बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण वाणिज्य शिक्षणरामपाल सिंहपृथ्वी सिंह
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बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक
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वाणिज्य का अध्यापक
(TEACHER OF COMMERCE)
शिक्षण एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसमें ज्ञान का ज्ञान के साथ सम्बन्ध
स्थापित कराया जाता है और इस सम्बन्ध को स्थापित कराने वाला अध्यापक ही होता
है। अध्यापक के लिए यह कहा जाता है कि यह वह धुरी है जिसके चारों ओर सम्पूर्ण
शैक्षिक व्यवस्था चक्कर लगाती है। जैसा कि प्रायः कहा जाता है अध्यापक आज भी
शैक्षिक प्रक्रिया में प्रमुख व्यक्ति है। वह विद्यालय की गत्यात्मक शक्ति
है। विद्यालय भवन एवं साज-सज्जा महत्त्वपूर्ण है और ठीक वैसा ही स्थान
पाठ्यक्रम, पाठ्य-पुस्तकों और प्रयोगशाला आदि का है लेकिन इन उपरोक्त सभी
बातों के होते हुए भी अध्यापक विहीन विद्यालय आत्मा रहित शरीर के समान है।
अध्यापक की महत्ता बतलाते हुए टी. रेमन्ट ने कहा कि योजना चाहे कितनी ही
व्यापक क्यों न हो, विद्यालय का भवन चाहे कितना ही व्यापक क्या न हो, साज
सज्जा कितनी ही आकर्षक क्यों न हो, जब तक उस योजना को क्रियान्वित करने वाले
अध्यापक सुयोग्य नहीं होंगे तब तक वह योजना उसी प्रकार निरर्थक एवं व्यर्थ
सिद्ध होगी जिस प्रकार एक अनाड़ी के हाथों में एक सुन्दर यन्त्र की स्थिति
होती है। अध्यापक को समाज व राष्ट्र निर्माता भी कहा जाता है तथा उसे मानव
अभियन्ता की संज्ञा भी दी जाती है।
आज शिक्षा जगत विशेषीकरण के युग में प्रवेश कर गया है। अनेकानेक गुणों के
'होते हुए भी वाणिज्य के अध्यापक में विषय के विशेष अध्यापन की योग्यता व
कुशलता उसकी सफलता के आयाम माने जा सकते हैं। वाणिज्य एक व्यावहारिक विषय है
यह केवल पुस्तकीय ज्ञान से ही न्याययुक्त शिक्षण नहीं प्रदान कर सकता है।
वाणिज्य की कई शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हैं इनके लिए वाणिज्य के अध्यापक में
विकसित एवं व्यावहारिक ज्ञान आवश्यक है। शिक्षा सम्पादन कार्य वाणिज्य के
अध्यापक में अनेकानेक गुणों की अपेक्षा रखता है। वाणिज्य के अध्यापक के लिए
कोई व्यापक एवं सही सूची प्रस्तुत करना सरल कार्य नहीं है फिर भी वाणिज्य के
अध्यापक में निम्नांकित गुणों की अपेक्षा की जा सकती हैं-
(1) शिक्षण व्यवसाय के प्रति निष्ठा भाव-अध्यापन कार्य एक व्यवसाय नहीं है।
यह तो स्वेच्छा पर आधारित एक नैतिक कार्य है। अतः एक अच्छे अध्यापक की
सर्वप्रथम शर्त यह है कि वह शिक्षक के अतिरिक्त और कुछ न हो उसमें अपने
शिक्षण व्यवसाय के प्रति प्रेम-लगाव व निष्ठा भावना होनी चाहिए। जो व्यक्ति
शिक्षण के प्रति प्रेम नहीं करता उसे कभी भी अध्यापन कार्य स्वीकार नहीं करना
चाहिए। शिक्षा जगत को ऐसे व्यक्तियों से सर्वाधिक क्षति उठानी पड़ती है जो
अनिच्छा से अध्यापक बन जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को मन अध्यापन कार्य में कभी
नहीं लगता है ऐसे व्यक्ति अपना कार्य न्याय युक्त ढंग से सम्पन्न नहीं कर
पाते हैं। उसमें चाहे अन्य कितने ही गुण क्यों न हो। इस गुण के अभाव में वह
