बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण वाणिज्य शिक्षणरामपाल सिंहपृथ्वी सिंह
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बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक
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वाणिज्य का अन्य विषयों से सह-सम्बन्ध
(CORRELATION OF COMMERCE WITH OTHER SUBJECTS)
जीवन एक इकाई है. जीवन रूपी इस इकाई के अनेक पहलू होते हैं। जीवन के इन
विभिन्न पहलुओं को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है। इनमें घनिष्ठ
सम्बद्धता होती है। इन पहलुओं में एक पहलू ज्ञान भी है। ज्ञान के भी कई खण्ड
तथा शाखाएँ होती हैं। हम इन विभिन्न खण्डों व शाखाओं को भी सम्बन्ध विहीन
अवस्था में नहीं देख सकते हैं ज्ञान के समस्त खण्ड बाह्यरूप से पृथक्-पृथक
होते हुए भी मूल रूप में एक होते हैं। जिस प्रकार एक वृक्ष की सभी शाखाएँ एक
दूसरे से अलग-अलग दिखलाई देती हैं किन्तु वे मूल के द्वारा एक दूसरे से
सम्बन्धित होती हैं ठीक उसी प्रकार विभिन्न विषय अलग-अलग ज्ञान प्रदान करते
हुए दिखलाई देते हैं किन्तु वास्तव में सभी विषय एक ही वस्तु में वृद्धि करते
हैं वह है मानवीय ज्ञान। इसलिए विभिन्न विषयों को ज्ञान के पृथक्-पृथक् साधन
सोचना भूल है, सभी एक हैं। हमको चाहिए कि हम विभिन्न विषयों से प्राप्त ज्ञान
को पृथक-पृथक् खण्डों में विभाजित करना भूल है। सभी विषय एक ही उद्देश्य की
प्राप्ति करते हैं। फलतः उन्हें साथ ही साथ एक दूसरे से सम्बन्धित करते हुए
पढ़ाना चाहिए तभी व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो सकता है। तभी हम सही ढंग से
विषयों का आत्मीकरण कर सकते हैं। सभी ज्ञान अखण्ड हैं। उसके खण्ड करना एक
बड़ी भूल है। अध्यापक को चाहिए कि ज्ञानार्जन की सुविधा की दृष्टि से इस
अखण्डता को बनाये रखें।
समन्वय या सहसम्बन्ध का अर्थ है दो या अधिक वस्तुओं, घटनाओं या विचारों में
सम्बन्ध स्थापित करना। शिक्षा में समन्वय या सहसम्बन्ध का अर्थ है विभिन्न
विषयों का इस प्रकार से शिक्षण करना कि उनसे प्राप्त ज्ञान में सम्बन्ध हो।
उन्हें एक दूसरे सहसम्बन्धित करके पढ़ाया जाय। एक विषय को पढ़ाते समय कभी-कभी
ऐसे सन्दर्भ आ जाते हैं जो दूसरे विषयों से सम्बन्धित होते हैं। इन सदर्भो को
दूसरे विषय के साथ सम्बन्धित कर देना शिक्षा में समन्वय कहलाता है।
शिक्षा में समन्वय का सर्वप्रथम प्रयोग हरबर्ट ने किया। शिक्षा के क्षेत्र
में समन्वय के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए हरबर्ट ने कहा कि
शिक्षा में समन्वय होना चाहिए जिससे एक विषय पढ़ाते समय यदि उसका सम्बन्ध
अन्य विषय से कर दिया जाय तो विषय अधिक रोचक एवं आकर्षक बन जाता है। हरबर्ट
ने किसी एक विषय का ज्ञान इस प्रकार प्रदान करने को कहा कि वह ज्ञान अन्य
विषयों के ज्ञान प्राप्त करने में सहायक हो। विभिन्न विषयों की विषय वस्तु इस
