निरीक्षण करने की ही व्यवस्था हो अपितु उनके कार्यों का मूल्यांकन
करने की भी व्यवस्था कर लेनी चाहिए। मूल्यांकन के द्वारा दल शिक्षण की सफलता
का भी मूल्यांकन करना चाहिए।
संक्षेप में आज कक्षाओं, छात्रों की विशेषताओं तथा विषयों के बाहुल्य तथा
कठिनाई स्तर को देखते हुये कहा जा सकता है कि दल-शिक्षण आज भी आवश्यकता तथा
अनिवार्यता है किन्तु हमें यह देखना है कि दल-शिक्षण को गम्भीरता के साथ लिया
जाय और दल में केवल वही शिक्षक तथा अन्य कर्मचारी सम्मिलित किये जायें जो
अपना पूर्ण सहयोग प्रदान कर सकते हैं। यह बहुत कुछ दल के नेता पर भी निर्भर
करता है कि वह अन्यों का किस प्रकार तथा किस सीमा तक सहयोग प्राप्त कर सकता
है। अतःनेता ऐसा हो जिसमें यथेष्ठ मात्रा में नेतृत्व गुण हो।
3. अभिक्रमित अनुदेशन
(PROGRAMMED INSTRUCTIONS)
सुसान मार्कल ने अभिक्रमित अध्ययन की परिभाषा देते हुए लिखा है अभिक्रमित
शिक्षा के अंतर्गत छात्र जिस विषय को सीखता है, उसके सीखने की क्षमता के
विकास को उस विषय के बारे में उसकी प्रतिक्रियाओं से मापा जा सकता है। इस
प्रकार छात्र के सीखने के वे तरीके जिनके कारण उसे सीखने में सफलता मिली है,
उन्हें बारम्बार प्रयोग किया जा सकता है। संक्षेप में यह शिक्षण प्रदान करने
की व्यक्तिनिष्ठ पद्धति है जिसमें छात्र अत्यन्त सक्रियता और अपनी गति के
अनुसार अधिगम करता है और साथ ही अपने प्रयासों के परिणामों को जानते हुए सीखे
हुए विषय की प्रतिपुष्टि भी करता चलता है। इस प्रकार के स्व-अनुदेशन
में शिक्षक की उपस्थिति अनिवार्य नहीं होती है।
अभिक्रमित अधिगम की विशेषताएँ
(1) अभिक्रमित अधिगम पाठ्यवस्तु को अत्यन्त ही तार्किक एवं नियंत्रित
लघुखण्डों में विभक्त करके छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करती है।
(2) यह श्रव्य-दृश्य साधनों का प्रयोग न होकर अनुदेशन तकनीकी का एक अंग है।
(3) यह छात्रों के अपनी स्वयं की क्षमताओं, योग्यताओं तथा गति से अध्ययन करने
के अवसर प्रदान करती है। यह अधिगम की अत्यन्त ही व्यक्तिनिष्ठ पद्धति है।
(4) यह छात्रों को स्वः मूल्यांकन के अवसर प्रदान करती है किन्तु यह कोई
मूल्यांकन विधि नहीं है वरन यह अत्यन्त ही आधुनिक शिक्षण कौशल है।
(5) यह उद्देश्य आधारित शिक्षण पद्धति है जिसमें पाठ्य-पुस्तक कुछ विशिष्ट
उद्देश्यों को ध्यान में रखकर प्रस्तुत की जाती है।
(6) यह छात्रों के सम्मुख विषयवस्तु की समस्या के रूप से प्रस्तुत करती है
किन्तु यह समस्या समाधान पद्धति नहीं है वरन् यह अनुदेशन समस्याओं का एक नया
रूप है जिसका प्रमुख उद्देश्य छात्र व्यवहारों में वांछित परिवर्तन लाना है।
(7) यह छात्रों को आन्तरिक तथा बाह्य सक्रियता प्रदान करने की एक विधि है
जिससे छात्र अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया में अत्यन्त ही सक्रिय रहते हैं।
(8) यह पद्धति शिक्षण प्रक्रिया में अध्यापक उपस्थिति की अनिवार्यता को
कम.करती है।
(9) सफल शिक्षण सफल अभिक्रमिकों पर निर्भर करती है।
अभिक्रमित अधिगम के सिद्धान्त-अधिगम को इस नवीन पद्धति का सामान्य परिचय
प्राप्त कर लेने के उपरान्त अब हम इसके प्रमुख सिद्धान्तों की चर्चा
करेंगे।अभिक्रमिक अधिगम के निम्नलिखित सिद्धान्त हैं-
(1) लघु सोपानों का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के अनुसार जिस विषयवस्तु का अधिगम
करना है उस विषय-वस्तु का विस्तृत विश्लेषण कर लिया जाता है तथा सम्पूर्णविषय
को छोटे-छोटे खण्डों में विभक्त कर दिया जाता है। विषय-वस्तु को लघु खण्डों
में विभाजित करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि प्रत्येक विभाजित खण्ड का कोई
अर्थ हो तथा प्रत्येक खण्ड अधिगमकर्ता को कोई नवीन ज्ञान या सूचना देने की
योग्यता रखता हो। तकनीकी भाषा में अभिक्रमित अधिगम के इन लघु खण्डों को फ्रेम
के नाम से पुकारा जाता है। छात्र अत्यन्त सक्रियता के साथ एक समय में एक
फ्रेम को सीखता है। यहाँ यह विशेषता होती है कि छात्र जब तक एक फ्रेम को नहीं
सीख लेगा तब तक आगे का फ्रेम नहीं सीखा जा सकता है।
(2) प्रतिपुष्टि का सिद्धान्त-इसे सम्पुष्टि का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस
सिद्धान्त के अनुसार अधिगमकर्ता को तुरन्त ही उसके प्रत्युत्तरों की शुद्धता
या अशुद्धता का ज्ञान कराकर उसकी प्रतिपुष्टि या सम्पुष्टि कर दी जाती है।
अभिक्रमक तुरन्त ही छात्र के परिणामों का ज्ञान प्रदान करता है। यदि उसका
प्रत्युत्तर सही है तो छात्र कोआगे का फ्रेम' सीखने के लिए दे दिया जाता है।
प्रत्युत्तर गलत होने पर उसी फ्रेम परपुनः कार्य करने को कहा जाता है।
(3) सक्रिय प्रत्युत्तर का सिद्धान्त-अभिक्रमित अध्ययन के इस सिद्धान्त के
अनुसार छात्र को फ्रेम का अधिगम करने में अत्यन्त ही सक्रियता से कार्य करना
चाहिए तथा जब भी फ्रेम पूरा हो जाय उसे तुरन्त ही प्रत्युत्तर प्रदान करना
चाहिए। उसके द्वारा प्रत्युत्तर ही उसकी सफलता तथा असफलता का द्योतक होता है।
अभिक्रमित अध्ययनपद्धति की मान्यता है कि छात्र तभी अच्छा सीखता है जब वह
सक्रिय रहकर सीखी विषयवस्तु का प्रत्युत्तर प्रदान करे।
(4) स्वगति का सिद्धान्त-अभिक्रमित अधिगम सीखने के पूर्णरूपेण
व्यक्तिनिष्ठपद्धति है इसलिए इस पद्धति में प्रत्येक छात्र को यह अवसर प्रदान
किया जाता है कि वह अपनी योग्यता, दक्षता तथा कौशल के अनुसार धीरे-धीरे या
जल्दी-जल्दी अधिगम कर सके यहाँ जब तथा जितनी देर में छात्र एक फ्रेम को सीखकर
उसका सहीप्रत्युत्तर दे देगा, तभी उसे आगामी फ्रेम सीखने को दिया जायेगा। यदि
वह जल्दी-जल्दी सीखता है तो उसे फ्रेम भी उसी गति से दिये जायेंगे।
(5) छात्र परीक्षण का सिद्धान्त-अभिक्रमित अधिगम का यह पाँचवाँ सिद्धान्त है,
इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक अपने छात्रों का समय-समय परीक्षण करता
है।अभिक्रमित पद्धति अधिगम के अन्तर्गत प्रत्येक छात्र फ्रेम का लिखित उत्तर
देता है।शिक्षक 50 उत्तरों की जाँच करता है। इस जाँच से वह छात्र की
कमजोरियों का पता लगाता है तथा उन्हें दूर करने के लिए नये फ्रेमों का
निर्माण करता है।
इन सिद्धान्तों के अनुसार अधिगम करते समय छात्रों को इन पाँच क्रियाओं से
गुजरना पड़ता है-(
1)पहले वह “फ्रेम को पढ़ता है
(2) फिर फ्रेम का प्रत्युत्तर लिखताहै
(3) उसके बाद अपने प्रत्युत्तर की जाँच करता है, यहाँ पर ही प्रतिपुष्टि होती
है,
(4) इसके बाद वह आगे बढ़ता है और
(5) अन्त में वह अपने प्रत्युत्तरों का प्रतिवेदनरखकर जाँच हेतु प्रस्तुत
करता है।
इसे हम निम्न प्रकार से लिख सकते हैं-
Reads--> Writes--> Checks--> Advances--> Records
पढ़ता है--> लिखता है--> जाँचता--> आगे बढ़ता है--> प्रतिवेदन
करता है
अभिक्रमित अधिगम के उद्देश्य-अभिक्रमित अधिगम का विकास सामान्यतः निम्नलिखित
उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए किया गया-
(1) करके सीखने का उद्देश्य-अब यह स्थापित हो चुका है कि स्वयं करके सीखा गया
ज्ञान अधिक स्थायी व प्रभावी होता है। इसलिए अभिक्रमित अधिगम पद्धति यह
चेष्टा करती है कि छात्र की इस प्रकार से सहायता की जाय कि वह उसे करके सीखने
के अधिकाधिक अवसर प्राप्त हों। संक्षेप में, अभिक्रमित अधिगम का प्रथम
उद्देश्य छात्रों को ऐसे अवसर प्रदान करना है जिनसे वह करके सीखे।
(2) स्वगति का उद्देश्य-अभिक्रमित अधिगम पद्धति अधिगम की शुद्ध
व्यक्तिनिष्ठ-पद्धति है अतः छात्रों के ऐसे अवसर प्रदान करने की चेष्टा करती
है जिनसे वह अपनी गति से आगे बढ़ सकें। इस प्रकार अभिक्रमित अधिगम का दूसरा
उद्देश्य छात्रों को अधिगम हेतु ऐसे अवसर प्रदान करना है जिसमें वह अपनी
योग्यताओं, दक्षताओं तथाक्षमताओं के अनुसार अधिगम की गति बनाए रखे।
