बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण वाणिज्य शिक्षणरामपाल सिंहपृथ्वी सिंह
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बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक
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वाणिज्य-शिक्षण एवं निर्देशन
(COMMERCE TEACHING AND GUIDANCE)
निर्देशन का अर्थ
'निर्देशन' का शाब्दिक अर्थ प्रदर्शन करना, इंगित करना तथा पथ-प्रदर्शन करना
है।
"To.guide means to indicate, to point out, to show the way. It means more
than to assist."
-Jones
यह अर्थ बड़ा ही संकुचित है। कुछ विद्वानों ने इसका अर्थ सहायता करना बताया
है। किन्तु जोन्स ने स्पष्ट लिखा है कि इसका अर्थ साधारण सहायता देने से अधिक
व्यापक है। निर्देशन किसी व्यक्ति की समस्या का समाधान नहीं करता है। इसमें
व्यक्ति को यह मार्ग बताया जाता है जिस पर चलकर व्यक्ति स्वयं समस्या को हल
कर सके। उदाहरण के लिए. किसी बालक को गणित का कोई प्रश्न हल करना नहीं आ रहा
है, वह अपने अध्यापक के पास पहुँचकर अपनी कठिनाई प्रकट करता है। एक अच्छा
अध्यापक एक योग्य निर्देशन भी होता है। वह उस प्रश्न को स्वयं हल करने के
स्थान पर छात्र की कठिनाई का निदान करके उसको प्रश्न हल करने का मार्ग
प्रशस्त करेगा और इस प्रकार छात्र को स्वयं हल करने के लिए प्रोत्साहित
करेगा।
'निर्देशन' एक ऐसा विवादास्पद शब्द है जिसकी व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने
अपने-अपने अनुसार की है। यहाँ पर कुछ विशिष्ट विद्वानों की परिभाषा देकर
निर्देशन शब्द के विभिन्न अर्थों को समझना उपयुक्त रहेगा।
किट्सन ने निर्देशन को परिभाषित करते हुए लिखा है शिक्षा का व्यष्टिकरण करने
का प्रयास ही निर्देशन है। प्रत्येक छात्र की स्वयं के अधिकतम विकास में
सहायता करनी चाहिये।
"Guidance is an attenript to individualize education. Each pupil should be
helped to develop himself in the maximum possible degree in all respects.:
-Kitson
यह परिभाषा बड़ी संकुचित दृष्टिकोण लिए हुए है। इसमें निर्देशन को केवल
शिक्षा तक ही सीमित कर दिया है जबकि निर्देशन का क्षेत्र बड़ा व्यापक है।
लीफिबर, टसेल और विट्रजिल ने भी निर्देशन को शिक्षा तक ही सीमित रखा है। उनके
अनुसार निर्देशन एक शैक्षिक सेवा है जो विद्यालय में प्राप्त शिक्षा का अधिक
प्रभावशाली उपयोग करने में छात्रों की सहायता करने के लिए आयोजित की जाती है।
"Guidance is an education service designed to help the students make more
effective use of the school training programme."
--Lefever, Tussel & Weitzil
यह परिभाषा भी निर्देशन को विद्यालय की सीमाओं तक बाँधकर रखती है। निर्देशन
केवल विद्यार्थी जीवन तक ही सीमित नहीं होता। यह तो जीवन भर चलने वाली
प्रक्रिया है।
कोक्स (Cox) के मतानुसार, निर्देशन शिक्षा में अन्तर्निहित है अतएव यह कार्य
अधिकांशतः कक्षाध्यापक द्वारा होना चाहिये। अध्यापक को चाहिये कि छात्रों
द्वारा स्वयं के लिए गतिशील, तर्कसंगत और उपयोगी लक्ष्य निर्धारित करने में
सहायता प्रदान करे। यह परिभाषा भी निर्देशन के अर्थ तथा क्षेत्र को संकुचित
बना देती है।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अधिकांश विद्वान निर्देशन को शिक्षा का
ही एक आवश्यक अंग मानते हैं। उनकी धारणा है कि निर्देशन केवल विद्यालय तक ही
सीमित है। इस विचारधारा के विपरीत कूज तथा केफ्यूवर ने स्पष्ट लिखा है,
निर्देशन को शिक्षा का पर्यायवाची नहीं समझा जाना चाहिये, क्योंकि निर्देशन
सम्पूर्ण शिक्षा नहीं है। निर्देशन के दो अंग हैं-(1) वितरण-जिसमें नवयुवकों
को प्रभावशाली ढंग से शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों में प्रतिष्ठापित किया
जाना चाहिये और (2) समायोजन- जिसमें नवीन अवसरों में प्रभावशाली समायोजन में
नवयुवकों की सहायता करनी चाहिये।
"Guidance is inherent in education and as such should be done largely by
classroom teacher. He should try to help pupils set up dynamic, reasonable
and worthwhile objectives for themselves."