प्रकार, व्यवस्थित करनी चाहिए कि उनसे प्राप्त ज्ञान में एकता तथा अखण्डता
हो। हरबर्ट ने जिस समय समन्वय का यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया तब से लेकर अब
तक समन्वय के क्षेत्र में अनेक विकास हो चुके हैं। अब शिक्षाशास्त्री न केवल
विभिन्न विषयों में सहसम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं। समन्वय के
सम्बन्ध में अब वे एक ही विषय के विभिन्न अंगों में भी समन्वय की बात करते
हैं। समन्वय के सम्बन्ध में इसके अलावा और भी अनेक परिवर्तन हुए हैं। जैसे
हरबर्ट के शिष्य के समन्वय के स्थान पर 'केन्द्रीकरण' शब्द का प्रयोग किया है
और ड्यूवी ने 'सामंजस्यीकरण' शब्द का प्रयोग किया है। शब्द चाहे कोई भी
प्रयोग किया जाय उसके सिद्धान्त तथा उद्देश्य एक ही होते हैं।
समन्वय के प्रकार
वर्तमान समय में समन्वय के निम्नांकित तीन रूप देखने को मिलते हैं-
(1) शीर्षस्थ समन्वय।
(2) अनुप्रस्थीय समन्वय।
(3) जीवन से समन्वय।
(1) शीर्षस्थ समन्वय-जब एक ही विषय में विभिन्न अंगों में सम्बन्ध स्थापित
किया जाता है तो उसे शीर्षस्थ समन्वय कहते हैं। वाणिज्य-शास्त्र के विभिन्न
अंगों में सम्बन्ध स्थापित करना इसी प्रकार का समन्वय कहलाता है। जैसे
वाणिज्य का अध्यापक देशी व्यापार पढ़ाते समय देशी व्यापार के सम्बन्ध में
जानकारी दे सकता है तथा बीजक एवं विदेशी बीजक में समन्वय स्थापित करा सकता
है। इससे पाठ रोचक व प्रभावी बन जाता है। इस प्रकार का समन्वय शीर्षस्थ
समन्वय कहलाता है।
(2) अनुप्रस्थीय समन्वय-शिक्षाक्रम के विभिन्न विषयों का परस्पर सम्बद्ध
स्थापित करना अनुप्रस्थीय समन्वय कहलाता है जैसे वाणिज्य का वाणिज्यक भूगोल,
वाणिज्यिक अर्थशास्त्र से अनेकानेक तथ्यों की पुष्टि की जा सकती है। उपरोक्त
विषय अलग-अलग दिखने के कारण इस समन्वय को क्षैतिज समन्वय कहते हैं।
अनुप्रस्थीय समन्वय दो प्रकार का होता है-
(अ).आकस्मिक अनुप्रस्थीय समन्वय ।
(आ) व्यवस्थित अनुप्रस्थीय समन्वय ।
(अ) आकस्मिक अनुप्रस्थीय समन्वय-यह वह समन्वय है जो बिना किसी पूर्व योजना के
स्थापित किया जाता है। अध्यापक किसी एक विषय को पढ़ाते समय कभी एक ऐसे स्तर
पर आ जाता है जहाँ वह बड़ी सरलता के साथ प्रस्तुत विषय का सम्बन्ध किसी अन्य
विषय से कर देता है। उसके लिए वह पहले से कोई योजना बनाकर नहीं आता है। जैसे
अर्थशास्त्र पढ़ाते समय उसका अध्यापक भौगोलिक परिस्थितियों से सम्बन्ध
स्थापित करा सकता है जैसे सूती वस्त्र उद्योग पढ़ाते समय उत्पादन केन्द्र
वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों, व कच्चे माल व उसकी उपयोगिता के साथ उसका
सम्बन्ध जोड़ पाठ को और प्रभावी बना सकता है इसी प्रकार मूल्य पढ़ाते समय
माँग व पूर्ति के सिद्धान्त के साथ समन्वय स्थापित करा सकता है।
(आ) व्यवस्थित अनुप्रस्थीय समन्वय-यह वह समन्वय है जिसे शिक्षक जान बूझकर