(3) अध्यापक उपस्थिति की समाप्ति-अभिक्रमित अधिगम पद्धति का तीसराउद्देश्य
छात्रों को ऐसे अवसर विषय वस्तु तथा परिस्थितियों प्रदान करना है
जिनकेअन्तर्गत वह अध्यापक की अनुपस्थिति में भी बिना किसी कठिनाई के न केवल
ज्ञान हीप्राप्त कर सके, अपितु अपने प्राप्त ज्ञान की जाँच भी करता चले और
आगामी विषय वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रेरित भी होता रहे।
(4) तार्किक तथा नियोजित ढंग से विषय वस्तु का प्रस्तुतीकरण-अभिक्रमित अध्ययन
का एक उद्देश्य यह भी है कि छात्रों के सम्मुख पाठ्य-वस्तु को अत्यन्त ही
तार्किकनियन्त्रित नियोजित तथा क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाय। इससे
छात्र न केवल क्रमबद्धज्ञान ही प्राप्त करते हैं अपितु के तार्किक विधि से भी
ज्ञान प्राप्त करते हैं।
(5) स्वमूल्यांकन का उद्देश्य-अभिक्रमित अधिगम का विकास इस उद्देश्य से
कियागया कि छात्र अपने अधिगम का स्वयं ही मूल्यांकन कर सके। छात्र को न केवल
अपनीनिष्पत्तियों का ही पता चलता है वरन् वह अपनी निष्पत्तियों का साथ ही साथ
मूल्यांकनभी करता चलता है और अभिक्रमित अधिगम इस कार्य हेतु उन्हें अवसर
प्रदान करने कीचेष्टा करता है।
अभिक्रमित-अधिगम वस्तु का निर्माण-हम ऊपर अध्ययन कर चुके हैं किअभिक्रमित
अधिगम के लिए पाठ्य-वस्तु को तार्किक एवं क्रमबद्ध रूप से अर्थ पूर्ण
लघुखण्डों में विभक्त करना पड़ता है। इस कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने
के लिएकुछ निश्चित सोपानों या चरणों की आवश्यकता पड़ती है। इन विभिन्न
सोपानों को हमआगे लिखे वर्ग तथा उपवर्गों में विभक्त कर सकते हैं-
1. तैयारी
(1) इकाइयों या शीर्षक का चयन
(2) छात्र के सम्बन्ध में मान्यता निर्धारण
(3) उद्देश्य लेखन
(4) कसौटी परीक्षण निर्माण
(5) पाठ्य-वस्तु का विकास
2. अभिक्रमिक लेखन
(1) फ्रेम लेखन
(2) फ्रेम तारतम्यता निर्धारण
(3) अनुदेशन कौशल का निर्धारण
3. परीक्षण तथा पुनरावृत्ति का मूल्यांकन
नीचे इन सभी सोपानों का सामान्य परिचय दिया जा रहा है-
(1) इकाई अथवा शीर्षक चयन-अभिक्रम का निर्माण करने के लिए सर्वप्रथम किसी
इकाई अथवा शीर्षक का चयन किया जाता है, जिसमें से फ्रेम बनाने हैं।
प्रारम्भिक अवस्था में छोटी या सरल इकाई तथा शीर्षक का चयन किया जाना चाहिए।
इस सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य ध्यान में रखना चाहिए-
(1) जिस इकाई या शीर्षक का चयन किया जाय, अभिक्रम बनाने वाले को उसकाविस्तृत
ज्ञान होना चाहिये।
(2) चयनित शीर्षक सरल तथा रोचक हो।
(3) चयनित शीर्षक ऐसा हो जिसका लघु-खण्डों में विभाजन सम्भव हो।
(4) शीर्षक अधिक लम्बा न हो, प्रारम्भ में छोटी-छोटी इकाइयाँ ली जायें।
(5) विषय-वस्तु तार्किक रूप में प्रस्तुत की जाय।
(2) छात्र सम्बन्धी योग्यतायें-अभिगम के लिये फ्रेमों का निर्माण करने से
पूर्व छात्रोंके सम्बन्ध में आवश्यक मान्यतायें ज्ञात कर लेनी चाहिए। उदाहरण
के लिए छात्रों की आयु रुचि पूर्व-ज्ञान, उनकी योग्यताएँ आदि बातों का
निर्धारण कर लेना चाहिए। इस प्रकार छात्रों की भाषा तथा उसका स्तर आदि का भी
अभिक्रमिक हो ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए।
(3) उद्देश्य-निर्धारण-अभिक्रमों के निर्माण में उद्देश्य-निर्धारण बड़ा ही
महत्त्वपूर्ण है।अभिक्रमों के निर्माण से पूर्व उद्देश्यों का निर्धारण
आवश्यक रूप से कर लेना होता है क्योंकि अभिक्रम के द्वारा इन्हीं उद्देश्यों
को प्राप्त करने के प्रयास किये जाते हैं। इन उद्देश्यों से ही अभिक्रम के
इरादों का पता चलता है और यही उद्देश्य अभिक्रम के स्तर का निर्धारण करते
हैं। यहाँ उद्देश्यों का निर्धारण सदैव व्यवहार परिवर्तन के सन्दर्भ में किया
जाता है। अतः केवल ज्ञानात्मक कौशलात्मक आदि कहने से काम नहीं चलता है,
उद्देश्य स्पष्टीकरण के साथ हों।
(4) कसौटी परीक्षण का निर्माण-कसौटी परीक्षण के द्वारा हम यह पता करते हैं कि
छात्र ने व्यवहारगत उद्देश्यों को प्राप्त कर लिया है अथवा नहीं। यह हमारे
अभिक्रम की सफलता की मात्रा भी बतलाता है। यदि अभिक्रम पूर्णरूपेण सफल है तो
छात्र सौ प्रतिशत अंक प्राप्त करेगा। यदि प्राप्तांकों का प्रतिशत घटता है तो
उसी के अनुसार अभिक्रमिक की सफलता घटती जाती है। कसौटी का अच्छा परीक्षण वह
है जो व्यवहारों की सार्वभौमिकता का प्रतिनिधित्व करे इसमें विभेदकारिता तथा
वस्तुनिष्ठता के दो प्रमुखगुण होते हैं।
(5) विषय-वस्तु का विकास-अभिक्रम की तैयारी का यह अन्तिम चरण है। इस चरण में
विषय-वस्तु की व्याख्या तथा विश्लेषण किया जाता है, तथा उसके आधार
परविषय-वस्तु का एक सुविधाजनक ढाँचा तैयार किया जाता है। स्तर पर ही
विषय-वस्तु,उदाहरण कथन, रेखाचित्र, चित्र तथा अन्य सहायक सामग्री की व्यवस्था
कर लेनी चाहिए।
(6)अभिक्रम लेखन-इस अवस्था पर फ्रेमों को लिखा जाता है, फ्रेमों को लिखने
सेपूर्व प्रस्तावना के रूप में भी प्रारम्भ में कुछ लिखना चाहिए। फ्रेम
एक विषय-वस्तु से सम्बन्धित हो तथा तार्किक ढंग से एक क्रम में रखे जायें।
वास्तव में देखा जाय तो हम कह सकते हैं कि सम्पूर्ण अभिक्रम की सफलता इन
क्रमों पर ही निर्भर करती है। फ्रेम से हमारा तात्पर्य विषय-वस्तु के उस
अर्थपूर्ण छोटे से भाग से
भाग से है जिस पर छात्र एक समय में विचार व चिंतन करता है। प्रत्येक फ्रेम के
तीन अंग होते हैं-
(1) उद्दीपक परिस्थितियाँ
(2) अनुक्रिया तथा
(3) प्रतिपुष्टि।
प्रथम अंग में विषय-वस्तु प्रस्तुत की जाती है, द्वितीय स्तर पर छात्र वांछित
अनुक्रियायें प्रस्तुत करता है तथाअन्तिम स्तर में छात्र को अपनी अनुक्रियाओं
की शुद्धता का पता चलता है। इससे वह प्रतिपुष्टि प्राप्त करता हैं तथा उसी के
आधार पर छात्र आगामी फ्रेम पर जाता है। एक अच्छे फ्रेम में साधारणतया चार गुण
होते हैं-
(1) भाषा सम्बन्धी स्पष्टता,
(2) उपयुक्त प्रक्रियाओं की सम्भावना,
(3) प्रेरणा तथा उद्दीपन प्रदान करने के गुण तथा
(4) सुसंगठन।
फ्रेमों की रचना करते समय अभिक्रमिक को ध्यान में रखना चाहिए कि वह यदि100
फ्रेम बनाता है तो उसमें करीब 12-15 फ्रेम प्रस्तावनात्मक हों, 65-70 के करीब
शिक्षणात्मक फ्रेम हों तथा 22-25 के करीब परीक्षणात्मक फ्रेम होने चाहिए।
फ्रेम लिखने के बाद उन्हें एक क्रम प्रदान किया जाता है यह क्रम या तो
तार्किक हो सकता है अथवा प्रायोगिक।
फ्रेमों के लेखन के बाद समस्या यह आती है कि इन सभी फ्रेमों को छात्रों के
सम्मुख किस प्रकार प्रस्तुत किया जाए तथा किस प्रकार कौशल से छात्रों
कीअनुक्रियाओं की जाँच की जाय, प्रतिपुष्टि की जाँच या छात्रों के कार्यों का
मूल्यांकन किया जाय।
(7) मूल्यांकन-अभिक्रम विकास का अन्तिम चरण परीक्षण तथा पुनरावृत्ति
यामूल्यांकन है। इस चरण के बाद ही यह पता चलता है कि क्या अभिक्रम विश्वसनीय
है.क्या वे वैध हैं तथा क्या उनकी भाषा. तथा विषय-वस्तु में उपयुक्तता है।
यदि ऐसा नहींहै तो अभिक्रम के फ्रेमों में आवश्यक संशोधन करना होता है। इस
कार्य के लिएअभिक्रमिक साधारणतया तीन कार्य करता है-
(1)वह अपने अभिक्रम का एक बार पुनः अवलोकन करता है।
(2)अभिक्रमिक अपने अभिक्रम की पाँच-सात विद्वानों के पास उनकी सहमति व
सुझावों के लिए भेजता है अथवा
(3) थोड़े से छात्रों को अपने अभिक्रम देकर उनसे अनुक्रियाएँ प्राप्त कर उसकी
जाँच करता है। इन तीनों क्रियाओं के परिणामों के आधार पर अभिक्रमित फ्रेमों
मेंआवश्यक संशोधन करता है।
फ्रेमों का लेखन-अभिक्रमिक अधिगम के लिए यह आवश्यक है कि उपयुक्त प्रकार के
अच्छे फ्रेमों की रचना की जाय क्योंकि अन्ततोगत्वा ये फ्रेम ही हैं जिनको