-Cox
कूज का यह कथन तो सही है कि निर्देशन और शिक्षा समान अर्थ वाले शब्द नहीं
हैं। इन्होंने निर्देशन के दो पहलुओं पर विशेष बल दिया है। आधुनिक काल में
दोनों पहलू महत्त्वपूर्ण हैं। आज शिक्षा में विविध पाठ्यक्रम आरम्भ हुए हैं।
इसी प्रकार व्यवसायों में भी विविधता के प्रारम्भ होने से प्रत्येक व्यवसायों
में विशिष्ट कुशलता तथा प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। इसीलिए यह आवश्यक है
कि नवयुवक को अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार पाठ्यक्रम या व्यवसाय में
नवयुवकों को सन्तोषजनक समायोजन में सहायता प्रदान करना निर्देशन का
महत्त्वपूर्ण पहलू है।
"Guidance should not be regarded as synonymous with education. The concept
of guidance has two main phases : 0) The distributive phase whereby youth
may be distributed to educational and vocational opportunities as
effectively as possible, and (ii) The adjustive phase, whereby the
individual is helped to make the optional adjustment to the
opportunities."
-Koos&Kefanver
यह परिभाषा निर्देशन के अर्थ को कम स्पष्ट करती है और निर्देशन के उद्देश्य
पर अधिक बल देती है।
इलिस ने भी निर्देशन के समायोजन पक्ष पर अधिक बल दिया है। व्यक्तियों का अपने
वातावरण के साथ सन्तोषजनक और अधिक प्रभावपूर्ण सामंजस्य करने में सहायता
प्रदान करना ही निर्देशन है। इन्होंने भी समायोजन पक्ष पर अधिक बल दिया है।
यह एक मनोवैज्ञानिक पक्ष है कि प्रभावी समायोजन व्यक्ति की कार्यकुशलता पर
प्रभाव डालकर उसको मानसिक तनाव से मुक्त करता है। यह परिभाषा सहायता के
स्वरूप को स्पष्ट नहीं करती है।
एमरीस्ट्रप्स ने निर्देशन की परिभाषा इन शब्दों में व्यक्त की है-"निर्देशन
सहायता प्रदान करने की निरन्तर चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्तिगत तथा
सामाजिक दृष्टि से हितकारी क्षमताओं का विकास अधिकतम रूप से व्यक्ति में करती
है।
"Guidance is a continuous process of helping the individual to develop to
the maximum of his capacity in the direction most beneficial to himself
and to society."
-Emerystoops
इस परिभाषा में एक नवीन बात पर जोर दिया गया है-वह है सहायता का रूप। सहायता
नवयुवक के जीवन के किसी विशेष स्तर तक ही आवश्यक नहीं है, अपितु सहायता तो
किसी भी आयु-स्तर या जीवन क्षेत्र में आवश्यक रहती है। दूसरी विशेषता
प्रक्रिया से सम्बन्धित है। सहायता की निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया बताकर
स्टूप्स ने ने परिभाषा में नवीनता पैदा की है। इन्होंने युवकों के व्यक्तिगत
तथा सामाजिक दोनों पक्षों को सम्मिलित किया है। दोनों दृष्टियों से उपयोगी
क्षमताओं के विकास में सहायता देना निर्देशन है।
को तथा क्रो ने निर्देशन की परिभाषा देते हुए लिखा है-"निर्देशन आदेश देना
नहीं है। यह अपनी विचारधारा को दूसरों पर थोपना नहीं, यह उन निर्णयों का जो
एक व्यक्ति को अपने लिए स्वयं निश्चित करने चाहिये, निश्चित करना नहीं है। यह
दूसरे के दायित्व को अपने ऊपर लेना नहीं है वरन् निर्देशन तो वह सहायता है जो
एक कुशल परामर्शदाता द्वारा किसी भी आयु के व्यक्ति को अपने जीवन की दिशा
निश्चित करने, अपना स्वयं का दृष्टिकोण विकसित करने, स्वयं निर्णय लेने तथा
अपने दायित्व स्वयं वहन करने में दी जाती है।
"Guidance is not direction. It is not the imposition of ones point of view
upon another. It is not making decision for an individual which he should
make for himself. It is not carrying the burdens of another's life. Rather
guidance is assistance made available by competent counsellors to an
individual of any age to help him direct his life, develop his own point
of view, make his own decisions and carry his own burden."