कभी भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है। वाणिज्य के अध्यापक में भी जब तक अपने
व्यवसाय के प्रति निष्ठा भावना नहीं होगी वह शिक्षण कार्य में सफलता प्राप्त
नहीं कर पायेगा। व्यवसाय के प्रति निष्ठा भावना ही वाणिज्य के अध्यापक को
अपने शिक्षण कार्य में दक्ष एवं कुशल बनाती है। वाणिज्य के अध्यापक में अन्य
गुणों के प्रदर्शन तथा प्रयोग के लिए व्यावसायिक निष्ठा का होना आवश्यक है।
(2) विषय का ज्ञान-शिक्षण व्यवसाय के प्रति निष्ठा भावना के साथ-साथ
वाणिज्य-शिक्षण में वाणिज्य विषय के प्रति भी निष्ठा भावना होनी चाहिए। यदि
शिक्षक में विषय के प्रति निष्ठा नहीं है तो वह विषय शिक्षण में कभी रुचि
नहीं लेगा। वाणिज्य शिक्षक को विषय के प्रति निष्ठा के साथ ही साथ विषय का
विस्तृत एवं व्यापक ज्ञान होना चाहिए। वाणिज्य के अध्यापक को तत्सम्बन्धी सभी
विषयों के आधारभूत नियमों व तथ्यों का ज्ञान होना आवश्यक है। यदि उसे इनका
ज्ञान नहीं है तो वह अपने छात्रों की जिज्ञासाओं को शान्त नहीं कर पायेगा।
अध्यापक विषय के पर्याप्त ज्ञान के अभाव में कक्षा को विश्वास के साथ नहीं
पढ़ा पायेगा। वह छात्रों को ऐसे अवसर नहीं दे पायेगा जिससे छात्र प्रश्न पूछ
कर शंकाओं का समाधान कर सकें। वाणिज्य के अध्यापक को अपने विषय के उपविषयों
का भी पूरा ज्ञान होना आवश्यक है। शिक्षण के स्तर में सुधार लाने के लिए तथा
विषय के शिक्षण से सम्बन्धित कौशल का विकास विकसित करने के लिए विषय का पूर्ण
ज्ञान आवश्यक है। वाणिज्य के अध्यापक में. व्यापक दृष्टिकोण के निर्माण के
लिए विषय का उचित ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। ताकि वह विषय के हर पक्ष की
अधिकार पूर्वक व्याख्या प्रदान कर सके। वाणिज्य एक विस्तृत विषय है। इसका
क्षेत्र बड़ा ही व्यापक है अतः उसे विभिन्न पुस्तकों के साथ-साथ समाचार
पत्रों व पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपने ज्ञान को समूह व आधुनिक बनाने का
सतत् प्रयास करते रहना चाहिए।
(3) व्यावसायिक प्रशिक्षण-वाणिज्यशास्त्र के अध्यापक को प्रशिक्षित होना
अत्यन्त आवश्यक है। आधुनिक समय में शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए
तथा शिक्षा क्षेत्र में व विषय क्षेत्र में हो रहे नवीन प्रयोग के प्रति
जागरूक रहने के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण आवश्यक है। उचित व्यावसायिक
प्रशिक्षण के बगैर राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति करना सम्भव नहीं हो सकता
है और न शैक्षिक कार्य सफल हो सकते हैं। इसके साथ-साथ गुणात्मक सुधार लाने के
लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण को आवश्यक माना जाता है। वाणिज्य अध्यापक के लिए
आवश्यक दक्षता व कौशलता के विकास के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण की महत्ता को
सभी स्वीकारते हैं। वाणिज्य शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक प्रशिक्षण
प्रदान करने में क्षेत्रीय महाविद्यालयों ने सराहनीय कार्य किया है। क्योंकि
ये वाणिज्य-शिक्षण के लिए विशेष पाठ्यक्रम संचालित कर रहे हैं तथा विशेषज्ञ
शिक्षण पद्धतियों के साथ-साथ आवश्यक ज्ञान व कौशल पर भी बल दे रहे हैं।