पढ़कर छात्र सीखता है। फ्रेमों की रचना करते समय निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान
में रखनाचाहिये-
(1) फ्रेमों में तारतम्यता होनी चाहिए।
(2) फ्रेम-समूह किसी एक विशिष्ट उद्देश्य तथा इकाई के लघु-खण्ड से सम्बन्धित
हो।
(3) फ्रेमों की भाषा सरल, शुद्ध, स्पष्ट तथा प्रेरक होनी चाहिए।
(4) फ्रेमों में वर्णित अनुक्रिया स्पष्ट तथा सम्बन्धित होनी चाहिए।
(5) जहाँ तक सम्भव हो अधिक विकल्प न दिये जायें।
(6) प्रत्येक फ्रेम किसी एक उद्देश्य की प्राप्ति का प्रयास करे।
(7) प्रत्येक फ्रेम आगामी फ्रेम के लिए प्रस्तावना या भूमिका तैयार करे
अर्थात्प्रत्येक फ्रेम का प्रत्युत्तर मापनीय हो।
(8) प्रत्येक फ्रेम की स्वतः ही प्रतिपुष्टि की जा सके।
(9) एक फ्रेम एक ही' अनुक्रिया से सम्बन्धित हो।
फ्रेमों के कुछ उदाहरण-अभिक्रमित अध्ययन के लिए फ्रेम किस प्रकार बनाये जाते
हैं। यह स्पष्ट करने के लिए फ्रेमों के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं-
विषय-अर्थशास्त्र वाणिज्य।
इकाई-आवश्यकतायें।
शीर्षक-आवश्यकताओं के प्रकार।
(1) इच्छायें-प्रत्येक व्यक्ति की अनगिनत व असीमित इच्छायें होती हैं इसलिए
हम कह सकते हैं कि इच्छायें ........होती हैं।
(2) आवश्यकता-वही इच्छा आवश्यकता कहलाती है जिसकी पूर्ति हेतु व्यक्तिचेष्टा
करे। उसके पास पूर्ति के साधन हों तथा उन साधनों का उसकी पूर्ति हेतु
प्रयोगकरने को वह तत्पर हो इसलिए रानी इच्छायें आवश्यकता ...........हो सकती
हैं।
(नहीं)
इच्छा आवश्यकता तभी बन सकती है जब व्यक्ति उस इच्छा की पूर्ति हेतुकरे।
(चेष्टा)कभी-कभी चेष्टा करने पर भी इच्छा की पूर्ति नहीं कर पाते इसलिए
चेष्टा केसाथ-साथ व्यक्ति के पास उसकी पूर्ति हेतु ........ भी होने चाहिए।
(साधन)
कभी-कभी साधन होते हुए भी हम साधनों का प्रयोग नहीं करते। इसलिए इच्छा तभी
आवश्यकता बन सकती है जब व्यक्ति उसकी पूर्ति हेतु चेष्टा करे, उस परपूर्ति के
साधन हों तथा साधनों को लगाने की............. भी करें।
(तत्परता)
आवश्यकताओं के प्रकार-आवश्यकतायें तीन प्रकार की होती हैं-आवश्यक.आरामदायक
तथा विलासितापूर्ण । जो वस्तुयें जीवन की रक्षा तथा रखरखाव के लिएअनिवार्य
होती हैं उनकी आवश्यकता .........होती है।
(अनिवार्य)
अनिवार्य आवश्यकता-भोजन, मकान एवं कपड़ा हमारे जीवन के लिए अनिवार्य है अतः
इनकी आवश्यकता ........... आवश्यकता कहलायेगी।
(अनिवार्य)
अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति जीवन की....... के लिए अनिवार्य होती है।
(रक्षा)
आरामदायक आवश्यकताएँ-हमारी कुछ आवश्यकताएँ जीवन को आरामदायकबनाने हेतु होती
हैं। इस प्रकार की आवश्यकतायें 'कहलाती हैं। आरामदायक स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर
मकान तथा कीमती कपड़े हमें आराम देते हैं इसलिए इनकी आवश्यकता
................ आवश्यकता कहलायेगी।
(आरामदायक)
आरामदायक आवश्यकतायें हमारे शरीर को स्वस्थ रखती हैं तथा कार्यशक्तिबढ़ाती
हैं, इसलिए इन आवश्यकताओं की पूर्ति से हमारी ................. बढ़ती है।
कार्यक्षमता
विलासितापूर्ण आवश्यकता-कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति हम विलासपूर्ण जीवनव्यतीत
करने के लिए करते हैं। इनको हम ......................आवश्यकतायें कहते हैं।
(विलासितापूर्ण)
एक अध्यापक अपना विलासी जीवन व्यतीत करने हेतु कार, फ्रिज आदि रखताहै। इनकी
आवश्यकता उसके लिए...है।
(विलासितापूर्ण)
एक प्रसिद्ध डॉक्टर के लिए आरामदायक है, अध्यापक के लिए विलासिता है इसलिए एक
चीज किसी के लिए .........तो दूसरे के लिए हो सकती है।
(आरामदायक/विलासितापूर्ण)
4. दूरदर्शन पर शिक्षण
(TEACHING ON TELEVISION)
आधुनिक युग में दूरदर्शन का शिक्षण के क्षेत्र में व्यापक तथा सफल प्रयोग हो
रहाहै। शिक्षण के क्षेत्र में दूरदर्शन का प्रयोग सामान्यतः दो रूपों में
पाया जाता है। प्रथमरूप में इसका विशिष्ट प्रयोग उन बड़े एवं आर्थिक रूप से
सम्पन्न विद्यालयों में देखने कोमिलता है। जहाँ एक ही विषय की कई कक्षाएँ एक
साथ पृथक-पृथक कमरों में चलतीहैं। यहाँ विद्यालय के पास दूरदर्शन कैमरा होते
हैं। किसी कक्ष में एक अध्यापक छात्रोंको पढ़ाता है तथा दूसरे कमरों में
टेलीविजन पर टेलीविजन कैमरा के माध्यम सेशिक्षण-कार्य किया जाता है। यहाँ
केवल एक कमरे में शिक्षक शिक्षण करता है जिसकाप्रसारण दूसरे कमरों में
टेलीविजन पर किया जाता है। इन कमरों में बैठे छात्र टेलीविजन के माध्यम से
अध्ययन करते हैं।
दूरदर्शन-शिक्षण के दूसरे रूप में देश के दूरदर्शन केन्द्र विद्वान एवं
कुशलअध्यापकों से पाठ तैयार कराकर या उनके वास्तविक शिक्षण को ही एक निश्चित
समयदूरदर्शन पर प्रसारित करते हैं, जिसे राष्ट्र के या प्रदेश के विद्यालयों
में प्रदर्शित कियाजाता है। इस प्रकार की व्यवस्था में अपेक्षाकृत बहुत ही कम
आर्थिक साधनों कीआवश्यकता पड़ती है। कार्यक्रमों का दूरदर्शन पर प्रसारण करने
में जो भी व्यय होता है।
वह दूरदर्शन विभाग वहन करता है, विद्यालयों को केवल दूरदर्शन पर क्रम करने
तथाबिजली आदि पर सामान्य व्यय करना पड़ता है।
वाणिज्य-शिक्षण दूरदर्शन की अपनी विशिष्ट उपादेयता है।
वाणिज्य-शिक्षण में दूरदर्शन के लिये प्रयोग बड़ी सरलता तथा सफलता के साथकिया
जा सकता है। दूरदर्शन पर आर्थिक सिद्धान्तों, आर्थिक संगठनों तथा
आर्थिकक्रियाकलापों पर वाद-विवाद, उनकी कार्यप्रणाली का प्रदर्शन तथा अनेक
आर्थिक मुद्दों.तथ्यों तथा प्रत्ययों का स्पष्टीकरण उच्च कोटि के विद्वानों
तथा शिक्षकों के द्वारासफलतापूर्वक किया जा सकता है। दूरदर्शन के द्वारा
विशिष्ट उद्योगों, खनिज क्षेत्रों,पशु धन, कृषि-सम्पदा आदि के सम्बन्ध में
चित्रमय विवरण प्रस्तुत कर वाणिज्य शिक्षणको प्रभावी तथा मनोरंजक बनाया जा
सकता है।
दूरदर्शन के उपयोग
वाणिज्य शिक्षण के लिये दूरदर्शन का प्रयोग करते समय कुछ आवश्यक बातेंध्यान
में रखनी चाहिए. जैसे-
1. कार्यक्रमों का चयन
वाणिज्य शिक्षण के लिए दूरदर्शन कार्यक्रमों का चयन बड़ी सावधानी तथासतर्कता
से किया जाना चाहिए। इसके लिए निम्नांकित तथ्यों की ओर विशेष तौर परध्यान
देना चाहिए-
(1) कार्यक्रम छात्रों के पाठ्यक्रम से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित हो।
(2) दूरदर्शन कार्यक्रमों की एक व्यापक तथा विस्तृत योजना बनाई जाय।
(3) कार्यक्रमों के लिये विभिन्न विद्वानों की भी सूची बनाई जाय।
(4) कार्यक्रमों को प्रसारित करने का निश्चित तथा सुविधाजनक समय निश्चित
होजिसकी जानकारी विद्यालय अधिकारियों तथा छात्रों को हो।
2. कार्यक्रमों की तैयारी
दूरदर्शन कार्यक्रमों की सफलता बहुत बड़ी मात्रा में इस बात पर निर्भर करती
हैकि इन कार्यक्रमों के लिए सम्बन्धित अधिकारियों ने किस स्तर की पूर्व
तैयारियों की हैं। वाणिज्य शिक्षण के लिए दूरदर्शन कार्यक्रमों के प्रसारण के
लिए यह आवश्यक है किसभी प्रकार की आवश्यक तैयारियां पूरी कर ली जायें।
दूरदर्शन कार्यक्रमों के प्रसारणकी तैयारियों को हम मुख्य रूप से दो वर्गों
में विभक्त कर सकते हैं
(1) प्रसारण सम्बन्धी तैयारियाँ तथा (2) प्रसारण-ग्रहण करने से सम्बन्धित
छात्रों कीतैयारियाँ । जो भी कार्यक्रम प्रसारित होते हैं उनके प्रभावी
प्रसारण के लिए भी आवश्यकतैयारियाँ कर ली जायें तथा आवश्यक संसाधन जुटा लिये
जायें। इसी प्रकार छात्र भीआवश्यक कागज, कलम आदि लेकर दूरदर्शन के सम्मुख ऐसे
स्थान पर बैठे जहाँ से वेसुविधापूर्वक देख व सुन सकें। रहाँ छात्रों की
उत्सुकता तथा शंकाओं के समाधान करनेकी पूर्व-तैयारी कर लेनी चाहिये।
3. दूरदर्शन कार्यक्रमों का प्रस्तुतीकरण
वाणिज्य शिक्षण के लिये दूरदर्शन कार्यक्रमों के प्रसारण के समय आगे लिखी
बातेंध्यान में रखनी आवश्यक हैं-.