-Crow&Crow
निर्देशन के बारे में व्याप्त अनेक भ्रमों को यह परिभाषा दूर करती है।
निर्देशक कभी भी आदेश नहीं देता है अपितु लादेश के स्थान पर परामर्श देता है।
परामर्श मानने के लिए व्यक्ति स्वतन्त्र होता है। परामर्शदाता अपना दृष्टिकोण
किसी व्यक्ति पर थोपता नहीं है अपितु वह युवकों को अपना दृष्टिकोण या
विचारधारा विकसित करने में सहायता करता है। निर्देशक व्यक्ति को अपने
उत्तरदायित्व स्वयं वहन करने का परामर्श देता है। स्पष्ट है कि निर्देशन
व्यक्ति के लिए समस्याओं का समाधान नहीं करता है। निर्देशन तो व्यक्तिगत
सहायता है जिसके द्वारा वह व्यक्ति में अन्तर्दृष्टि उत्पन्न करता है. जिससे
वह स्वयं समस्याओं का समाधान करने में समर्थ हो सके। इसी सन्दर्भ में जोन्स
का कथन सही प्रतीत होता है कि निर्देशन का केन्द्र-बिन्दु व्यक्ति होता है न
कि उसकी समस्या। इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के स्वनिर्देशन में उसकी सहायता
करना है।
आत्म-ज्ञान और स्वनिर्देशन निर्देशन के मुख्य बिन्दु हैं। उपरोक्त सभी
परिभाषाओं के विवेचन से निम्नलिखित तत्व उभरकर आते हैं-
1.निर्देशन कार्यक्रम संगठित होता है जिसमें एक व्यवस्था विद्यमान होती है।
2 निर्देशन विद्यालय व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है।
3. निर्देशन व्यक्ति.पर ध्यान देती है. समस्या पर नहीं।
4. निर्देशन में स्वयं की समस्याओं को स्वयं हल करने की योग्यता का विकास
बालकों में किया जाता है।
5. निर्देशन अन्तर्दृष्टि एवं आत्म-विकास की ओर प्रेरित करता है।
6. युवकों में छिपे गुण एवं क्षमताओं को ज्ञात कर उनके विकास के अवसर प्रदान
करता है।
7. निर्देशन एक प्रक्रिया है।
वाणिज्य-विषय के छात्र (Students of Commerce)
वाणिज्य विषय का सफल शिक्षण जितना महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है उतना ही और यदि
कहा जाय कि उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है-वाणिज्य विषय के अध्ययन के लिए उचित
तथा उपयुक्त छात्रों का चुनाव । वाणिज्य शिक्षक के लिये यह उचित तथा आवश्यक
है कि वह वाणिज्य विषय का अध्ययन करने के लिए बड़ी सावधानी के साथ उपयुक्त
छात्रों का चयन करे। वाणिज्य एक तकनीकी तथा विशिष्ट प्रकार का विषय है इसमें
सफलता के लिए छात्र में कुछ विशिष्ट योग्यताओं का होना आवश्यक है यदि वाणिज्य
विषय का अध्ययन कराने के लिए ऐसे छात्रों का चुनाव कर लिया जाता है जिनमें
अवांछित योग्यताओं तथा क्षमताओं का अभाव है तो वह छात्र वाणिज्य विषय में कभी
भी उन्नति नहीं कर सकता है। वाणिज्य विषय के अध्ययन के लिए वांछित योग्यताओं
तथा क्षमताओं से रहित बालक यदि वाणिज्य विषय का चुनाव अपने अध्ययन के लिये कर
लेता है, तो वह सदैव एक समस्या के रूप में कक्षा में कार्य करता है. * उसका
समायोजन शिक्षक, शिक्षण तथा कक्षा एवं विषय के साथ नहीं हो सकता है। इस
प्रकार के बालक समस्या बालक बन सकते हैं। उनमें अच्छी बौद्धिक योग्यता होते
