बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण वाणिज्य शिक्षणरामपाल सिंहपृथ्वी सिंह
|
0 |
बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक
16
वाणिज्य-शिक्षण हेतु सहगामी क्रियायें
(CO-CURRICULAR ACTIVITIES FOR COMMERCE TEACHING)
पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं से हमारा तात्पर्य उन क्रिया-कलापों से है जो
छात्र से सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास करने तथा शिक्षा के पूर्व-निर्धारित,
लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता देती हैं। इस सम्बन्ध में प्रो० पठान ने
इन क्रियाओं को परिभाषित करते हुये लिखा है, पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं से
तात्पर्य उन छात्र क्रियाओं से है जिनमें छात्र अध्यापक के मार्गदर्शन में
कुछ उत्तरदायित्वों को सुनियोजित विधि से सम्पन्न करने के लिये भाग लेते हैं।
"Co-curricular activities constitute, significant component of a programme
of student activities in which the students participate under the guidance
of the teacher, issuming the responsibilities for planning their
activities."
-Prof. Pathan
सहगामी क्रियाओं का महत्त्व
विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण
स्थान प्राप्त है। इन क्रियाओं के महत्त्व को नीचे लिखे बिन्दुओं पर स्पष्ट
किया जा सकता है
(अ) छात्रों के लिये-
(1) मूलप्रवृत्तियों का शोधन तथा मार्गान्तरीकरण करती है।
(2) नागरिकता की शिक्षा प्रदान करती है।
(3) सामाजिक भावना का विकास करती है।
(4) अवकाश के समय का सदुपयोग करना सिखाती है।
(5) व्यक्तित्व तथा अन्तर्निहित शक्तियों का विकास करती है ।
(6) अनुशासन-स्थापना में सहायक होती है।
(7) मानवीय गुणों का विकास करती है।
(8) नैतिकता का विकास करती है।
(9) व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करती है।
(10) मनोरंजन के स्वस्थ साधन जुटाती है।
(ब) विद्यालय के लिये-
(1) शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होती है।
(2) विद्यालय के वातावरण को आकर्षक तथा ओजपूर्ण बनाती है।
(3) विद्यालय को समाज के निकट लाती है।
(4) शिक्षण को सरस तथा प्रभावी बनाती है।
(5) छात्रों की अन्तर्निहित शक्तियों की पहचान करने में सहायक होती है।
(स) समाज एवं राष्ट्र के लिये-
(1) समाज की सभ्यता एवं संस्कृति की शिक्षा देती है।
(2) सामाजिक मूल्यों का विकास करती है।
(3) देशभक्ति तथा राष्ट्रीय एकता का पाठ पढ़ाती है।
(4) जागरूकता तथा सजगता का पाठ पढ़ाती है।
(5) प्रजातन्त्रात्मक मूल्यों का विकास करती है।
(6) नेतृत्व गुणों का विकास कर समाज व राष्ट्र को कुशल नेता प्रदान करती है।
सहगामी क्रियाओं के प्रकार
किसी विद्यालय में अनेकानेक पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का विकास किया जा सकता
है। इन सभी प्रकार की क्रियाओं को निम्नांकित वर्गों में विभक्त किया जा सकता
है-
(1) शैक्षिक क्रियायें-साहित्य परिषद, विज्ञान-कला क्लब, भूगोल परिषद,
वाणिज्य परिषद आदि।
(2) शारीरिक क्रियायें-सामूहिक खेल. परेड, ड्रिल, तैरना, साइकिल चलाना, नाव
चलाना, एन० सी० सी० आदि।
(3) साहित्यिक क्रियायें-साहित्य सभा, वाद-विवाद परिषद पत्रिका-प्रकाशन,
बुलेटिन बोर्ड, दीवार पत्रिका आदि।
(4) नागरिकता प्रशिक्षण सम्बन्धी क्रियायें-सहकारी भण्डार, बालबैंक, श्रमदान.