वाणिज्य-शिक्षण के पाठ्यक्रम को और आधुनिक व प्रगतिशील बनाने की आवश्यकता है।
व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता निम्न कारणों से है-
(1) प्रशिक्षण से व्यावसायिक जागरूकता व दक्षता प्राप्त होती है।
(2) बाल मनोविज्ञान का ज्ञान प्राप्त होता है जिससे वे छात्रों की रुचि, स्तर
व योग्यतानुसार व्यवहार करते हैं।
(3) व्यावसायिक कुशलता बढ़ती है। विभिन्न विधियों, युक्तियों व प्रविधियों से
परिचित होते हैं।
(4) पाठ को योजनाबद्ध ढंग से प्रस्तुत करना सीखते हैं।
(5) अध्यापक में अनुशासन बनाये रखने का गुण आता है।
(6) राष्ट्रीय आकांक्षाओं व आवश्यकतानुसार कार्य कर सकते हैं।
(7) छात्रों की उपलब्धियों व निर्धारण व मूल्यांकन की योग्यता आती है।
(8) सैद्धान्तिक एवं प्रयोगात्मक तत्त्वों का गुण विकसित हो जाता है।
(4) सामयिक घटनाओं का ज्ञान-आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान का युग
परिवर्तन तथा नवीनता का जनक है। समय की बदलती परिस्थितियों के अनुसार आज
आवश्यक है। वाणिज्य विषय गतिशीलता व नूतनता के लिए आवश्यक धरातल प्रस्तुत
करता है। वाणिज्य के अध्यापक को सामयिक घटनाओं की जानकारी होना अत्यन्त
आवश्यक है। सामायिक घटनाओं के अभाव में वह न तो सही आर्थिक स्थिति को जान
पायेगा न ही आर्थिक स्थिति की सही समीक्षा ही प्रस्तुत कर पायेगा। आज
अनेकानेक समाचार पत्रों व पत्र-पत्रिकाओं में वाणिज्य सम्बन्धी व तत्सम्बन्धी
तथ्य व आँकड़े उपलब्ध होते रहते हैं और समय-समय पर इन आँकड़े व तथ्यों में
परिवर्तन भी होते रहने की माँग पूर्ति परिस्थितियाँ इन्हें प्रभावित करती
रहती हैं। अतः वाणिज्य के अध्यापक को विषय के प्रति उचित न्याय करने के लिए
तथा उचित ज्ञान अर्जन करने के लिए विभिन्न विषयक पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के
निरन्तर सम्पर्क में रहना चाहिए तथा विचारगोष्ठियों, सेमीनार सिमोजियम में
सक्रिय रूप से भाग लेते रहना चाहिए।
(5) आर्थिक समस्याओं का ज्ञान-वाणिज्य-शिक्षा शिक्षा प्रक्रिया का वह पहलू है
जो एक ओर व्यापारिक धन्धों की व्यावसायिक तैयारी अथवा वाणिज्य शिक्षण से
सम्बन्धित धन्धों के लिए तैयारी से सम्बन्धित है तथा दूसरी ओर वाणिज्य
सम्बन्धी ऐसी सूचनाओं एवं अभिज्ञताओं से सम्बन्धित है जो हर नागरिक और
उपभोक्ता के लिए आर्थिक और वाणिज्यिक वातावरण को ठीक प्रकार से समझने की
दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। वाणिज्य-शास्त्र के अध्यापक को समाज व राष्ट्र की
आर्थिक स्थिति व उनकी समस्याओं को तात्कालिक ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि
वाणिज्य-शास्त्र एक व्यावहारिक व गतिशील विषय है इसका सम्बन्ध समाज राष्ट्र व
अन्तर्राष्ट्रीय जगत के आर्थिक पहलू से जुड़ा होता है। यह छात्रों को व्यापार
उद्योग योजनाओं के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रभावों का भी अध्ययन कराता है।
वाणिज्य के अध्यापक को समाज के सभी वर्गों के लोगों की आर्थिक समस्याओं का
ज्ञान भी होना चाहिए। वाणिज्य के अध्यापक को ग्रामीण एवं शहरी वातावरण व उनकी
आर्थिक समस्याओं की भी जानकारी होनी चाहिए।
(6) प्रयोगात्मक ज्ञान-वाणिज्य एक ऐसा विषय है जिसके लिए केवल पुस्तकीय ज्ञान