हुए भी वे पर्याप्त शैक्षिक प्रगति नहीं कर सकते हैं, वे पिछड़े बालक बन जाते
हैं। आज हम सब व्यक्तिगत विभिन्नताओं के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। इस
सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक बालक शारीरिक तथा मानसिक रूप से एक-दूसरे से
पृथक होता है। यदि हम केवल मानसिक योग्यताओं तथा क्षमताओं की बात ही करें तो
कह सकते हैं कि प्रत्येक बालक में सामान्य बुद्धि (General Intelligence) तथा
विशिष्ट योग्यताओं (Specific Abilities) की मात्रा तथा संख्या पृथक्-पृथक
होती है। एक प्रतिभावान छात्र भाषा एवं कला में प्रवीण हो सकता है उसके लिए
यह आवश्यक नहीं कि वह वाणिज्य का भी सफल छात्र हो। अतः आवश्यकता इस बात की है
कि सर्वप्रथम छात्र की मानसिक योग्यताओं तथा क्षमताओं का पता लगाया जाय फिर
उनके आधार पर ही छात्रों का समुचित चयन वाणिज्य विषयों का अयन करने के लिये
किया जाना चाहिए। यदि व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखक वाणिज्य विषय
के अध्ययन के लिए उचित छात्रों का चयन किया जाता है तो ऐसे चयनित छात्र
वाणिज्य विषयों में आशातीत उन्नति कर सकेंगे, ऐसा सुनिश्चित है।
वाणिज्य के अध्ययन के लिए ऐसे छात्रों का चयन करने से अनेक प्रकार की
समस्याओं का उदय ही नहीं होता है। इस प्रकार के छात्र समाज तथा राष्ट्र के
उपयोगी नागरिक बनते हैं ।
व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार वाणिज्य विषय के अध्ययन के लिए छात्रों का
चयन कैसे किया जाय, इसके लिए अध्यापक को शैक्षिक निर्देशन (Educational
guidance) की सेवाओं की आवश्यकता होती है। शैक्षिक निर्देशन क्या है ? इसके
अनुसार उचित छात्रों का चुनाव कैसे किया जाता है, आदि तथ्यों का परिचय निम्न
रूप में दिया गया है।
1. शैक्षिक निर्देशन (Educational Guidance) वाणिज्य विषय के लिए छात्रों का
चुनाव करने के लिए छात्रों को शैक्षिक निर्देशन प्रदान करना चाहिए। शैक्षिक
निर्देशन से संक्षेप में तात्पर्य है-छात्रों को उनकी योग्यताओं का ज्ञान इस
प्रकार कराना जिससे वे अपनी शिक्षण सम्बन्धी निर्णय स्वयं अपने आप ले सकें।
इसे संक्षिप्त एवं सरल परिभाषा की व्याख्या के रूप में कहा जा सकता है कि यदि
छात्रों को यह ज्ञात हो कि उनमें कौन-कौन सी तथा किस मात्रा में मानसिक
योग्यतायें हैं और साथ ही उसे यह भी ज्ञान हो कि किसी शैक्षिक कार्यक्रम के
लिए कौन-कौन सी तथा कितनी मात्रा में विभिन्न मानसिक योग्यताओं का होना
आवश्यक है। इन दो पक्षों के ज्ञान के प्रकाश में वह यह निर्णय स्वयं ले लेने
की योग्यता रखेगा कि उसे किस प्रकार की शिक्षा ग्रहण करने की ओर अग्रसर होना
चाहिए। शैक्षिक निर्देशन की सहायता से हम बालक की विभिन्न मानसिक योग्यताओं
तथा क्षमताओं का पता लगा सकते हैं। बालक को विभिन्न मानसिक योग्यताओं तथा
क्षमताओं का पता लगाने के लिए शिक्षक किसी अच्छे बुद्धि-परीक्षण,
रुचि-परीक्षण, अभिरुचि-परीक्षण तथा निष्पत्ति-परीक्षण आदि का प्रयोग कर सकता
है।
(1) बुद्धि-परीक्षण--वाणिज्य विषय के अध्ययन के लिए छात्रों का चयन करते समय