बाल-सभा, स्वशासन, संसद आदि।
(5) संगीत तथा कला क्रियायें-संगीत-गोष्ठी, कवि-सम्मेलन, चित्रकला
प्रतियोगिता, विद्यालय-बैण्ड, नृत्य आदि।
(6) शिल्प-कला क्रियायें-सिलाई, बुनाई: कढ़ाई. मेंहदी रचना. खिलौना बनाना,
जिल्दसाजी. रेडियो बनाना या सामान्य अन्य उपकरण बनाना, मोमबत्ती बनाना, साबुन
बनाना आदि।
(7) सामान्य क्रियायें-भ्रमण, पिकनिक, ग्राम्य-पर्यवेक्षण, बालचर, स्काउटिंग,
प्रौढ़-शिक्षा, प्राथमिक शिक्षा आदि।
(8) अन्य क्रियायें-टिकिट या सिक्के संग्रह, फोटोग्राफी, एलबम बनाना,
संग्रहालय बनाना, सफाई एवं स्वच्छता अभियान आदि।
वाणिज्य-शिक्षण हेतु पाठ्यक्रम सहगामी क्रियायें
(CO-CURRICULAR ACTIVITIES FOR COMMERCE TEACHING)
वाणिज्य-शिक्षण के क्षेत्र में भी पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं को महत्त्वपूर्ण
स्थान प्राप्त है । पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं की सहायता से वाणिज्य विषय के
छात्र को इस विषय से सम्बन्धित अनेक प्रकार की जानकारी सहज स्वाभाविक तथा
व्यावहारिक रूप में प्रदान की जा सकती हैं। इन क्रियाओं के माध्यम से
वाणिज्य-शिक्षण की सरस तथा आकर्षक बनाया जा सकता है। वाणिज्य-शिक्षण को
प्रभावी बनाने के लिये निम्नांकित सहगामी क्रियायें अधिक सहायक सिद्ध हो सकती
हैं-
(1) वाणिज्य क्लब,
(2) वाणिज्य परिषद,
(3) उपभोक्ता सहकारी भण्डार,
(4) बाल-बैंक या बचत बैंक,
(5) पर्यवेक्षण तथा भ्रमण,
(6) डाकघर संचालन, (7) कार्य-गोष्ठी तथा सेमीनार.
(8) विवजन भाषण,
(9) वार्षिक पत्रिका तथा भित्ति-पत्रिका प्रकाशन तथा
(10) वाणिज्य-विषयक प्रतियोगितायें।
(1) वाणिज्य क्लब (Commerce Club)-छात्रों को वाणिज्य विषयों का विस्तृत तथा
व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करने के लिये वाणिज्य क्लब की स्थापना की जा सकती
है। इस क्लब में वाणिज्य-विषयक क्रिया-कलापों में भाग लेकर वाणिज्य विषय के
सम्बन्ध में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
(2) वाणिज्य परिषद (Commerce Association)-विद्यालय कला-परिषद, विज्ञान-परिषद
आदि के समान ही वाणिज्य-परिषद का भी गठन किया जा सकता है। यह परिषद अपने
तत्वावधान में अनेक तत्सम्बन्धी क्रियाओं का संचालन कर वाणिज्य-शिक्षण को
प्रभावी तथा सरस बना सकती है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि इस परिषद का
अपना स्वयं का एक विधान हो तथा विधान के अनुसार ही इसका गठन हो तथा यह परिषद
ही विभिन्न सहगामी क्रियाओं का नियोजित ढंग से संचालन करे।
(3) उपभोक्ता सहकारी भण्डार (Consumer's Store)-विद्यालय प्रांगण में
सहकारिता के आधार पर उपभोक्ता भण्डार स्थापित किया जा सकता है जिसमें छात्रों
के लिये उपयोगी वस्तुयें छात्रों के द्वारा विक्रय की जायें। इस भण्डार का
संचालन वाणिज्य शिक्षक की देखरेख में वाणिज्य छात्रों के द्वारा किया जाय। इस