स्थापित करता है। वह कक्षा में प्रवेश करने से पूर्व ये सोचकर आता है कि उसे
अपने विषय का अन्य विषयों से सम्बन्ध करना है। कक्षा में भी वह क्रमशः ऐसे
प्रश्न व क्रियाएँ करता है जिससे वह अपनी योजना के अनुसार बनायी स्थिति पर आ
सके और अपने विषय का अन्य किसी विषय से समन्वय स्थापित कर सके।
(3) जीवन से समन्वय-छात्र अपने जीवन से सम्बन्धित वस्तुओं में अधिक रुचि लेते
हैं वे ऐसी वस्तुओं के सम्बन्ध में अधिक जानने की चेष्टा करते हैं जो उनके
जीवन से सम्बन्धित होती है। इसी सिद्धान्त के आधार पर इस प्रकार के समन्वय की
स्थापना हुई। इस समन्वय के अनुसार विषय-सामग्री को जीवन के साथ सम्बन्धित
किया जाता है। वाणिज्य को जीवन से सम्बन्धित करने से तात्पर्य उसके नियमों व
सिद्धान्तों का दैनिक कार्यों से सम्बन्ध स्थापित करना। इससे उन्हें
व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति होती है।
समन्वय के उद्देश्य
वाणिज्य-शास्त्र में समन्वय के निम्न उद्देश्य कहे जा सकते हैं-
(1) पाठ्यक्रम की बोझिलता को कम करना।
(2) समय की बचत करना।
(3) शक्ति की बचत करना।
(4) व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करना।
(5) सूची जाग्रत करना।
(6) ज्ञान की अखण्डता को बतलाना।
(7) मानवीय सम्बन्धों को समझाना।
समन्वय से लाभ
शिक्षा में समन्वय स्थापित करने से निम्नांकित लाभों की प्राप्ति हो सकती है-
(1) समन्वय के द्वारा समस्त विषयों का सामंजस्यीकरण होता है जिसके फलस्वरूप
उनसे प्राप्त ज्ञान में भी एकता एवं अखण्डता आती है तथा अध्ययन सार्थक तथा
सोद्देश्य हो जाता है। इस प्रकार का ज्ञान व्यक्तित्व के विकास में सहायक
होता है।
(2) समन्वय शिक्षण को प्राकृतिक तथा स्वभाविक बनाता है। समन्वय से शिक्षा में
व्याप्त कृत्रिमता का लोप हो जाता है। फलतः शिक्षा अधिक रोचक तथा आकर्षक बन
जाती है।
(3) समन्वय संकुचित विशिष्टीकरण को रोकता है। समन्वय के कारण हमारा ज्ञान कुछ
ही विषयों तक सीमित नहीं रहता है। हम सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त कर लेते
हैं।
(4) समन्वय पाठ्यक्रम से अनेक विषयों की भीड़ को कम करता है तथा पाठ्यक्रम के
भार को हल्का करता है। पाठ्यक्रमानुसार बालक को अनेक विषयों का अध्ययन कराया
जाता है। अपने अपरिपक्व ज्ञान के कारण वह इन विभिन्न विषयों में सम्बन्ध
स्थापित नहीं कर सकता है। उसे सभी विषय पृथक-पृथक मालूम पड़ते हैं। समन्वय इन
सभी विषयों को एक करता है।
(5) समन्वय समय की बचत करता है। विभिन्न विषयों में कुछ पाठ एक जैसे होते
हैं। यदि समान पाठों को विभिन्न विषयाध्यापक पढ़ायें तो व्यर्थ ही समय नष्ट
होता है। योग्य अध्यापक उनमें सम्बन्ध कराकर समय एवं श्रम की बचत करा सकता
है। उससे समन्वित ज्ञान भी शीघ्र प्राप्त हो जाता है।
(6) समन्वय के कारण सभी विषय बोधगम्य बन जाते हैं। एक विषय में प्राप्त ज्ञान
को यदि हम दूसरे विषय में प्रयोग करें तो दूसरे विषय का ज्ञान अधिक रोचक हो