सबसे पहले शिक्षक को छात्र की बुद्धि-परीक्षा लेकर यह पता लगा लेना चाहिए कि
छात्र का बौद्धिक स्तर क्या है। वाणिज्य की शिक्षा ग्रहण करने के लिए ऐसे
छात्रों का चयन किया जाय जिनका बौद्धिक स्तर पर्याप्त अच्छा हो क्योंकि
मानसिक स्तर से दुर्बल छात्र वाणिज्य विषय का अध्ययन सरलतापूर्वक नहीं कर
सकता है। वाणिज्य विषय एक तकनीकी तथा विशिष्ट विषय है। इसमें न केवल
संख्यायें, अंक तथा गणित ही है अपितु उनका बौद्धिक प्रयोग भी है। इस कार्य के
लिए उच्च बौद्धिक स्तर की आवश्यकता होती है।
(2) रुचि-परीक्षण-वाणिज्य-शिक्षण के अध्ययन के लिए छात्रों का चुनाव करते समय
छात्रों की रुचियों का भी पता लगाना चाहिए। जिन छात्रों का वाणिज्य विषय के
लिए चुनाव किया जाय उनमें वाणिज्य विषय के प्रति रुचि भी होनी चाहिए। यदि
छात्रों में वाणिज्य-विषय के प्रति रुचि का अभाव है तो वह छात्र कभी भी
वाणिज्य-विषयों में अच्छी निष्पत्ति प्रदर्शित नहीं कर सकता है। इसलिए
वाणिज्य विषय का चयन करते समय यह भी पता लगाना उपयोगी है कि बालक में वाणिज्य
विषयों के प्रति रुचि है अथवा नहीं। बालक में वाणिज्य विषयों के प्रति रुचि
का पता लगाने के लिए शिक्षक किसी रुचि-मापनी का प्रयोग कर सकता है अन्यथा वह
अपनी स्वयं की भी रुचि-मापनी निर्मित कर सकता है। सफल अध्यापक यदि इस दिशा
में अधिक न कर पाये तो एक संक्षिप्त साक्षात्कार के द्वारा भी बालक की रुचि
का पता लगा सकते हैं।
(3) अभिरुचि-परीक्षण-वाणिज्य दिषय के लिए बोलंकों का चयन करते समय उनकी
वाणिज्य विषयों में अभिरुचि का पता लगाना बड़ा ही उपयोगी एवं आवश्यक है
क्योंकि अभिरुचि भावी सफलताओं की सम्भावनाओं की ओर इशारा करती है। यदि बालक
में वाणिज्य विषय के प्रति अभिरुचि है तो इसका तात्पर्य है कि वह सम्भावना
प्रबल है कि वह बालक वाणिज्य विषयों में अच्छी उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकेगा।
बालक की अभिरुचि पर ही उसकी वाणिज्य विषयों में सम्भावित भावी प्रगति निर्भर
करती है। अतः वाणिज्य विषयों के लिए छात्रों का चयन करते समय बालक की
अभिरुचियों का भी शिक्षण को पता लगाना चाहिए। इस कार्य के लिए शिक्षक किसी भी
अच्छी एवं उपयुक्त अभिरुचि मापनी का प्रयोग कर सकता है।
(4) निष्पत्ति-परीक्षण-वाणिज्य विषयों के लिए छात्रों का चयन करते समय
छात्रों की गत शैक्षिक निष्पत्तियों (Achievements) का तथा वर्तमान शैक्षिक
स्तर का भी पता लगाना चाहिए। यदि बालक की गत निष्पत्तियों तथा वर्तमान
शैक्षिक स्तर औसत से अच्छा है तभी उसे अध्ययन के लिए वाणिज्य विषय देने
चाहिये। क्योंकि वाणिज्य-विषय एक ऐसा विषय है जिसका हर छात्र सफलतापूर्वक
अध्ययन नहीं कर सकता है । वाणिज्य-विषय के अध्ययन के लिये बालक को कड़ा
परिश्रम करना पड़ता है, इसमें पर्याप्त अभ्यास तथा सूझ-बूझ की भी आवश्यकता
होती है। छात्र की गत निष्पत्तियों का ज्ञान अध्यापक छात्र की पिछली कक्षाओं
के प्रगति-पत्रकों (Progress Report)से सहज ही कर सकता है तथा वर्तमान