स्टोर के लिये सामग्री का क्रय-विक्रय, हिसाब-किताब रखना, हानि-लाभ का विवरण
तैयार करना. लाभांश वितरित करना आदि सभी कार्य-क्षेत्रों के द्वारा ही किया
जाय।
(4) बाल-बैंक या बचत बैंक-छात्रों में बचत की आदत डालने तथा सहकारिता की
भावना का विकास करने के लिये विद्यालय में बचत बैंक की स्थापना की जा सकती
है। इससे छात्र बैंकों तथा उनकी कार्य-प्रणाली के सम्बन्ध में सही, विस्तृत
तथा व्यावहारिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, साथ ही उनमें छोटी-छोटी बचत
करने की आदत का विकास होता है।
(5) अमण तथा पर्यवेक्षण-छात्रों को विभिन्न व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, जैसे-
कल-कारखानों, उपभोक्ता भण्डारों, सहकारी समितियों, बैंक, डाकघर,
बीमा-प्रतिष्ठानों आदि का भ्रमण कराकर उनकी कार्य-विधि का पर्यवेक्षण कराकर
उनके सम्बन्ध में विस्तृत तथा वास्तविक जानकारी प्रदान की जा सकती है।
(6) डाकघर संचालन-विद्यालय प्रांगण में डाकघर के संचालन के द्वारा छात्रों को
डाकघर के संगठन, कार्य-प्रणाली, कार्यों तथा उसकी सेवाओं की विस्तृत तथा
व्यावहारिक जानकारी दी जा सकती है। यहाँ छात्र डाक डालने, प्राप्त करने. उनका
मूल्य, विभिन्न सेवाओं, खातों का रखना आदि की विस्तृत जानकारी प्राप्त कर
सकते हैं।
(7) कार्य-गोष्ठी तथा सेमीनार-समय-समय पर या किसी निश्चित कार्यक्रम के
अनुसार विद्यालय में दाणिज्य विषयों पर कार्य-गोष्ठी तथा सेमीनार आयोजित की
जा सकती हैं जिनमें छात्र तथा अन्य विद्वान वाणिज्य विषय सम्बन्धी विषयों पर
परिचर्या या प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं।
(8) विद्वजन भाषण-समय-समय पर या किसी निश्चित कार्यक्रम के अनुसार विद्यालय
में वाणिज्य विषय के विद्वानों के भाषण आयोजित किये जा सकते हैं। ये
भाषणकर्ता किसी बैंक, बीमा कम्पनी, औद्योगिक प्रतिष्ठान अथवा वाणिज्य विषय के
ज्ञाता हो सकते हैं। ये अपने प्रतिष्ठान की कार्य-प्रणाली की सही. सच्ची तथा
विश्वसनीय जानकारी छात्रों को सहज ही प्रदान कर सकते हैं।
(9) वाणिज्य-पत्रिका-वाणिज्य-परिषद के तत्त्वावधान में वाणिज्य विषय वार्षिक.
पत्रिका या साप्ताहिक अथवा मासिक भित्ति पत्रिका (Wall magazines) के प्रकाशन
का भी आयोजन किया जा सकता है। इससे छात्रों में लेखन की आदत विकसित होती है,
छात्र स्वाध्याय की ओर प्रवृत्त होते हैं तथा सम्पादन कार्य तथा प्रूफ-रीडिंग
का कार्य भी सीख जाते हैं।
(10) प्रतियोगितायें-समय-समय पर विद्यालय में वाणिज्य विषय से सम्बन्धित
विभिन्न प्रकार की प्रतियोगितायें आयोजित की जा सकती है। इस प्रकार की
प्रतियोगिताओं में हम नीचे लिखी सभी प्रकार की प्रतियोगिता सम्मिलित कर सकते
हैं-
1. टंकण प्रतियोगिता,
2. आशुलिपि प्रतियोगिता.
3. कैश-बुक तैयारी प्रतियोगिता,
4. स्क्रेप बुक या एलबम प्रतियोगिता, .