ही पर्याप्त नहीं है। इस विषय से अध्यापक को प्रयोगात्मक ज्ञान पर भी उतना ही
अवलम्बित रहना पड़ता है। यह एक व्यावहारिक विषय है अतः इस विषय के अध्यापक को
अपने विषय के अनेकानेक पक्षों के उचित स्पष्टीकरण के लिए प्रयोगों का सहारा
लेना पड़ता है। व्यापार पद्धति में सेविंग बैंक खाता समझाते समय इंससे
सम्बन्धित फार्म दिखा कर उन्हें उनसे भरवाकर समझाना पड़ता है। इसी प्रकार
औद्योगिक प्रतिष्ठानों व उनकी क्रिया-कलापों को व्यवहार में दिखाकर समझाने पर
ही वे स्थायी प्रभाव छोड़ती है। अतः वाणिज्य के अध्यापक के लिए सैद्धान्तिक
ज्ञान के साथ व्यावहारिक ज्ञान व उसका उचित प्रयोग भी आवश्यक है तभी वह अपने
छात्रों को गतिशील आधुनिक, व्यावहारिक व प्रयोगात्मक ज्ञान देने में सफल हो
सकता है।
(7) मनोविज्ञान का ज्ञान-व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण छात्रों की रुचियों,
मानसिक क्षमताओं, शारीरिक विशेषताओं तथा उनके व्यक्तित्व में पृथकता आ जाती
है। अध्यापक को सफल शिक्षण के लिए व्यक्तिगत विभिन्नताओं को समझना आवश्यक सफल
शिक्षक छात्रों को उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं के अनुसारे शिक्षा प्रदान करता
है। अध्यापक में व्यक्तिगत क्षमताओं को समझने की योग्यता होनी चाहिए। इसके
लिए अध्यापक को शिक्षा मनोविज्ञान व बाल-मनोविज्ञान का व्यावहारिक ज्ञान होना
आवश्यक है। जिस अध्यापक को ऐसा ज्ञान होता है वह छात्रों के साथ उचित व्यवहार
करता है। मनोविज्ञान का ज्ञाता होने पर ही वाणिज्य का अध्यापक विभिन्न आयु व
स्तर के बालकों को उनकी प्रवृत्तियों के आधार पर उपयुक्त शिक्षा प्रदान कर
सकेगा। इसके आधार पर वाणिज्य का अध्यापक विभिन्न विधियों व प्रविधियों का
उपयोग कर सकता हैं तथा विषय को सुरुचिपूर्ण बना सकता है। इस प्रकार वह
छात्रों के दृष्टिकोण को अनुकूल बना सकता है तथा विषय को सार्थक बना सकता है।
(8) प्रभावशाली व्यक्तित्व-अध्यापक का व्यक्तित्व गत्यात्मक एवं प्रभावशाली
होना चाहिए। अच्छे व्यक्तित्व में कई गुणों का समावेश होता है जैसे शारीरिक
बनावट, बुद्धि, वेशभूषा, सामाजिकता एवं संवेगात्मक परिपक्वता एवं चारित्रिक
गुण आदि आते हैं। अध्यापक अपने व्यक्तित्व के प्रभाव की छाप बालकों पर छोड़ता
है तथा वह अन्य व्यक्तियों पर भी प्रभाव डालता है। समाज के लोग अध्यापक को
कार्य करते हुए प्रत्यक्ष नहीं देखते हैं वे प्रायः उनसे बाहर ही मिलते हैं,
और यदि वह उन्हें अपने व्यवहार से प्रभावित करता है तो उसे लोग अच्छा अध्यापक
कहने लगते हैं। बालक भी गत्यात्मक व्यक्तित्व वाले अध्यापकों को जीवन भर याद
रखते हैं तथा उनके व्यक्तित्व की चर्चा करने में गौरव समझते हैं। शिक्षक का
स्वभाव व व्यवहार भी व्यक्तित्व के अन्तर्गत आते हैं उसका मानसिक स्वास्थ्य
ठीक होना चाहिए उसकी वाणी में ओज व स्पष्टता होनी चाहिए तथा उसमें सहानुभूति,
सद्भावना, सहिष्णुता के गुण भी आवश्यक है। उसे नम्र और मधुर भाषी होना चाहिए।
संयमशील, धैर्यवान और चरित्रवान होना चाहिए।
(9) अनुशासन प्रिय-आज सर्वत्र चाहे समाज हो या राष्ट्र हो. अनुशासन का
महत्त्व नकारा नहीं जा सकता है। अनुशासन के बिना किसी भी क्षेत्र में प्रगति