शैक्षिक स्तर का पता लगाने के लिए किसी अच्छे निष्पत्ति परीक्षण (Achievement
Test) का प्रयोग कर सकता है। आवश्यक होने पर वह अपना स्वयं का निष्पत्ति
परीक्षण भी निर्मित कर सकता है।
वाणिज्य-विषय के लिये छात्रों का चयन करने के लिये उक्त तथ्यों के अलावा कुछ
अन्य सामान्य तथ्यों को भी ध्यान में रखना चाहिए। इस प्रकार के कुछ सामान्य
तथ्य निम्नांकित हैं-
(1) सामान्य सूचनायें-वाणिज्य-विषयों के लिये छात्रों का चयन करते समय
छात्रों के सम्बन्ध में कुछ उपयोगी सामान्य सूचनायें भी एकत्रित करनी चाहिये।
इस प्रकार की सामान्य सूचनाएँ आवश्यकता पड़ने पर बड़ी उपयोगी साबित होती हैं।
इस प्रकार की सूचनाओं में छात्र का नाम, उसके माता-पिता का नाम, उनकी शैक्षिक
योग्यता, उनका व्यवसाय, पता, आयु तथा आय, भाई तथा बहन, निवास की परिस्थितियाँ
आदि को सम्मिलित किया जा सकता है।
(2) शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य-वाणिज्य-विषयों के लिये छात्रों का चयन
करते समय छात्रों के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य का भी अध्ययन चयनकर्ताओं
को करना चाहिये। शैक्षिक स्तर पर बालक के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का
उल्लेखनीय एवं स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। वाणिज्य विषयों के अध्ययन के लिये ऐसे
छात्रों का चयन किया जाय जिनका शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य अच्छा तथा
सन्तुलित हो।
(3) भावी योजनायें तथा आकांक्षायें-वाणिज्य-विषय लेने वाले छात्र की भावी
योजनायें तथा आकांक्षाएँ क्या हैं। इस बात का भी शिक्षक को पता करना चाहिये
क्योंकि भावी योजनाओं तथा आकांक्षाओं का छात्र की उपलब्धियों पर उल्लेखनीय
प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, जो छात्र भविष्य में लिपिक बनना चाहता है वह
अधिक परिश्रम नहीं करना चाहेगा जबकि वह बालक जो सी० ए० बनना चाहता है वह
निश्चित रूप से अधिक परिश्रम करेगा। निश्चित रूप से उसकी शैक्षिक
निष्पत्तियाँ अच्छी रहेंगी। अतः छात्रों का चयन करते समय उसकी आकांक्षाओं तथा
भावी योजनाओं का भी पता लगाना चाहिए और सामान्यतः उन्हीं छात्रों को प्रवेश
देना चाहिये जिनकी भावी योजनाएँ तथा आकांक्षाएँ ऊँची हों।
उक्त तथ्यों के आधार पर यदि छात्रों का चयन किया जाये तो निश्चित रूप से
वाणिज्य-विषयों के लिए ऐसे छात्र आयेंगे जो भविष्य में अच्छी निष्पत्ति
प्राप्त कर सकते हैं तथा एक सफल वाणिज्यिक बन सकते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है
कि इन सभी तथ्यों से बुद्धि तथा अभिरुचि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। अतः
अध्यापक को कम-से-कम इन तथ्यों का विचार तो अवश्य ही करना चाहिये।
वाणिज्य विषय के लिये छात्रों का चयन
वाणिज्य विषय एक विशिष्ट विषय है जिसका सफलतापूर्वक अध्ययन करना हर सामान्य
छात्र के लिये सम्भव नहीं है। इस विषय में वही छात्र सफलता प्राप्त कर सकता
है जिसमें नीचे लिखे हुए कतिपय विशिष्ट गुण हों-