(1) विषय-वस्तु छात्रों के स्तर एवं पाठ्यक्रम के अनुसार हो।
(2) अधिक लम्बे कार्यक्रम प्रस्तुत न किये जायें। सामान्यतः एक कार्यक्रम तीस
से चालीस मिनट की अवधि का होना चाहिये।
(3) दूरदर्शन सैट के सामने छात्रों के बैठने की समुचित, पर्याप्त तथा
उपयुक्तव्यवस्था होनी चाहिए।(4) कमरे में जहाँ दूरदर्शन कार्यक्रमों का
प्रसारण प्रदर्शित हो रहा है। मध्यम प्रकाश की व्यवस्था हो।
(5) आवाज (Volume) ऐसा हो जिससे सभी छात्र सुविधापूर्वक सुन सकें।
(6) कार्यक्रम प्रसारण के समय कक्षा में वाणिज्य शिक्षक उपस्थित रहे जो
छात्रोंकी शंकाओं का समाधान करता जाय तथा कक्षा पर नियंत्रण भी रखे।
4. कार्यक्रमों का मूल्यांकन
दूरदर्शन कार्यक्रमों के मूल्यांकन की भी समुचित व्यवस्था हो जिससे इस
कार्यक्रमोंकी सफलता का पता चल सके तथा इन्हें और अधिक सफल बनाने के लिये
प्रयासकिये जा सकें।
दूरदर्शन शिक्षण से लाभ
वाणिज्य शिक्षण के क्षेत्र में दूरदर्शन प्रसारण बड़े उपयोगी हैं। इससे
सामान्यतःनीचे लिखे लाभ प्राप्त होते हैं-
(1) शिक्षण में सरसता, प्रभावकता तथा मनोरंजन आता है।
(2) छात्रों को प्रेरणा प्राप्त होती है।
(3) दूरदर्शन कार्यक्रम उच्च कोटि के विद्वानों के द्वारा तैयार किये जाते
हैं
(4) दूरदर्शन कार्यक्रमों में हम ऐसे दृश्य उपस्थित कर सकते हैं जो
वास्तविकज्ञान प्रदान करने में बड़े सहायक होते हैं, जैसे बाढ़ से हानियाँ,
वनों से लाभ, कारखाने की कार्य-प्रणाली आदि।
(5) इससे ज्ञान सम्बन्धी विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
(6) दूरदर्शन से विषय से सम्बन्धित नवीनतम् अन्वेषण तथा खोजों के परिणामसहज
ही छात्रों तक पहुँचाये जा सकते हैं।
(7) एक ही साथ बहुत बड़ी संख्या में छात्रों को शिक्षण प्रदान किया जा सकता
है,इससे समय, अम व साधनों की बचत होती है।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वाणिज्य शिक्षण के लिए दूरदर्शन प्रसारण बड़े ही
उपयोगी तथा लाभप्रद होते हैं।
5. कम्प्यूटर द्वारा शिक्षण
(TEACHING BY COMPUTER)
शिक्षा तथा शिक्षण के क्षेत्र में आज कम्प्यूटर की उपयोगिता सभी स्वीकारकरते
हैं। कम्प्यूटर की सहायता से शिक्षण व्यावहारिक, उपयोगी. रोचक तथाआधुनिक बनता
है। कम्प्यूटर की उपयोगिता के कारण ही आज इसके शिक्षण कीव्यवस्था छोटी
कक्षाओं से ही प्रारम्भ की जाती है। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड
तथाविश्वविद्यालयों ने भी विभिन्न कक्षाओं के लिये कम्प्यूटर शिक्षा अनिवार्य
कर दी है।
कम्प्यूटर से तात्पर्य
(MEANING OF COMPUTER)
कम्प्यूटर को सामान्य भाषा में पर्सनल कम्प्यूटर (Personal Computer-PC)
कहाजाता है। यह एक ऐसा इलेक्टॉनिक उपकरण है जो विभिन्न प्रकार की रचनाओं
कोएकत्रित कर उनका मुद्गण (Printing) कर सकता है या उनकी संख्या तथा
विश्लेषणकर आवश्यक परिणाम देता है। उसे क्या करना है यह कम्पूयटर को दिये
गयेकमाण्ड्स (आदेशों) पर निर्भर करता है । कम्प्यूटर में उपरोक्त विशेषताओं
के अलावा एक विशेषता मेमोरी (Memory) की भी होती है। मैमोरी के कारण यह दी गई
सूचनाओं, आदेशों तथा प्रदत्तों का संग्रहण (Store) करने की अद्भुत क्षमता
रखता है। कम्प्यूटर को हम एक ऐसा यंत्र कह सकते हैं जिसमें उच्च स्तरीय संगणक
(Calculator),टंकण-यंत्र(Type writer), टेलीविजन तथा मेमोरी का अनोखा संगम
होता है।
इस अद्भुत संगम के कारण कम्प्यूटर मानव मस्तिष्क से कहीं अधिक तीव्रगति
संगणना तथा विश्लेषण कर सकता है। इसके द्वारा की गई गणनायें न केवल तीव्र
गतिसे होती हैं वरन् उनमें शुद्धता की मात्रा भी अधिक होती है। कम्प्यूटर
द्वारा की गयीगणनाओं में त्रुटियों की सम्भावना नगण्य होती है।
कम्प्यूटर एक ऐसा उच्च स्तरीय संगणक (Calculator) है जो एक सामान्यकैलकुलेटर
से कहीं अधिक बेहतर कार्य कर सकता है। साधारण कैलकुलेटर में तथ्यों का संग्रह
करके रखने की क्षमता नहीं होती है। साथ ही सामान्य कैलकुलेटर में ग्राफ बनाने
की क्षमता, त्रुटियों को शुद्ध करने की क्षमता, एनीमेशन तथा ध्वनि पैदा करने
की क्षमता भी नहीं होती है। कैलकुलेटर की मदद से हम इलैक्ट्रॉनिक गेम्स खेल
कर अपना मनोरंजन भी नहीं कर सकते हैं जबकि कम्प्यूटर में ये सभी सुविधायें
उपलब्ध होती हैं।
कम्प्यूटर टाइप राइटर से भी बेहतर होता है क्योंकि यह कई भाषा में टाइप कर
सकता है, कई प्रकार के अक्षर टाइप कर सकता है. अक्षरों को नार्मल, बोल्ड,
इटालिक आदि रूप दे सकता है. ऊपर नीचे टाइप कर सकता है, अशुद्धियों को सरलता
से एडिट कर दूर किया जा सकता है, इसके द्वारा निकाले गये प्रिन्ट अपेक्षाकृत
अधिक साफ-सुथरे होते हैं तथा इससे एक ही प्रति की अनेक प्रतियाँ निकाली जा
सकती हैं।टाइप राइटर ग्राफ आदि नहीं बना सकता जबकि कम्प्यूटर से यह सब कार्य
सहज हीकिये जा सकते हैं। उपरोक्त विवचेन से हमें कम्प्यूटर में निम्नांकित
विशेषताएँ नजरआती हैं-
(1) तीव्र गति (High Speed) से गणना आदि करना।
(2) शुद्धता (Accuracy) से कार्य करना।
(3) सार्वभौमिकता (Versatility) के रूप में कार्य करना।
(4) संग्रह की क्षमता (Storage Capacity)।
(5).स्वचालन (Automation)|
(6) उच्च सक्षमता (High Degree of Deligency)|
नीचे इन्हीं छः विशेषताओं की संक्षिप्त व्याख्या की गई है-
(1) तीव्र गति (High Speed) कम्प्यूटर एक सुन्दर कैलकुलेटर है जो बड़ी गतिके
साथ जटिल से जटिल समस्याओं की व्याख्या, दुरूह, कार्यों तथा संगणनाओं
कोसम्पन्न करने की क्षमता रखता है। कम्प्यूटर गणना करने के लिय सेकण्ड्स से
भी कम समय लेता है। उदाहरण के लिये कम्प्यूटर 20 अंकों वाली संख्या का जोड
नीनोसेकण्ड (10 सेकण्ड) में करने की क्षमता रखता है। जिन गणनाओं को सम्पन्न
करने में मनुष्य एक पूरा दिन लगाता है वे ही गणनायें कम्प्यूटर कुछ ही
सेकण्ड्स में पूरा कर सकता है। कुछ गणनायें (जैसे कनालीकल सहसम्बन्ध ज्ञात
करना) करना मनुष्य के वश में नहीं हैं, वे गणनायें कम्प्यूटर द्वारा सहज ही
की जा सकती हैं।
(2) शुद्धता (Accuracy)-यदि मनुष्य कम्प्यूटर को कमाण्ड देने में त्रुटि न
करे तो कम्प्यूटर द्वारा सम्पन्न की जाने वाली गणनाओं में शुद्धता पाई जाती
है। यदि मनुष्य ठीक से कमाण्ड दें तथा कम्प्यूटर या उसके किसी अंग में कोई
यांत्रिक खराबी न हो तो इसे इलैक्ट्रिकल उपकरण द्वारा त्रुटि करने की
सम्भावना ही समाप्त हो जाती है।कम्प्यूटर गणनादि का कार्य पूरी शुद्धता के
साथ करता है।
(3) सार्वभौमिकता (Versatility) सार्वभौमिकता को हम यहाँ दो रूप दे
सकतेहैं-(1) इसके व्यापक उपयोग हो सकते हैं, तथा (2) कम्प्यूटर एक साथ कई
कार्य करनेकी क्षमता रखता है। कम्प्यूटर विशेष योग्यता वाले व्यक्तियों के
लिये पृथक-पृथक कार्यकरने की क्षमता रखता है। वह पल-पल में विभिन्न कार्य कर
सकता है, अभी हम कोईपत्र लिख रहे होते हैं तो अगले ही पल वेतन बनाने का कार्य
भी कम्प्यूटर से कर सकतेहैं। इतना ही नहीं कम्प्यूटर सामान्य मनोरंजन कार्यों
से लेकर जटिल क्रियाओं तक का सार्वभौमिक रूप से हल कर सकता है।
(4) संग्रहण क्षमता (Storage Capacity)-कम्प्यूटर में तथ्यों तथा सूचनाओं
कोसंग्रह कर सकने की क्षमता होती है। इसे सरल शब्दों में कह सकते हैं कि
कम्प्यूटर के पास मेमोरी (Memory) होती है जो एक सामान्य कैलकुलेटर या टाइप
राइटर में नहीं होती है। मनुष्य की तुलना में कम्प्यूटर की स्मरण-शक्ति
(Memory) कहीं बहुत अधिक होती है। मनुष्य सामान्यतः पुरानी घटनाओं तथा
सूचनाओं को कालान्तर में भूल जाता है किन्तु कम्प्यूटर ऐसा नहीं करता, वह
बड़े लम्बे समय तक सूचनाओं को बनाये रखता है।
(5) स्वचालन (Automation) कम्प्यूटर में एक बार तथ्य तथा सूचनायें आने के बाद
कम्प्यूटर को जो निर्देश (कमाण्ड) दिये जाते हैं उन निर्देशों के अनुसार
कम्प्यूट रस्वतः ही उस समय तक कार्य करते रहता है जब तक कि कार्य पूरा नहीं
हो जाता। स्वचालन के कारण कम्प्यूटर को बार-बार कमाण्ड नहीं देने पड़ते हैं
तथा कार्य करने की गति भी तेज रहती है।
(9 उच्च सक्षमता (High Degree of Deligency) कम्प्यूटर एक ऐसा
इलेक्ट्रॉनिकउपकरण है जो लम्बे समय तक लगातार कार्य कर सकता है। सामान्य अन्य
उपकरणों के समान यह गर्म नहीं होता, थकता नहीं है और एक ही प्रकार का कार्य
करते-करते ऊबता नहीं है। साथ ही लम्बे समय तक कार्य करते रहने पर भी इसके
द्वारा सम्पन्न किये गये कार्यों की शुद्धता पर भी कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं
पड़ता है।
कम्प्यूटर की उपयोगिता
(UTILITY OF COMPUTERS)
आज के युग में कम्प्यूटर का महत्त्व बहुत ही अधिक बढ़ गया है। जीवन केहर
क्षेत्र में आज किसी न किसी रूप में कम्प्यूटर का उपयोग हो रहा है। कम्प्यूटर
के विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे अनुप्रयोगों को आगे परिचयात्मक रूप में
प्रस्तुत किया गया है-.