सम्भव नहीं हो सकती है। किसी देश का अध्यापक वर्ग अनुशासित है तो वह
राष्ट्र निःसन्देह अनुशासित राष्ट्र का सर्जन करते हैं। अनुशासित
अध्यापक नियमितता एवं समय के पाबन्दी पर बल देता है। ये गुण आगे चलकर छात्रों
को अनुशासित बनाने में सहायत प्रदान करते हैं। अनुशासनहीनता की अनेक समस्याओं
का निराकरण अनुशासनप्रिय अध्यापक से हो जाता है।
(10) जनतन्त्रात्मक दृष्टिकोण-आज के प्रजातान्त्रिक युग में एक सफल अध्यापक
का दृष्टिकोण प्रजातान्त्रिक होना नितान्त आवश्यक है। अध्यापक में समानता
स्वतन्त्रा, बन्धुत्व एवं न्याय आदि प्रजातन्त्र के प्रमुख सिद्धान्तों के
प्रति अटूट आस्था होनी चाहिए। प्रत्येक छात्र के व्यक्तित्व का उसे आदर करना
चाहिए। भेदभाव रहित एवं न्यायोचित व्यवहार करना चाहिए। उसमें बालक की
स्वतन्त्रता में अटूट आस्था होनी चाहिए ताकि वे निर्भय होकर अपनी अभिव्यक्ति
कर सकें।
(11) शिक्षण कला में प्रवीण-शिक्षण कला का ज्ञान एक सफल अध्यापक की प्रमुख
विशेषता होती है। प्रगतिशील शिक्षण-विधियों में वह दक्ष होना चाहिए। प्रो०
रायबर्न के शब्दों में अध्यापक को बाल अध्ययन में उत्साहित. अपने विषय में
उत्साहित एव विधि के सम्बन्ध में उत्साहित होना चाहिए। उपयुक्त. शिक्षण विधि
के अभाव में उचित शिक्षा देना कठिन है। शिक्षा के उद्देश्य चाहे कितने ही
महान क्यों न हो जब तक अध्यापक उपयुक्त विधि का प्रयोग नहीं करेगा तब तक वह
उन उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकेगा।
(12) नेतृत्व-अध्यापक को नेतृत्व की भूमिका भी निभानी होती है। उसे
विद्यार्थियों व अन्य लोगों का मार्गदर्शन करना होता है। लेकिन यह नेतृत्व
ऐसा होना चाहिए जो अपनी शक्ति और प्रभाव के लिए अपने उदात्त चरित्र एवं
विद्यार्थियों की आदर भावना पर आधारित हो। वह मधुर सम्बन्धों द्वारा सम्मान
अर्जित करता है। उसे वचन का पक्का एवं व्यवहार में शिष्ट होना चाहिए। तभी वह
अपने विद्यार्थियों एवं समुदाय का सफल नेतृत्व कर सकेगा।
अभ्यास-प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न
1. वाणिज्य शिक्षक के लिये आवश्यक गुणों की चर्चा कीजिये।
2. वाणिज्य शिक्षक में किन-किन विशेषताओं का होना आवश्यक समझते हैं ?
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
1. वाणिज्य शिक्षक के लिये प्रशिक्षण प्राप्त होना क्यों आवश्यक है ?
2. वाणिज्य अध्यापक को सामाजिक, आर्थिक समस्याओं का ज्ञान होना क्यों आवश्यक
है?
3. वाणिज्य अध्यापक कुछ गुणों का विकास कर सकता है तथा कुछ का नहीं। बताइये
वह किन गुणों का विकास कर सकता है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. समन्वय या सहसम्बन्ध का अर्थ है दो या अधिक वस्तुओं, घटनाओं या विचारों
में सम्बन्ध स्थापित करना।
(अ) सत्य
(ब) असत्य
2. शिक्षाक्रम के विभिन्न विषयों का परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना कौन-सा
समन्वय कहलाता है?
(अ) शीर्षस्थ
(ब) अनुप्रस्थीय
3. वाणिज्यशास्त्र का किस विषय से घनिष्ठ सम्बन्ध है?
(अ) अर्थशास्त्र
(ब) भूगोल
(स) समाजशास्त्र
(द) मनोविज्ञान
उत्तर-1. (अ) सत्य । 2. (ब) अनुप्रस्थीय। 3. (अ) अर्थशास्त्र।
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