(1) उच्च बौद्धिक स्तर-वाणिज्य विषय में चही छात्र सफलता प्राप्त कर सकते हैं
जिनका बौद्धिक स्तर पर्याप्त मात्रा में उच्च हो। वाणिज्य में बहीखाता
अंकगणित आदि कई ऐसे विषय हैं जो उच्च बौद्धिक क्षमतायें चाहते हैं। इसलिये
सामान्य बुद्धि बालक वाणिज्य विषय में अपेक्षाकृत सफलता प्राप्त नहीं कर सकते
हैं।
(2) गणितीय ज्ञान-वाणिज्य विषय का अध्ययन करने के लिये जिन छात्रों का चयन
किया जाय उन्हें गणित सम्बन्धी अच्छा ज्ञान होना चाहिये। वाणिज्य के अनेक
विषय, जैसे-एकाउन्टेसी, अर्थशास्त्र, सांख्यिकी, औद्योगिक वित्त आदि ऐसे विषय
हैं जिनमें सफलता पाने के लिये पर्याप्त मात्रा में गणितीय ज्ञान होना आवश्यक
है।
(3) लगनशीलता-वाणिज्य विषय के अध्ययन के लिये जिन छात्रों का चयन किया जाय
उनमें लगनशीलता हो। यह विषय न केवल अपेक्षाकृत कठिन है, बल्कि यह विषय
छात्रों से अध्ययन के लिए अधिक समय की अपेक्षा रखता है।
(4) वाणिज्यिक अभिवृत्ति-वाणिज्य विषय के लिये ऐसे छात्रों का चयन किया जाय
जिनमें व्यवसाय के प्रति सम्मान हो तथा जिनमें वाणिज्यिक अभिवृत्ति हो, जो
धैर्य शुद्धता के साथ कार्य कर सके तथा जिनमें दूरदर्शिता की मात्रा अधिक हो
।
(5) भावी-योग्यता-वाणिज्य के छात्र को अनेक स्थलों पर उच्च भाषा-कौशल की
आवश्यकता पड़ती है। उसे अनेक प्रकार के पत्र लिखने होते हैं, सारांशीकरण करना
होता है, व्याख्या करनी होती है. तथ्यों का प्रस्तुतीकरण करना होता है तथा
अनेक स्थलों पर विवरण तथा प्रतिवेदन देना होता है। इन कार्यों को तभी
सफलतापूर्वक किया जा सकता है जब बालक के पास प्रचुर मात्रा में भाषागत
योग्यता हो।
(6) वाणिज्य-अध्यापक एवं निर्देशन-आज विद्यालयों में निर्देशन की आवश्यकता
तथा महत्त्व सर्वविदित है। विद्यालयों में यह कार्य सामान्यतः परामर्शदाता
किया करते हैं किन्तु उन्हें जब तक विद्यालय-अध्यापकों की इस कार्य में
सहायता न मिले. वे अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते हैं। वास्तच में निर्देशन
कार्य में सफल नहीं हो सकते हैं। वास्तव में निर्देशन कार्यक्रमों की सफलता
में प्रत्येक विषय-अध्यापक की अहम भूमिका होती है। वाणिज्य-शिक्षक को इस दिशा
में नीचे लिखे कार्य करने चाहिये-
1. छात्रों की मानसिक योग्यताओं का पता लगाना-वाणिज्य-शिक्षक को छात्रों की
मानसिक योग्यताओं का पता किसी अच्छे बुद्धि-परीक्षण की सहायता से लगाना
चाहिये। इससे उसे न केवल वाणिज्य-विषय के लिये छात्रों का चयन करने में
सुविधा मिलेगी अपितु चयनित छात्रों के लिये वह उपयुक्त शिक्षण की भी व्यवस्था
कर सकेगा।
2. छात्रों का अध्ययन-वाणिज्य शिक्षक के लिये यह भी आवश्यक है कि वह अपने
छात्रों के विषय में अधिक से अधिक सूचनायें एकत्रित करे। यह कार्य वह उनके
माता-पिता से सम्पर्क करके मित्र-मण्डली तथा अन्य उपयुक्त.मनोवैज्ञानिक
परीक्षाओं द्वारा कर सकता है।
3. व्यावसायिक सूचनाओं का संग्रह-वाणिज्य अध्यापक को चाहिये कि वह विभिन्न