5. डाक टिकिट या सिक्का संग्रहःप्रतियोगिता,
6. वाद-विवाद प्रतियोगिता,
7. निबन्ध लेखन प्रतियोगिता।
आवश्यक नहीं कि वाणिज्य शिक्षण के लिये इन्हीं प्रतियोगिताओं का संचालन किया
जाय, शिक्षक आवश्यकतानुसार अन्य इसी प्रकार की विषय सम्बन्धी प्रतियोगिताओं
का आयोजन कर सकते हैं।
(11) पुस्तक-बीमा योजना-बीमा सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करने के लिये विद्यालय
में पुस्तक बीमा योजना लागू की जा सकती है। इस योजना से छात्र-बीमा सम्बन्धी
विभिन्न गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इससे छात्र सीखेंगे कि
बीमा कैसे किया जाता है, क्यों किया जाता है, इसके क्या लाभ हैं। क्षतिपूर्ति
कैसे होती है तथा बीमा कार्यालय में रखे जाने वाले कागजों, प्रपत्रों तथा
रजिस्टरों की भी जानकारी उन्हें उपलब्ध होती है।
(12) प्रिय-कार्य (Hobbies)-वाणिज्य शिक्षण के क्षेत्र में प्रिय-कार्यों का
भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रिय-कार्य जहाँ एक ओर आनन्द-प्राप्ति के साधन
हैं वहीं वे समय का सदुपयोग करना सिखाते हैं। कुछ प्रिय-कार्य तो छात्रों को
अच्छा उत्पादक तथा कारीगर भी बनने में सहायता देते हैं। प्रिय-कार्य छात्रों
में साधन जाने की शक्ति (Resourcefulness) का भी विकास करते हैं।
(13) वाद-विवाद-विद्यालय में छात्रों के लिये वाद-विवाद सभा का होना बड़ा
उपयोगी होता है। वाद-विवाद प्रतियोगितायें छात्रों में तर्क तथा चिन्तन करने
की शक्ति का विकास करती हैं। इससे छात्रों में समस्या समाधान शक्ति का विकास
होता है। वे अपने विचारों को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने की क्षमता का
निर्माण करते हैं तथा दूसरे के विचारों को ध्यानपूर्वक सुनकर ग्रहण करने की
शक्ति विकसित होती है। इन प्रतियोगिताओं से छात्रों की भाषण कला का विकास
होता है। वे समूह में बोलना व व्यवहार करना सीखते हैं। वाद-विवाद का संचालन
यदि जनतांत्रिक रूप से छात्रों द्वारा ही किया जाये तो छात्रों में नेतृत्व
गुण का विकास भी सम्भव होता है। इनसे छात्रों के ज्ञान में वृद्धि होती है,
उनके उच्चारण में शुद्धता आती है तथा स्वाध्याय की आदत का निर्माण होता है।
वाद-विवाद में भाग लेने में वे अध्ययन करते हैं। उनमें संकोच तथा दब्बूपन की
आदत का निवारण होता है।
विद्यालय को वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का संचालन तथा व्यवस्था बड़ी कुशलता के
साथ करनी चाहिये। इस सम्बन्ध में छात्रों के मानसिक तथा शारीरिक स्तर को सदैव
ध्यान में रखना चाहिये। वाद-विवाद के विषय का बड़ी सावधानी से चुनाव किया
जाये तथा विषय की सूचना छात्रों को निश्चित तिथि से काफी पूर्व ही दे दी
जाये।
वाद-विवाद किन्हीं एक-दो छात्रों का ही एकाधिकार न हो, इनके लिये सभी छात्रों
को भाग लेने को प्रेरित किया जाये।
वाद-विवाद सामाजिक विषयों से सम्बन्धित हो तो अच्छा है। वाद-विवाद का
निर्देशन तथा संचालन बड़ी कुशलता से करना चाहिये।
सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था एवं प्रशासन
विद्यालय में सहगामी क्रियाओं के संगठन, व्यवस्था तथा प्रशासन के समय निम्न
बातों को ध्यान में रखना चाहिये-
(1) विविधता-विद्यालय में विविध क्रियाओं की व्यवस्था की जाये जिससे सभी