(1) व्यापार के क्षेत्र में (In Business)-व्यापार तथा व्यवसाय के क्षेत्र
में आजकम्प्यूटरों का व्यापक प्रयोग हो रहा है। व्यापार के क्षेत्र में
कम्प्यूटर का प्रवेश सन् 1954में ही हो गया था। आज अनेक सॉफ्टवेयर व्यवसाय,
व्यापार, एकाउण्ट्स आदि के क्षेत्रके लिये उपलब्ध हैं। इनके उपयोग से
कार्यालय, प्रबन्धन में सरलता आई है, अनेकव्यावसायिक कार्य तुरन्त ही किये जा
सकते हैं. अनेक प्रकार की व्यावसायिक सूचनायेंमात्रं कुछेक की (Key) दबाने से
ही प्राप्त हो जाती हैं। वेतनों का निर्धारण, वेतन बिलबनाना, उनका सभी प्रकार
का हिसाब रखना बड़ा ही सरल व सुगम हो गया है। व्यापारका उत्पादन, व्यय, लाभ
आदि कम्प्यूटर की सहायता से सहज ही ज्ञात किये जा सकतेहैं। आज हम कम्प्यूटर
की सहायता से विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक प्रोफार्मा,विवरणिका, सूचीयन,
सारणी योग तथा अन्य गणनायें सेकण्डों में कर सकते हैं। इतनाही नहीं कम्प्यूटर
की मेमोरी में अनेक प्रकार की सूचनायें डाल कर हम आवश्यकतापड़ने पर भविष्य
में इनका उपयोग कर सकते हैं। व्यवसाय, उनके किसी अंग, प्रणालीया व्यवस्था में
होने वाले परिवर्तनों का हम कम्प्यूटर की सहायता से सहज ही पता लगा सकते हैं।
कम्प्यूटर की सहायता से हम विभिन्न प्रकार के एकाउण्ट केश बुक लेजर पी. एण्ड
एल.. एकाउन्ट, बैलेन्स शीट, सेल्स रजिस्टर. परचेज बुक तथा बैंक विवरण सहजता
तथा शुद्धता एवं गति के साथ तैयार कर सकते हैं। पुस्तपालन के रख-रखाव के लिये
अनेक सोफ्टवेयरों का विकास हो चुका है। टेली (Tally) एक ऐसा ही सोफ्टवेयर है
जो पुस्तपालन के लिये अत्यन्त ही उपयोगी है। टेली (Tally) सोफ्टवेयरों के
ज्ञान से छात्र साधारण प्रविष्टियों से लेकर अत्यन्त ही क्लिष्ट तथा उच्च
स्तरीय खाते तैयार कर सकता है।
पुस्तपालन के अलावा टंकण-कार्य के लिये भी कम्प्यूटर बड़ा उपयोगी है।
यहसाधारण टंकण-यंत्र से कई दृष्टिकोणों से श्रेष्ठ है जैसे-
(1) साधारण टंकण में हम अक्षर के साइज तथा आकार नहीं बदल सकते हैंजबकि
कम्प्यूटर के द्वारा टंकण करते समय हम अक्षरों (Fonts) का आकार तथा प्रकारबदल
सकते हैं।
(2) कम्प्यूटर द्वारा किया जाने वाला टंकण, अपेक्षाकृत साधारण टंकण से
कहींअधिक सुन्दर होता है।
(3) मानीटर के स्क्रीन पर ही सभी त्रुटियों को शुद्ध करके सही मुद्रण संभव
है, जबकि साधारण टंकण में काट-छाँट करनी पड़ती है।
(4) कम्प्यूटर द्वारा टंकण कार्य शीघ्रता से करना सम्भव है।
(5) इससे विविध भाषाओं में एक साथ टंकण सम्भव है।
(6) कम्प्यूटर में स्मृति होने से टंकण कार्य और भी सुगम हो जाता है।
(7) कम्प्यूटर से एक्सेल (Excel) साफ्टवेयर से ग्राफ, रेखाचित्र, सारणी आदि
सफलता से बन जाते हैं।
(8) कम्प्यूटर गणनायें (Calculation) भी सरलता से कर सकता है।
अतः वाणिज्य शिक्षण में कम्प्यूटर की उपयोगिता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
कम्प्यूटर के प्रयोग ने बैंकों के कार्य को भी सुगम व सरल बना दिया है। एक
बटन दबाते ही किसी ग्राहक के खाते का पूरा चित्र हमारे सामने आ जाता है। बैंक
के अन्य खातों का रख-रखाव भी कम्प्यूटर के प्रयोग से अत्यन्त सुविधाजनक हो
गया है।शेयर बाजार में भी कम्प्यूटर बड़ा उपयोगी है। शेयरों के भावों में
उतार-चढ़ाव, हस्तान्तरण, नामांकन आदि से सम्बन्धित सूचनायें कम्प्यूटरों
द्वारा सरलता से संभरित,प्रदर्शित तथा ज्ञात की जा सकती हैं। कम्प्यूटरों
(इन्टरनेट तथा ई-मेल) के माध्यम से इनके भावों की सूचना कुछ ही सेकण्ड में
पूरे विश्व में दी जा सकती है।
विश्व व्यापार, आयात, निर्यात की स्थति, भुगतान सन्तुलन आदि के क्षेत्र में
भी कम्प्यूटर बड़े उपयोगी साबित हो रहे हैं।
सारांश में इतना ही कहा जा सकता है कि आज व्यापार के हर क्षेत्र में
कम्प्यूटर का उपयोग हो रहा है।
बीमा कम्पनियों के कार्यालयों को भी हम आज कम्प्यूटरों से सुसज्जित पाते
हैं।विभिन्न वीमा पालिसियों का विवरण, उनकी राशि, प्रीमियम, परिपक्वता अवधि,
नाम, पते आदि सभी का ब्यौरा पलभर में ही कम्प्यूटर हमें दे देता है। इसमें
बीमा कार्य बहुत ही सरल हो गया है।
विभिन्न व्यावसायिक प्रतिष्ठान अपने से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के
सांख्यिकीय तथ्य एकत्रित कर उनका विश्लेषण करते हैं तथा भविष्य की योजना
बनाते हैं। यह योजना निर्माण तथा योजना का क्रियान्वयन भी कम्प्यूटर से
प्राप्त सूचनाओं के आधारपर कम्प्यूटर द्वारा ही किया जाता है।
उद्योगों में कर्मचारियों से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की सूचनायें उनकी
कार्य क्षमता, कार्य क्षेत्र, योग्यतायें, वेतन, अनुभव, उद्योग की उत्पादन
क्षमता, उत्पादन उपादान आदि का ब्यौरा कम्प्यूटर रखते हैं। अब तो उद्योगों के
लिये ऐसे मशीनी यंत्र या मशीनी मानक (Robots) बनाये हैं जो कम्प्यूटर से आदेश
ज्ञात कर उद्योगों में विभिन्न कार्य करते हैं।
आजकल तो छोटे-छोटे दुकानदार भी माल के दामों के संभरण, ग्राहकों के बिलबनाने
तथा उनके हिसाब का कार्य भी कम्प्यूटर से करते हैं।
अभ्यास-प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न
1. सूक्ष्म अध्यापन का अर्थ बताइए तथा उन कौशलों की चर्चा करें जिनका विकास
इसके द्वारा वाणिज्य शिक्षक में किया जा सकता है।
2. वाणिज्य में कोई सा एक विषय चुनिए तथा उस पर खोजपूर्ण प्रश्नों की एक
श्रृंखला तैयार कीजिए।
3. वाणिज्य पढ़ाने के लिए यदि दल-शिक्षण का सहारा लें तो बतायें कि दल में
कौन-कौन सदस्य होंगे?
4. दल-शिक्षण का अर्थ बताकर वाणिज्य शिक्षण में इसकी उपयोगिता बताइए।
5. वाणिज्य शिक्षण में दूरदर्शन की क्या उपयोगिता है?
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
1. सूक्ष्म-शिक्षण के महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।
2. सूक्ष्म-शिक्षण-चक्र को समझाइये।
3.रेखीय अमिक्रमित अध्ययन की विशेषतायें लिखिये।
4. सूक्ष्म-शिक्षण के लाभों का उल्लेख कीजिये।
5. वाणिज्य शिक्षण में दूरदर्शन के क्या उपयोग हैं ?
6. वाणिज्य शिक्षण में कम्प्यूटर की उपयोगिता बताइये।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. सूक्ष्म शिक्षण में विशिष्ट कक्षा-कक्ष व परिस्थितियाँ निहित होती हैं जो
सीमित आकार, क्षेत्र तथा समयाविधि से सम्बन्धित होती हैं। किसकी परिभाषा है?
(अ) पील तथा टवार
(ब) एलन तथा ईब
(स) डेविड यंग
(द) डॉ० सिंह
2. सूक्ष्म शिक्षण .......शिक्षण है।
3. सैपालिन तथा ओल्ड की पुस्तक का नाम लिखिए।
4. सम्पुष्टि का सिद्धान्त किस सिद्धान्त को कहते हैं ?
(अ) लघु सोपानों को सिद्धान्त
(ब) प्रतिपुष्टि का सिद्धान्त
(स) स्वगति का सिद्धान्त
(द) छात्र परीक्षण का सिद्धान्त
उत्तर-1(द) डॉ० सिंह। 2. वास्तविक । 3. पुस्तक टीम टीचिंग। 4. (ब)
प्रतिपुष्टि का सिद्धान्त।
12
वाणिज्य-शिक्षण की सहायक सामग्री
(AIDS OF TEACHING COMMERCE)
"Visual divices of many kinds may serve in making the abstract concrete"
and in arousing interest in studies that would otherwise be unreal and
dull."
-Bining and Bining.