जाता है। इस प्रकार समन्वय विभिन्न विषयों में छात्रों की रुचि जाग्रत करने
में सहायता प्रदान करता है।
(7) समन्वय द्वारा ज्ञान की अखण्डता से अवगत होते हैं। यदि छात्रों को
विभिन्न विषय सम्बन्ध विहीन अवस्था में पढ़ाये जायें और उनमें सम्बन्ध
स्थापित नहीं कराया जाय तो उनसे प्राप्त ज्ञान भी अव्यवस्थित छिन्न-भित्र
अवस्था में होगा। ज्ञान अखण्ड होता है। उसे पृथक-पृथक् खण्डों में विभाजित
नहीं कर सकते हैं जिससे उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान भी अखण्डित तथा सम्बन्धित
है।
(8) समन्वय ज्ञान को व्यावहारिक बनाता है। वाणिज्य एक व्यावहारिक विषय है।
इसका केवल सैद्धान्तिक ज्ञान से इसके उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो सकती
है। वाणिज्य के अध्यापक को चाहिए कि वह वाणिज्य के विभिन्न नियमों व
सिद्धान्तों का छात्रों के जीवन समन्वय स्थापित करे।
(9) समन्वय सम्पूर्ण शिक्षा को स्पष्ट एवं बोधगम्य बनाता है। उसके द्वारा
छात्र एक विषय में प्राप्त ज्ञान का प्रयोग दूसरे विषय को सीखने में कर सकते
हैं। इस प्रकार सीखने में स्थानान्तरण सम्भव होता है तथा छात्र उन सभी लाभों
को प्राप्त करते हैं जो शिक्षा के स्थानान्तरण से प्राप्त होते हैं।
वाणिज्य का अन्य विषयों से सह-सम्बन्ध
(1) वाणिज्यशास्त्र तथा अर्थशास्त्र।
(2) वाणिज्यशास्त्र तथा भूगोल।
(3) वाणिज्यशास्त्र तथा समाजशास्त्र ।
(4) वाणिज्यशास्त्र तथा अंकशास्त्र ।
(5) वाणिज्यशास्त्र तथा मनोविज्ञान।
(1) वाणिज्यशास्त्र तथा अर्थशास्त्र-वाणिज्यशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का
परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। वाणिज्यशास्त्र को अर्थशास्त्र से तथा अर्थशास्त्र
को वाणिज्य से अलग समझना गलत है। वाणिज्यशास्त्र में व्यापार, उद्योग आदि का
अध्ययन किया जाता है दूसरे शब्दों में वाणिज्यशास्त्र के अन्तर्गत उत्पादन से
विक्रय तक की समस्त क्रियाएँ इसमें समाहित हैं। इसके साथ-साथ उपरोक्त
क्रियाओं की संस्थागत कार्य प्रणालियों का अध्ययन भी इसके अन्तर्गत ही किया
जाता है। अर्थशास्त्र मानव की आर्थिक क्रियाओं के अध्ययन के लिए धरातल
प्रस्तुत करता है तथा वाणिज्यशास्त्र भी वित्त सम्बन्धी क्रियाओं का अध्ययन
कराता है। वाणिज्य के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य छात्रों को उद्योग आयात,
निर्यात व्यापार, लेखा कार्य आदि का ज्ञान देना है ताकि वे व्यावहारिक जीवन
में सफलतापूर्वक प्रगति पथ पर अग्रसर होते रहें। वाणिज्यशास्त्र में आर्थिक
नियमों का उपयोग सिखाया जाता है जबकि अर्थशास्त्र अनेकानेक वाणिज्यिक
क्रियाओं का अध्ययन कराता है। बाणिज्य उद्योग व्यापार आदि में सफलता का अर्जन
करने विभिन्न में साधनों के बारे में जानकारी कराता है तो अर्थशास्त्र उन
साधनों को बतलाता है। किसी व्यापारी को अर्थशास्त्र की उचित जानकारी है तो वह