छात्र व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर अपनी इच्छा, रुचि एवं योग्यता के आधार
पर इन क्रियाओं में भाग ले सकें।
(2) लोकतान्त्रिक सिद्धान्त-इनका संगठन व प्रशासन लोकतान्त्रिक पद्धति से
होना चाहिये। इनके संचालन में अध्यापक तथा छात्र दोनों का ही पूर्ण सहयोग
आवश्यक है।
(3) समय-सहगामी क्रियायें लम्बे समय तक न चले और जो कुछ भी चलें, सामान्यतः
वे विद्यालय समय में ही चलें।
(4) स्वीकृति-समस्त क्रियाओं के संचालन के लिये प्रधानाध्यापक की स्वीकृति
आवश्यक है। कुछ क्रियाओं के लिये अभिभावकों की स्वीकृति भी आवश्यक है।
(5) रोचकता-सहगामी क्रियायें रोचक तथा सरस हों। उनमें रंचनात्मकता का गुण भी
आवश्यक है।
(6) निरीक्षण-इन योजनाओं का समुचित निरीक्षण किया जाये। निरीक्षण
छिद्रान्वेषक न होकर उत्साहवर्द्धक तथा पथ-प्रदर्शक के रूप में होना चाहिये।
उपर्युक्त प्रमुख सिद्धान्तों के अलावा पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संचालन
में निम्नलिखित सामान्य बातों को भी ध्यान में रखना अनिवार्य है-
(1) सभी छात्रों को इन क्रियाओं में भाग लेने के समान अवसर प्रदान किये
जायें।
(2) किसी एक क्रिया को अनिवार्य न बनाया जाय।
(3) उच्च अधिकारियों का इनके संचालन में कम से कम हस्तक्षेप हो।
(4) इनके संचालन में छात्रों का अधिकाधिक सहयोग प्राप्त किया जाय।
(5) क्रिया के संचालन से पूर्ण उसका पर्याप्त प्रचार छात्रों में किया जाय ।
(6) पर्याप्त वित्तीय साधनों की व्यवस्था की जाय।
(7) क्रिया के पूर्ण होने पर उसका मूल्यांकन किया जाये तथा उसका विधिवत्
प्रतिवेदन तैयार करके उसे सुरक्षित रखा जाय।
(8) छात्रों को आवश्यक परामर्श व मार्गदर्शन करने की समुचित व्यवस्था की जाय
।
(9) प्रत्येक सहगामी क्रिया का शैक्षिक मूल्य होना चाहिये।
(10) कोई भी क्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व देख लिया जाय कि उसके संचालन हेतु
पर्याप्त साधन व सुविधायें उपलब्ध हैं।
(11) प्रत्येक क्रिया का कार्य एक अध्यापक की देखरेख में करें किन्तु उसी
अध्यापक को इंचार्ज बनाया जाय जिसमें उस क्रिया के संचालन हेतु रुचि व
योग्यता हो ।
(12) एक समय में कई प्रकार की क्रियायें एक साथ प्रारम्भ न की जायें।
(13) इनके सम्पादन से समय समाज तथा सामाजिक संस्थाओं का पूरा-पूरा सहयोग
प्राप्त करने के प्रयास किये जायें।
(14) इन क्रियाओं से संचालन में क्रिया के बाह्य मूल्य की अपेक्षा आन्तरिक
परिणामों को अधिक महत्त्व दिया जाय।
(15) क्रियाओं का प्रचार समाज में करना आवश्यक है जिससे छात्र, विद्यालय तथा
समाज एक-दूसरे के निकट आयेंगे।
अभ्यास-प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न
1. वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन
कीजिए।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
1. सहगामी क्रियाओं का क्या महत्त्व है?
2. सहगामी क्रियाओं के प्रकार बताइए।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. टौने ए० हरबर्ट की पुस्तक का नाम लिखिए।
2. वाणिज्य संकाय के लिए कितने कमरे अवश्य होने चाहिए?
(अ) चार
(ब) पाँच
(स) दो
(द)-छ.
उत्तर-1. वाणिज्य शिक्षा के सिद्धान्त। 2. (ब) पाँच।
|