व्यवसायों का रोजगारों के सम्बन्ध में अधिक से अधिक सूचनायें एकत्रित करे
क्योंकि वाणिज्य विषय पूरी तरह रोजगारोन्मुख है।
4. सूचना-प्रसारण-वाणिज्य-शिक्षक विभिन्न व्यवसार्यों तथा रोजगारों के
सम्बन्ध में सूचनायें एकत्रित करके उन सूचनाओं को छात्रों के मध्य प्रसारित
करता है। इसके लिये वह बुलेटिन-बोर्ड, भित्ति पत्रिका, सामयिक भाषण आदि
उपार्यों को काम में ले सकता है।
5. परामर्श-कार्य-वाणिज्य शिक्षक को परामर्श देने का कार्य भी करना चाहिये।
वैसे तो परामर्श देने का कार्य परामर्शदाता का है किन्तु वाणिज्य-शिक्षक एक
विशिष्ट परामर्श अपने छात्रों को अधिक भली प्रकार दे सकता है क्योंकि वह ही
ऐसा व्यक्ति है जो अपने छात्रों का सरलता से विश्वास प्राप्त कर सकता है।
परामर्श के लिये छात्रों का विश्वास प्राप्त करना अहम भूमिका रखता है।
6. नियुक्ति सेवा कार्य-वाणिज्य शिक्षक के लिये यह भी आवश्यक है कि वह न केवल
छात्रों का अध्ययन हेतु चयन करे, उसके लिये यह भी आवश्यक है कि वह अध्ययन-काल
में छात्रों की पूर्ण आवश्यक सहायता करे और उनके अध्ययन-काल में छात्रों को
रोजगार-अवसरों से परिचित कराये तथा उनको रोजगार में लिप्त होने में उनकी
आवश्यक सहायता भी करे। छात्रों का पूर्ण अध्ययन करने के बाद उन्हें परामर्श
देना कि उनके लिये कौन-सा व्यवसाय, नौकरी या रोजगार उपयुक्त है, अध्यापक का
कार्य है और इसमें उसे छात्रों की पूर्ण सहायता करनी चाहिये।
7. अनुगमन-कार्य-उसके द्वारा पदाये गये छात्र भावी जीवन में कितने सफल रहे,
उसके द्वारा प्रदत्त निर्देशन तथा परामर्श कहाँ तक सफल रहा. आदि का अध्ययन
करने के लिये उसे अनुगामी-सेवाओं (Follow-up services) का सहारा लेना चाहिये
जिससे वह अपनी कमी तथा अच्छाई जान सके। इसके लिये वह अपने छात्रों की पूर्व
छात्र परिषद् (Old Boys Association) जैसी संस्था बना सकता है। उसे चाहिये कि
वह नाना उपायों से अपने भूतपूर्व छात्रों के साथ सम्पर्क बनाये रखे।
अभ्यास प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न
1. निर्देशन का अर्थ बताइए तथा उसकी परिभाषा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
2. वाणिज्य विषय एक विशिष्ट विषय है जिसका सफलतापूर्वक अध्ययन करना हर...
सामान्य छात्र के लिए सम्भव नहीं है। स्पष्ट कीजिए।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
1. निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
(i) बुद्धि परीक्षण
(ii) रुचि परीक्षण
(iii) शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य
(iv) भावी योजनाएँ तथा आकांक्षाएँ
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. वाणिज्य-शिक्षण के पाठ्यक्रम को और आधुनिक व प्रगतिशील बनाने की आवश्यकता
है।
(अ) सत्य
(ब)असत्य
2. अध्यापक का व्यक्तित्व' ........एवं.........होना चाहिए।
3. प्रशिक्षण से व्यावसायिक........... व दक्षता प्राप्त होती है।
उत्तर-1. (अ) सत्य। 2. गत्यात्मक, प्रभावशाली। 3.जागरूकता।
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