परम्परागत शिक्षा का आधार पुस्तकें तथा अध्यापक द्वारा प्रदत्त भाषण ही थे।
इसमें छात्र कक्षा में एक निष्क्रिय श्रोतामात्र रह जाता था, उसे पुस्तकों
में छपे काले-काले अक्षरों में रुचि लेनी पड़ती थी, परन्तु ये छात्र को विशेष
कुछ कहने में असमर्थ होते हैं। ये अक्षर छात्र को प्रभावपूर्ण रूप से कुछ
सिखलाने में असक्षम माने जाते हैं। इन कारणों से प्रसिद्ध शिक्षाविदों ने
परम्परागत शिक्षा के विरुद्ध आवाज उठाई एवं शिक्षा को पुस्तकों एवं रटे-रटाये
भाषणों की चहारदीवारी से बाहर करने का प्रयास किया।
आधुनिक शिक्षा विचाराधाराओं के अनुसार बालक सक्रिय होकर शिक्षा प्राप्त करता
है। यथार्थ में ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानार्जन के मुख्य द्वार होती हैं अतः
इन्हें सक्रिय रखने के लिए अनेक विधियों, रीतियों व साधनों का उपयोग किया
जाता है। ये विभिन्न साधन ही शिक्षण की सहायक सामग्री कहलाते हैं। दूसरे
शब्दों में वे सामग्रियाँ जो शिक्षा को सरल, सुगम, आकर्षक, हृदयग्राही तथा
बोधगम्य बनाती हैं शिक्षा की सहायक सामग्री कहलाती हैं।
शैक्षिक सामग्रियों की सहायता से अमूर्त, जटिल एवं सूक्ष्म बातों को मूर्त,
सरल बनाकर पाठ को अधिक क्रियात्मक एवं व्यावहारिक बनाया जाता है। वाणिज्य
एक प्रायोगिक विषय है इस विषय का विषय क्षेत्र अपने में टंकन, आशुलिपि,
बुक-कीपिंग, बैंकिंग. व्यापार पद्धति आदि को अपने में समेटे हुए है. उपरोक्त
सभी विषय क्षेत्रों को स्पष्ट व व्यावहारिक बनाने हेतु अनेकानेक सहायक
सामग्रियों की आवश्यकता होती है।
वाणिज्यशास्त्र शिक्षण की सहायक सामग्री
(AIDS OF TEACHING COMMERCE)
वाणिज्यशास्त्र शिक्षण में उपयोग होने वाली सहायक सामग्नियों का विभाजन निम्न
प्रकार किया जा सकता है-
(1) परम्परागत सहायक सामग्री (Traditional Aids)
(2) प्रदर्शनात्मक सहायक सामग्री (Visual Aids)
(3) श्रव्य साधन (Audio Aids)
(4) श्रव्य-दृश्य सामग्री (Audio-visual Aids)
(5) अन्य सहायक सामग्री (Other Aids)
परम्परागत सहायक सामग्री
(TRADITIONAL AIDS)
(अ) श्यामपट-शिक्षण कला में श्यामपट का प्रयोग अति प्राचीन काल से होता चला आ
रहा है और आज भी बड़े व्यापक रूप से न केवल परम्परागत विद्यालयों में अपितु
सभी प्रगतिशील विद्यालयों में भी श्यामपट का स्थान अति महत्त्वपूर्ण है।
अध्यापक को श्यामपट की अनेक स्थानों पर आवश्यकता पड़ती है। अध्यापक रेखाचित्र
बनाने. ग्राफ बनाने, आँकड़े लिखने व अन्य कार्यों हेतु श्यामपट का प्रयोग कर
पाठ को सरल, सुगम, बोधगम्य तथा आकर्षक बना सकता है। अध्यापक प्रायः
निम्नांकित कार्यों के लिए श्यामपट का प्रयोग कर सकता है-
(1) रेखाचित्र, ग्राफ, मानचित्र आदि बनाने हेतु।
(2) छात्रों का ध्यान आकर्षित करने हेतु। .
(3) प्रमुख तथ्यों का उल्लेख करने हेतु।
(4) छात्रों से अभ्यास कराने हेतु।
(5) उदाहरण देने हेतु।
(6) छात्रों की दृश्य शक्ति का उपयोग करने हेतु।
शिक्षण कार्य में श्यामपट का अनेक स्थलों पर बड़े लाभप्रद रूप में प्रयोग
किया जा सकता है. किन्तु श्यामपट के प्रयोग से ये लाभ तभी प्राप्त हो सकते
हैं जब श्यामपट का प्रयोग उचित प्रकार से किया जाय। वाणिज्य के अध्यापकों को
श्यामपट का प्रयोग करते समय प्रायः निम्नांकित बातों की तरफ ध्यान रखना
चाहिए-
(1) श्यामपट ऐसे स्थान पर रखा जाय जहाँ से सभी छात्र श्यामपट को सुविधापूर्वक
देख सकें।
(2) श्यामपट पर पर्याप्त प्रकाश हो परन्तु प्रकाश का परावर्तन (Reflection)
नहीं होना चाहिए।
(3) श्यामपट पर जो भी लिखा जाय, सीधी पंक्ति में लिखा जाय।
(4) श्यामपट पर जो भी लिखा जाय स्पष्ट व साफ शब्दों में हो।
(5) लिखते समय कक्षानुशासन का विशेष ध्यान रखा जाय।
(6) श्यामपट का आवश्यकता से अधिक प्रयोग नहीं किया जाय।
वाणिज्यशास्त्र का शिक्षक श्यामपट का प्रयोग निम्न बातों के लिए कर सकता है-
(1) व्यापार पद्धति में बीजक तथा बिक्री विवरण के प्रश्नों को बतलाने, उनके
खानों को खींचने, डेबिट तथा क्रेडिट नोटों को समझाने, चैक, बिल, हुण्डी, बैंक
ड्राफ्ट आदि को बनाने व बतलाने के लिये।
(2) पुस्तपालन तथा लेखाक्रम में विभिन्न पुस्तकों का उपयोग, लैजर, रोकड़,
पुस्तक में प्रविष्टियाँ करना सिखाने के लिये।
(3) वाणिज्य अर्थशास्त्र में ग्राफ-तालिकाएँ बनाने के लिए, माँग पूर्ति के
नियमों को अंकित करने के लिए।
(4) वाणिज्य भूगोल में चित्र-मानचित्र-तालिकाएँ आदि बतलाने के लिए।
(5) टंकन एवं आशुलिपि में संकेतों को समझाने हेतु।
(6) महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर के लिये।
(7) कक्षा कार्य या गृह कार्य देने के लिये
(ब) तालिकाएँ (Tables)-वाणिज्यशास्त्र शिक्षण में तालिकाओं का विशेष महत्त्व
है। इसमें विभिन्न वस्तुओं से सम्बन्धित आँकड़े व वस्तु की मात्रा को दर्शाने
की आवश्यकता पड़ती है। व्यापार संगठन में पंचवर्षीय योजनाओं में
उद्योग-कृषि-व्यापार का व्यौरा देने के लिए अध्यापक को आँकड़े तालिकाओं
द्वारा ही बतलाने पड़ते हैं। इनका प्रयोग तुलनात्मक अध्ययन में विशेष सहायक
होता है। वाणिज्य अर्थशास्त्र में भी तालिकाओं का विशेष महत्त्व होता है।
तालिकाओं के द्वारा हर स्तर का छात्र वर्षानुसार प्रगति, लाभ-हानि की जानकारी
आसानी से प्राप्त कर सकता है।
(स) पत्रिकाएँ (Joumals and Magazines)-वाणिज्यशास्त्र के शिक्षण में
पत्र-पत्रिकाओं का भी विशेष महत्त्व है। बाजार समाचार व बाजार समीक्षा पढ़ाते
समय पत्र-पत्रिकाओं की बड़ी उपयोगिता रहती है। ये बाजार की स्थिति व अग्रिम
स्थिति की भी जानकारी प्रदान करते हैं। ये न केवल देश की आर्थिक एवं
व्यापारिक नीति की जानकारियाँ प्रदान करते हैं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय बाजार
की स्थिति व अनुसन्धानों से भी परिचित कराते हैं।
प्रदर्शनात्मक सामग्री
(VISUAL AIDS)
प्रदर्शनात्मक सामग्नी वे सामग्रियाँ हैं जिसे अध्यापक छात्रों के सम्मुख
प्रदर्शन करके पाठ को आकर्षक एवं हृदयग्राही बनाने की चेष्टा करता है। इस
प्रकार की सहायक सामग्री में हम विभिन्न प्रकार के चित्र, मानचित्र, ग्राफ,
चार्ट, रेखाचित्र, प्रतिरूप आदि सम्मिलित करते हैं। नीचे इनके प्रयोग के
सम्बन्ध में उपयोगी बातों का उल्लेख किया गया है-
(अ) प्रतिरूप (Model)-वाणिज्य शिक्षण में प्रतिरूपों का बड़ा महत्त्व है,
प्रतिरूपों का महत्त्व छोटी कक्षाओं में और भी अधिक है। जिन वस्तुओं को कक्षा
में वास्तविक रूप में नहीं दिखाया जा सकता है या जो वास्तविक रूप में उपलब्ध
नहीं हो तो उनका प्रतिरूप कक्षा में प्रदर्शित किया जा सकता है। मॉडल में
वस्तु के भाग भी प्रदर्शित किये जा सकते हैं, जो मूल वस्तु में दिखाई नहीं
देते हैं। वाणिज्य में अध्यापक कई मशीनों का मॉडल प्रदर्शित कर सकता है।
शिक्षक को प्रतिरूप के प्रयोग के सम्बन्ध में निम्न बातों को ध्यान में रखना
चाहिए-
(1) प्रतिरूप वास्तविक वस्तु से मिलता-जुलता होना चाहिए।
(2) समय हो'पूर्व प्रतिरूप को कक्षा में प्रदर्शित नहीं करना चाहिए।
(3) प्रतिरूप के वे अंग अवश्य रखे जायें जो वास्तविक वस्तु में अधिक
महत्त्वपूर्ण होते हैं।
(4) प्रतिरूप की बाह्य रचना एवं सज्जा वास्तविक रूप के अनुरूप हो।
(5) प्रतिरूप आकर्षक होना चाहिए।
(6) प्रतिरूप को कक्षा में ऐसे स्थान पर रखा जाय। जहाँ से सभी छात्र उसे
आसानी से देख सकें।
(7) अध्यापक को प्रतिरूप के अंग एवं कार्यों का सरल. स्पष्ट तथा पर्याप्त
भाषा से छात्रों को समझाना चाहिए।
(ब) चित्र (Picture)-यदि प्रतिरूप उपलब्ध न हो तो अध्यापक चित्र प्रदर्शित
करके विषय-वस्तु को स्पष्ट कर सकता है। चित्र कक्षा के सम्मुख उस समय ही
प्रदर्शित किये जाते हैं, जब मूल वस्तु तथा उसका प्रतिरूप कुछ भी उपलब्ध न
हो। ये छात्रों की तर्कशक्ति व चिन्तन शक्ति को भी विकसित करते हैं।
वाणिज्य में अनेक मशीनों के प्रतिरूप नहीं दिखाये जा सकते हैं, अतः चित्र का
प्रदर्शन आवश्यक हो जाता है।
चित्रों से लाभ
(1) चित्र विषय-वस्तु को आकर्षक व रोचक बनाते हैं।
(2) चित्रों द्वारा अर्जित ज्ञान अधिक स्थायी होता है।
(3) चित्र छात्रों के ज्ञान को विषय वस्तु में केन्द्रित करते हैं।
(4) चित्र वास्तविकता के अधिक नजदीक होते हैं।