श्रम, पूँजी के द्वारा व्यापार में सफलता की ओर अग्रसर हो सकता है।
अर्थशास्त्र के अध्यापक को चाहिए कि वह वाणिज्यशास्त्र के साथ समन्वय कराके
पढ़ाये ताकि छात्रों को यह जानकारी मिल सके कि किन आर्थिक परिस्थितियों में
कौन-सा व्यापार या उद्योग सफल हो सकता है। वाणिज्य का अध्यापक अर्थशास्त्र के
मुद्रा, माँग व पूर्ति का नियम व्यापार ग्रेशम का नियम. साख व साख-पत्र आदि
के साथ उचित समन्वय.स्थापित कर छात्रों को उचित व अधिकतम सही ज्ञान प्रदान
करा सकता है। अतः स्पष्ट है वाणिज्यशास्त्र के अध्ययन के लिए अर्थशास्त्र का
उचित ज्ञान आर्थिक नियमों की उचित जानकारी के लिए वाणिज्य शास्त्र का अध्ययन
आवश्यक है। अतः स्पष्ट है कि वाणिज्यशास्त्र व अर्थशास्त्र का परस्पर घनिष्ट
सम्बन्ध है।
(2) वाणिज्यशास्त्र तथा भूगोल-वाणिज्यशास्त्र व भूगोल में बड़ा निकट का
सम्बन्ध है। भूगोल की उपयोगिता इसलिए है कि यह विषय महत्त्वपूर्ण जीवन के लिए
व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करने में सहायता प्रदान करता है। मानव जीवन का कोई
भी पहलू भूगोल से अलग नहीं किया जा सकता है। इसका क्षेत्र बड़ा ही व्यापक है।
भूगोल में संसार में किसी भी महाद्वीप व अक्षांश पर रहने वाले मनुष्यों की
क्रियाओं, परिस्थितियों, व उनकी मानवीय समस्याओं को समझाने में सहायता प्रदान
करता है। भौगोलिक दशाएँ ही किसी राष्ट्र की व्यापार उद्योग या कृषि में
उन्नति व अवनति के लिए आधार प्रदान करती है। जैसे भारत में सूती वस्त्र
उद्योग के लिए गुजरात, महाराष्ट्र की उपयोगिता से नकारा नहीं जा सकता है।
वहाँ की काली मिट्टी, वर्षा, जलवायु तापक्रम, शीत के साधन, व सस्ते श्रमिकों
की उपलब्धता इस उद्योग के लिए उचित स्थितियों का निर्माण करती है। इसी प्रकार
वाणिज्यशास्त्र में भी विभिन्न राष्ट्रों के स्तर, औद्योगिक विकास, व्यापार
आदि का अध्ययन कराता है। वाणिज्यशास्त्र ज्ञान को क्रियात्मक रूप दे कर उसे
छात्रों के लिए बोधगम्य बनाने में सहायता प्रदान करता है। अतः स्पष्ट है कि
भूगोल व वाणिज्य एक-दूसरे के पूरक हैं। इनकी निकटता का परिचायक यह है कि
वाणिज्य में वाणिज्यिक भूगोल का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। अतः हम कह
सकते हैं कि वाणिज्य व भूगोल के अध्यापकों में वांछित सहयोग व एकता की भावना
नितान्त आवश्यक है।
(3) वाणिज्यशास्त्र तथा मनोविज्ञान-मनोविज्ञान मानव के मन व आचरण का अध्ययन
करने वाला विषय है। इस विषय में मानवीय इच्छाओं, सुख-दुख, सन्तोष, असन्तोष,
रुचियाँ, अभिरुचियाँ, क्षमताएँ व मूल प्रवृत्तियों का अध्ययन किया जाता है।
इन उपरोक्त मनोवैज्ञानिक आधारों पर वाणिज्य के कई नियमों व सिद्धान्तों का
निरूपण किया जाता है। वाणिज्यशास्त्र में व्यापार पद्धति के अन्तर्गत समाज के
लोगों की इच्छाओं व आवश्यकताओं को ज्ञात किया जाता है। मनोविज्ञान समाज के
लोगों की क्या रुचियाँ हैं. क्या इच्छाएँ हैं, कैसे विज्ञान उन्हें प्रभावित
कर सकते हैं उसे मनोविज्ञान से समझा जा सकता है। मनोविज्ञान मनुष्य के समस्त
प्रकार के क्रियाकलापों को अपने में समेटे हुए है। मनुष्य के विचार सामान्यतः
अर्थ से प्रभावित होते हैं। एक सफल व्यापारी को वस्तुओं के उत्पादन से लेकर
विक्रय तक की स्थिति के लिए मनोविज्ञान को जानना जरूरी है। इसी आधार पर
वर्तमान में उद्योग तथा व्यापार का मनोविज्ञान' नामक नए विषय का सृजन किया
गया है। अंतः उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि वाणिज्यशास्त्र व मनोविज्ञान
में परस्पर गहरा सम्बन्ध निहित है। शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे इन दोनों
विषयों में सहसम्बन्ध स्थापित कर अध्ययन करायें।
(4) वाणिज्यशास्त्र तथा समाजशास्त्र-वाणिज्यशास्त्र और समाजशास्त्र विषय एक
दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। समाजशास्त्र वह सामाजिक विज्ञान है जो
कि समाज में मनुष्यों के सम्बन्धों, उनके रूपों, प्रकारों, क्रियाओं. घटनाओं
आदि का अध्ययन कराता है। इस प्रकार समाजशास्त्र के क्षेत्र में समाजशास्त्रीय
पद्धति से अध्ययन किए जाने वाले सभी विषय आ जाते हैं। इसमें सामाजिक परम्परा,
सामाजिक प्रक्रियाएँ. सामाजिक नियन्त्रण के कारक, सामाजिक घटनाओं के लक्षण
तथा परस्पर सम्बन्ध आदि सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार हमारे
आर्थिक पहलू भी इसके क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। वाणिज्यशास्त्र समाज के
लोगों को अनेकानेक स्रोतों से अर्थ का उपार्जन करना तथा उनका विभिन्न साधनों
से उपयोग करना सिखलाता है तथा समाज शास्त्र सामाजिक सम्बन्धों तथा उचित
व्यवस्थापन के तरीके बतलाता है। व्यापार और समाज दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
वाणिज्य में उत्पादक वर्ग किसी भी वस्तु का उत्पादन करने से पूर्व समाज के
लोगों की रुचि व आवश्यकताओं का अध्ययन करते हैं उसी के अनुरूप वस्तुएँ
उत्पादित की जाती हैं। यही कारण है कि वाणिज्यिक को उसके कार्य में
खुदरा-व्यापारी वर्ग, सेल्समेन आदि समाज के लोगों की आवश्यकता व रुचि से अवगत
कराते हैं। अतः स्पष्ट है कि उत्पादक वर्ग व उपभोक्ता वर्ग में उचित
सामान्यरूपता के लिए वाणिज्यशास्त्र व समाजशास्त्र में उचित रीति से समन्वय
की आवश्यकता है ताकि आर्थिक कल्याण तथा, सामाजिक कल्याण को सकारात्मक स्वरूप
प्रदान किया जा सके। अतः स्पष्ट है कि दोनों विषय एक-दूसरे के पूरक विषय हैं
इनमें उचित समन्वय कराकर पढ़ाया जाना चाहिए।
(5) वाणिज्यशास्त्र तथा अंकशास्त्र-वाणिज्य तथा अंकशास्त्र एक दूसरे से
घनिष्ट सम्बन्ध रखते हैं। अंकशास्त्र यानी गणित में औंकड़ों द्वारा कई प्रकार
के तथ्यों की पुष्टि की जाती है। वाणिज्य के नियमों, सिद्धान्तों के निर्धारण
का आधार आँकड़ों के द्वारा किया जाता है। वाणिज्य आँकड़ों में सामान्यीकरण