प्रयोग (Uses)-चित्रों का प्रयोग करते समय निम्न बातों को विशेष रूप से ध्यान
में रखा जाये-
(1) चित्र आकर्षक हों किन्तु चटकीले न हों।
(2) चित्र छात्रों की आयु के अनुसार हों।
(3) चित्रों के आकार कक्षा के आकार के अनुसार हों।
(4) चित्र यथासमय प्रस्तुत किये जायें, कार्य पूरा होते ही हटा लिए जायें।
(स) मानचित्र (Maps)-देश के विभिन्न राज्यों, पड़ोसी देशों की स्थिति और
विश्व के देशों की स्थिति का बोध करने के लिए मानचित्र का प्रयोग किया जाता
है। इनका व्यापक रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता है। जहाँ भी इनका प्रयोग
करना हो सावधानी से इनका प्रयोग करना चाहिए। इनका प्रयोग करते समय निम्न
सावधानियाँ रखनी चाहिए-
(1) मानचित्र में शुद्धता एवं स्थान का विशेष ध्यान रखा जाय।
(2) मानचित्र कक्षा के आकार के अनुसार हो।
(3) मानचित्र स्पष्ट हो।
(4) मानचित्र में पैमाना दिया होना चाहिए।
(5) मानचित्र पर छात्रों से कार्य कराया जाये।
(6) मानचित्र का प्रयोग आवश्यकता होने पर ही किया जाय, उपयोग के बाद हटा दिया
जाये।
(7) मानचित्र को उपयुक्त स्थान पर लटकाया जाये।
(द) ग्राफ रेखाचित्र रेखाकृति एवं चार्ट (Graph Sketches, Diagrams and
Charts)-वाणिज्य का अध्यापक वाणिज्यिक अर्थशास्त्र, आर्थिक भूगोल आदि
उपविषयों के अध्यापन के समय ग्राफ़ का उपयोग सांख्यिकी में करता है तथा
आँकड़ों को अध्यापक रेखाचित्रों द्वारा सरलता से समझा सकता है। वाणिज्य
शिक्षण में ग्राफ. रेखाचित्र, रेखाकृति एवं चार्ट का विशेष महत्त्व है। इनका
उपयोग करते समय अध्यापक को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) ग्राफ एवं चार्ट का प्रयोग छोटी कक्षाओं में नहीं करना चाहिए।
(2) ग्राफ को बनाते समय नियमों को ध्यान में रखना चाहिए।
(3) रेखाचित्र एवं रेखाकृति कक्षा के आकार के अनुरूप हो।
(4) सभी चीजें स्पष्ट एवं सरल हों।
(5) ग्राफ का पैमाना स्पष्ट होना चाहिए।
श्रव्य साधन
(AUDIO AIDS)
(अ) रेडियो-वर्तमान युग में रेडियो का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में भी
दिनोंदिन बढ़ रहा है। आकाशवाणी केन्द्र विभिन्न स्तरों के छात्रों के लिए
विभिन्न प्रकार के शिक्षा कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। आकाशवाणी से समय-समय
पर बजट सम्बन्धी, योजना सम्बन्धी वार्ता प्रसारित होती रहती है। इन
कार्यक्रमों द्वारा छात्र तथा शिक्षक दोनों को ही ज्ञान प्राप्त होता है तथा
उनका दृष्टिकोण विशाल होता है।
गुण-वाणिज्य-शिक्षण में रेडियो की उपयोगिता निम्न प्रकार से है-
(1) रेडियो द्वारा देश की आर्थिक नीति, आयात-निर्यात नीति का बोध कराना।
(2) विकास योजनाओं व आर्थिक नीति की जानकारी देना।
(3) बाजार भाव व समीक्षा की जानकारी देना।
(4) ग्रामीण ऋण व औद्योगिक ऋण की जानकारी देना।
(5) कृषि, खनिज, उद्योगों से परिचित कराना।
(6) इन कार्यक्रमों से छात्र व शिक्षक दोनों के ही दृष्टिकोणों में विशालता
आती है।
(7) योग्य व्यक्तियों की विचारधाराओं से छात्र नवीनतम विचारों से अवगत होते
हैं।
(8) कार्यक्रम मनोवैज्ञानिक विधि से प्रस्तुत किये जाते हैं। फलतः अत्यन्त
रोचक एवं बोधगम्य होने चाहिए।
(9) रेडियो से एक ही समय में बहुत बड़े समुदाय को शिक्षा प्रदान की जा सकती
है।
(10) रेडियो कार्यक्रम कक्षा शिक्षण की कमियों को पूरा करते हैं।
(11) रेडियो कार्यक्रम राष्ट्रीय शिक्षा में एकता लाते हैं।
कुछ सुझाव (Some Suggestions)
रेडियो द्वारा शिक्षा प्रदान करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है किन्तु इतना
महत्त्वपूर्ण होते हुए भी इसकी कुछ सीमाएँ हैं जैसे जिज्ञासा होने पर प्रश्न
नहीं पूछ सकते हैं. प्रसारण को दोहराया नहीं जा सकता है। मौसम की खराबी में
प्रसारण अस्पष्ट हो जाता है।
प्रसारण का समय विद्यालय समय से मेल नहीं खाता है। इन कमियों को दूर करने के
लिए निम्न सुझावों को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) रेडियो कार्यक्रम के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी आकाशवाणी केन्द्र से
प्राप्त कर ली जाय।
(2) रेडियो कार्यक्रम के लिए छात्रों में पूर्ण रुचि जाग्रत की जाय।
(3) छात्रों के बैठने की सुव्यवस्था की जाय।
(4) अच्छे रेडियो की व्यवस्था हो।
(5) कार्यक्रम के अन्त में वाद-विवाद या अन्य विधि से कार्यक्रम की विवेचना
की जाय।
(6) रेडियो कार्यक्रम से छात्र कितने लाभान्वित हुए इसका मूल्यांकन किया जाय।
(ब) टेपरिकॉर्डर-टेपरिकॉर्डर का भी वाणिज्य-शिक्षण में विशेष महत्त्व है। कुछ
सीमा तक उसका प्रयोग वाणिज्य-शिक्षण में किया जाना चाहिए। रेडियो का उपयोग ।
प्रत्येक समय सम्भव नहीं, जब छात्र खेलकूद या परीक्षा में व्यस्त हों इन
कार्यक्रमों को टेप करके रखा जा सकता है तथा आवश्यकतानुसार छात्रों को सुनाया
जा सकता है। टेपरिकॉर्डर रेडियो प्रसारण के दोषों को पर्याप्त मात्रा में
सुधार सकता है।
श्रव्य-दृश्य सामग्री
(AUDIO-VISUAL AIDS)
श्रव्य-दृश्य सामग्री वह सामग्री है जिसका देखने एवं सुनने दोनों में उपयोग
होता। शैक्षिक दृष्टिकोण से इस प्रकार की सामग्री अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
क्योंकि यह सामग्री हमारी मानसिक शक्तियों को दो प्रकार से प्रभावित करती
है-देखकर एवं सुनकर। मस्तिष्क पर इसका प्रभाव अधिक समय तक स्थायी रहता है।
क्योंकि ये सामग्रियाँ आँखें व कान में समन्वय स्थापित करती हैं। इस प्रकार
की सामग्री में प्रमुख रूप से चलचित्र तथा टेलीविजन को सम्मिलित करते हैं।
(अ) चलचित्र-शिक्षा में चलचित्रों का बड़ा महत्त्व एवं उपयोगिता है।
चलचित्रों में छात्र व्यक्तियों को वास्तविक परिस्थितियों में कार्य करते हुए
देखते हैं। चलचित्रों से अनेक. ऐसी वस्तुएँ दिखलाई जाती हैं जो अन्य किसी
विधि से नहीं दिखलाई जा सकती हैं। चलचित्रों के द्वारा सुदूर एवं पूर्व की
शताब्दियों से सम्बन्धित ज्ञान सहज ही प्रदान किया जा सकता है। चलचित्रों से
शिक्षण कार्य में उपलब्ध लाभों को निम्न प्रकार से अंकित कर सकते हैं-
(1) चलचित्रों में गति होती है और गति में तारतम्यता होती है फलतः ज्ञान में
भी तारतम्यता लायी जा सकती है।
(2) कई वस्तुओं को अन्य साधनों से उतने प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत नहीं कर
सकते हैं जितनी सरलता व सहजता से चलचित्रों से प्रस्तुत कर सकते हैं।
(3) चलचित्र छात्रों को वास्तविकता का बोध कराते हैं।
(4) चलचित्रों की गतिशीलता छात्रों के ध्यान को आकर्षित कर लेती है।
(5) चलचित्र सामान्य बुद्धि व मन्द बुद्धि छात्रों के लिए उपयोगी हैं।
चलचित्र-शिक्षण के सोपान
जेरोलिमिक ने अपनी पुस्तक में चलचित्रों के प्रदर्शन करने के सम्बन्ध में
निम्न सोपानों का वर्णन किया है-
1. स्वयं की तैयारी
(1) चलचित्र का चयन करें।
(2) चलचित्र के स्तर को देखें।
(3) चलचित्र की विषय-वस्तु का पूर्वाध्ययन करें।
(4) प्रदर्शन की योजना बनायें।
(5) उपलब्ध हो तो फिल्म गाइड प्रयोग करें।
(6) चलचित्र पाठों को सुरक्षित रखें।
2. कक्षा-कक्ष की तैयारी
(1) शीर्षकादि श्यामपट पर लिखें।
(2) सज्जा को व्यवस्थित करें।
(3) बैठने की व्यवस्था को देखें।
3. कक्षा की तैयारी
(1) चलचित्र की आवश्यकता बतायें।
(2) प्रेरित करें।
(3) असाधारण शब्दों का अध्ययन करें।
(4) मुख्य बिन्दुओं का उल्लेख करें।
(5) छात्रों के प्रश्नों को लिखें।
4. चलचित्र प्रदर्शन
(1) एक अध्यापक, एक कक्षा, एक चलचित्र।
(2) प्रकाश केन्द्रित करें।
(3) ध्वनि स्तर देखें।
(4) टूट-फूट देखें।
5. निष्कर्ष एवं अनुगमन
(1) छात्रों एवं शिक्षक के प्रश्नों का विवेचन करें।
(2) अनुगमन क्रियायें करें।
(3) नाटकीयकरण करें।
(4) अनुसन्धान करें।
(5) निष्कर्षों का मूल्यांकन करें।
(आ) टेलीविजन-टेलीविजन रेडियो का ही एक सुधारा हुआ रूप है। इस प्रकार
टेलीविजन का उसी प्रकार उपयोग किया जा सकता है जैसे रेडियो का । अन्तर केवल
इतना है कि रेडियो यदि दिखलाई नहीं दे तो कोई बात नहीं पर टेलीविजन ऐसे स्थान
पर रखा जाय जिससे उसे सब देख सकें। टेलीविजन के आगामी भाग पर एक पर्दा लगा
रहता है जिस पर कार्यक्रम प्रस्तुत करने वालों के चित्र भी आते रहते हैं।
इसकी वार्ताएँ अधिक प्रभावकारी होती हैं।
(1) प्रतिदिन नये-नये कार्यक्रम प्रसारित होते हैं।
(2) कुछ विशेष बातों व क्रियाओं में यह अधिक उपयोगी होता है।
(3) इसमें दोनों ज्ञानेन्द्रियों कान, आँख को शिक्षण प्राप्त होता है।
अन्य सहायक सामग्रियाँ
(OTHER AIDS)
(1) शिक्षा यात्राएँ (Educational Excursions)-शिक्षा यात्राएँ बाह्य पाठ
होते हैं। वाणिज्य के अध्ययन में व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए
यात्राएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती हैं। लोकसभा में बजट प्रक्रिया को दिखाया
जा सकता है, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के क्रियाकलापों का ज्ञान कराया जा सकता
है। शैक्षिक यात्राओं में वास्तविक कार्य देखकर उनके सम्बन्ध में छात्र
वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
शिक्षा यात्राओं से लाभ
(1) शिक्षा यात्राएँ छात्रों के अनुभव को बढ़ाती हैं ।
(2) शिक्षा यात्राएँ प्रत्यक्ष अनुभव प्रदान करती हैं।
(3) नवीनतम ज्ञान प्रदान करती हैं।
(4) शिक्षा यात्राएँ वास्तविकता का बोध करती हैं।
(5) प्रत्यक्ष ज्ञान अधिक स्थायी होता है।
(6) शिक्षा यात्राएँ अत्यन्त रोचक तथा स्वस्थ वातावरण प्रदान करने वाली होती
हैं।
शिक्षा यात्राओं का संचालन
(1) सर्वप्रथम यात्रा का उद्देश्य निर्धारित किया जाय।
(2) उचित स्थान का चयन किया जाय।
(3) यात्रा के लिए उचित अधिकारियों से पूर्वाज्ञा प्राप्त कीजिए।
(4) दिन व समय निर्धारित कीजिए।
(5) यात्रा-स्थल पर ठहरने, खाने-पीने की व्यवस्था पहले करनी चाहिए।
(6) प्रत्येक छात्र को एक-एक डायरी दी जाय।
(7) छात्रों को छोटे-छोटे समूहों में बाँटा जाय।
(8) छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान का विविध विधि से मूल्यांकन किया जाय।
(9) छात्रों की शंकाओं का यथाविधि निराकरण किया जाय।
(10) छात्रों की यात्रा का विस्तृत विवरण सफलता-असफलता की रिपोर्ट बनाकर
संचित कर ली जाय जिससे आगे सावधानी रखी जा सके।
(2) निरीक्षण-वाणिज्यशास्त्र का अध्यापक छात्रों को अलग-अलग नगरों के
कारखानों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों, बैंकों का निरीक्षण करने व व्यावहारिक
ज्ञान प्रदान करने के लिए छात्रों को निरीक्षण हेतु ले जाता है। इससे छात्रों
को व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। वाणिज्य के छात्रों को व्यापारिक
प्रतिष्ठानों का ज्ञान आवश्यक होता है वहाँ उन्हें लेजर, कैशबुक आदि का ज्ञान
कराया जा सकता है। इसी प्रकार बैंकों में पोस्ट ऑफिस के कार्यों का भी
निरीक्षण कराया जा सकता है। इस प्रकार का ज्ञान छात्रों को सुगमता से प्राप्त
हो जाता है तथा ज्ञान स्थायी भी रहता है।
(3) प्रदर्शनी (Exhibition)-वाणिज्य शिक्षण में विषय से सम्बन्धित प्रदर्शनी
भी छात्रों को अच्छा ज्ञान प्रदान करती है। वाणिज्य अध्यापन में प्रदर्शनी का
आयोजन करते समय निम्न बातों को विशेष ध्यान दिया जाय-
1. प्रदर्शनी में छात्रों द्वारा निर्मित वस्तुओं को प्रमुख स्थाने दिया जाय।
2. प्रदर्शनी में रखी गई वस्तुएँ विषय से सम्बन्धित होनी चाहिए।
3. प्रदर्शनी में रखी वस्तुओं को समझाने का कार्य छात्रों को दिया जाय ।
4. प्रदर्शनी की व्यवस्था में छात्रों से सहयोग प्राप्त किया जाय।
5. प्रदर्शनी में रखी वस्तुएँ उचित प्रकार सजाकर रखी जायें।
(4) सामुदायिक संसाधन (Community Resources) शिक्षण में विविध सामुदायिक
साधनों का अपना महत्त्व है। सामुदायिक साधन विषय से सम्बन्धित व्यावहारिक
शिक्षा देने के सशक्त साधन हैं। वाणिज्य शिक्षण के लिये वैसे तो सभी
सामुदायिक साधन किसी न किसी रूप में उपयोगी हैं लेकिन निम्नांकित साधन
वाणिज्य शिक्षण के लिये विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं-
(i) बैंक.
(ii) बीमा,
(iii) तारघर,
(iv) पोस्ट ऑफिस,
(v) बाजार.
(vi) शेयर बाजार,
(vii) कारखाने,
(viii) मण्डियाँ,
(ix) खानें (Mines),
(x) व्यापारिक तथा औद्योगिक संस्थान तथा संगठन:
(xi) परिवहन केन्द्र,
(xii) बन्दरगाह.
(xiii) हवाई अड्डा,
(xiv) दूरदर्शन:
(xv) साइबर कैफे.
(xvi) समाचार-पत्र कार्यालय,
(xvii) विद्युत उत्पादन घर,
(xviii) बाँध,
(xix) नदियाँ,
(xx) वन.
(xxi) वितरण केन्द्र,
(xxii) सामुदायिक भ्रमण, आदि-आदि।
सामुदायिक साधनों का महत्त्व (Importance ofcomments Resources)-वाणिज्य
शिक्षण के लिये सामुदायिक साधन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह महत्त्व
निम्नांकित बिन्दुओं से स्पष्ट होता है-
1. सामुदायिक साधन वाणिज्य की व्यावहारिक शिक्षा देते हैं।
2. सामुदायिक साधन शिक्षण को रोचक तथा सरस बनाते हैं।
3. सामुदायिक साधन छात्रों को समुदाय के सम्बन्ध में नवीनतम सूचनायें देते
हैं।
4. सामुदायिक साधन नये-नये अनुभव प्रदान करते हैं।
5. ये शिक्षण में नवाचार के रूप में कार्य करते हैं।
6. इनसे अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान स्वतः ही हो जाता है।
7. ये 'करके सीखने तथा स्वानुभव' के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों पर आधारित
शिक्षा प्रदान करती है।
8. सामुदायिक साधन छात्रों को कक्षा-कक्ष के नीरस वातावरण से मुक्ति दिलाते
हैं।
9. सामुदायिक साधन समुदाय की आर्थिक समस्याओं तथा स्थिति की सही जानकारी देते
हैं।
10. सामुदायिक साधन व्यक्तिगत गुणों का विकास करते हैं।
वाणिज्य शिक्षण में सामुदायिक साधनों का प्रयोग दो प्रकार से किया जा सकता
है।
1. विद्यालय के छात्रों को समुदाय के बीच ले जाकर तथा
2. समुदाय के व्यक्तियों को विद्यालय में बुलाकर उनसे समुदाय के सम्बन्ध में
जानकारी छात्रों को प्रदान करना।
वाणिज्य शिक्षण के लिये विशिष्ट सहायक सामग्री
अब तक हमने ऐसी सहायक सामग्रियों का अध्ययन किया है जो वाणिज्य के अथवा अन्य
विषयों के शिक्षण में भी सहायक होती हैं किन्तु कुछ सहायक सामग्री ऐसी भी हैं
जो विशिष्ट रूप से वाणिज्य से सम्बन्ध रखती हैं, जैसे-
1. प्रतिलिपिकरण यंत्र (Duplicator)
2. चैक लेखक (Cheque writer)
3. नोट गणक (Note counter)
4. टेलीफोन (Telephone)
5. कम्प्यूटर तथा इन्टरनेट (Computer and Internet)
6. छेदक यंत्र (Punching machine)
7. कैलकुलेटर (Calculator)
8. तारीख डालने वाली मशीन (Date machine)
9. पुस्तकालय यंत्र (Book-keeping machine)
10. चैक रक्षक (Cheque protector)
11. डिक्टाफोन (Dictaphone)
12. फाइल केबिनेट (File cabinet)
13. पत्रमोड़क यंत्र (Folding machine)
14. पता लिखने की मशीन (Address writer)
15. समय रिकॉर्डर (Time recorder)
16. स्कैनर (Scanner) आदि-आदि।
अभ्यास-प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न
1. वाणिज्य शिक्षण में सहायक सामग्री के महत्त्व पर विस्तार से चर्चा कीजिये।
वाणिज्य शिक्षण में आप कौन-कौन सी शिक्षण-सामग्री प्रयोग कर सकते हैं ?
2. वाणिज्य शिक्षण में प्रदर्शनात्मक या दृश्य सामग्री के प्रयोग पर अपने
विचार व्यक्त कीजिये।
3. वाणिज्य शिक्षण में कम्प्यूटर के उपयोग पर अपने विचार लिखिये।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
1. वाणिज्य शिक्षण में चित्रों का प्रयोग करते समय किन किन बातों को ध्यान
में रखेंगे? वाणिज्य शिक्षण में सामुदायिक साधनों के महत्त्व पर प्रकाश
डालिये।
3. वाणिज्य शिक्षण में शैक्षिक भ्रमण के महत्त्व को लिखिये।
4. वाणिज्य शिक्षण में चलचित्र का प्रयोग करते समय किन-किन बातों को ध्यान
में रखेंगे?
5. विशिष्ट रूप से वाणिज्य शिक्षण में काम आने वाले किन्हीं आठ यन्त्रों के
नाम लिखिये।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. श्यामपट वाणिज्यशास्त्र शिक्षण की किस सहायक सामग्री के अन्तर्गत आता है?
(अ) श्रव्य-दृश्य सामग्री
(ब) प्रदर्शनात्मक सहायक सामग्री
(स) परम्परागत सहायक सामग्री (द) श्रव्य साधन
2. शिक्षा यात्राएँ आन्तरिक पाठ होते हैं ?
(अ) सत्य
(ब) असत्य
3. प्रदर्शनी में रखी गई वस्तुएँ विषय से सम्बन्धित होनी चाहिए-
(अ) सत्य
(ब) असत्य
उत्तर-1. (स) परम्परागत सहायक सामग्री। 2. (ब) असत्य। 3. (अ) सत्य।
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