करता है तथा उनके आधार पर नये तथ्यों की पुष्टि करता है जैसे राष्ट्रीय विकास
से सम्बन्धित पंचवर्षीय योजनाओं में व्यय लक्ष्य क्या है। उद्योग, कृषि,
व्यापार आदि में क्या उत्पादन लक्ष्य है। पिछले वर्षों व आगामी वर्षों में
क्या अन्तर व समानताएँ हैं, इन्हें आँकड़ों के माध्यम से ही स्पष्ट किया जा
सकता है। वाणिज्य का आधार वास्तव में अंकगणित ही है। वाणिज्य के निम्नांकित
उपक्षेत्रों में गणित की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। जैसे
व्यापार, बैंक व्यवस्था, माँग व पूर्ति का नियम, एकाउन्टेंसी, बुक-कीपिंग
आदि-आदि। गणित के बिना उपरोक्त का उचित ज्ञान अर्जित नहीं हो सकता है।
तुलनात्मक दृष्टि से विषय को प्रस्तुत करने हेतु अंकगणित आवश्यक है। इस
प्रकार वाणिज्यशास्त्र तथा अंकशास्त्र में परस्पर गहरा सम्बन्ध है। इसीलिए
कुछ विद्वानों का कहना है कि अंकशास्त्र के बिना वाणिज्यशास्त्र बंडा ही
अस्त-व्यस्त व अस्थिर विषय बन जाता है। अतः स्पष्ट है कि वाणिज्य के अध्यापक
को अंकशास्त्र के साथ आवश्यक व उचित समन्वय को स्थापित करने का प्रयास करना
चाहिए।
(6) वाणिज्य तथा विज्ञान-वाणिज्य विज्ञान से भी सम्बन्ध रखता है। विज्ञान ने
ही वाणिज्य के समय व श्रम बचाने के विभिन्न यंत्र दिये हैं। इन यंत्रों की
चर्चा हम पूर्व में ही कर चुके हैं। इन यंत्रों ने वाणिज्य की बड़ी सहायता की
है। साथ ही वाणिज्य भी इन विज्ञानों की सहायता करता है। समाजशास्त्र तथा
भौतिकशास्त्र दोनों ही वाणिज्य के लिये सहायक हैं। इंजीनियरिंग भी वाणिज्य की
सहायता करता है।
अभ्यास-प्रश्न
निबन्धात्मक प्रश्न
1. शिक्षण में समन्वय से आपका क्या तात्पर्य है ? यह कितने प्रकार का होता है
? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिये।
2. शिक्षण में समन्वय स्थापित करने के उद्देश्यों तथा समन्वित शिक्षण के
लाभों की चर्चा कीजिए।
3. वाणिज्य का कुछ प्रमुख सामाजिक विज्ञानों से सहसम्बन्ध स्थापित कीजिये।
4. वाणिज्य शुद्ध विज्ञानों से भी सम्बन्धित है' कथन की पुष्टि कीजिये।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
1. समन्वित शिक्षण के कोई पाँच लाभ लिखिये।
2. समन्वित शिक्षण कितने प्रकार का हो सकता है ? प्रत्येक प्रकार का परिचय
दीजिये।
3. वाणिज्य तथा मनोविज्ञान के मध्य क्या सहसम्बन्ध है?
4. वाणिज्य का अंकशास्त्र से क्या सम्बन्ध है? स्पष्ट कीजिये।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. इकाई योजना का व्यापक-प्रयोग कब हुआ?
(अ) सन् 1940
(य) सन् 1930
(स) सन् 1920
(द) सन् 1950
2. विषयवस्तु की इकाई योजनाएँ कितने प्रकार की होती हैं ?
(अ) चार
(ब) दो
(स) तीन
(द)छ:
3. क्रमबद्ध शिक्षण के लिए ........."नितान्त आवश्यक होती हैं।
उत्तर-1. (स) सन् 1920 2. (स) तीन। 3. पाठ-योजनाएँ।
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