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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।

अथवा
कबीर की दार्शनिक विचारधारा का विवेचन कीजिए।
अथवा
कबीर के आध्यात्मिक विचारों का निरूपण कीजिए।

उत्तर -

मध्यकालीन भक्ति साधना के क्षेत्र में समन्वयवादी और सारग्राही चेतना के कारण कबीर का स्थान और महत्व अद्वितीय स्वीकारा जाता है। उस युग की संघर्षपूर्ण स्थितियों परिस्थितियों में जिस नवीन आध्यात्मिक चेतना ने जन्म लिया था, कबीर उसके प्रमुख ध्वजवाहक स्वीकार किये जाते हैं। उनकी मूल और समन्वित दार्शनिक चेतनाओं का उल्लेख करते हुए एक विद्वान आलोचक ने लिखा है "इसके स्वरों में भावना और प्रत्यक्ष जीवन की उपयोगिता के स्वर संचालित थे। इन्होंने वैष्णव मतों (सगुणवादियों) से भी प्रभाव ग्रहण किया है। इन्होंने एक ओर जहाँ नाथ सम्प्रदाय की अनुभूति व योग साधना की परम्परा को अपनाया, वहाँ विट्ठल सम्प्रदाय की प्रेम भक्ति और रहस्मयता को भी अपनाया। स्वामी रामानन्द के प्रभावों से विकसित अद्वैतवाद और विशिष्टय द्वैतवाद के प्रभाव को ग्रहण किया। प्रेममार्गियों के प्रेम तत्व का भी प्रत्यक्ष प्रभाव इन पर पड़ा। इसलिए दार्शनिक चेतना के धरातल पर कबीर को सारामाही कहा जाता है। इस संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की मान्यता भी दर्शनीय है।

"वैष्णवों से उन्होंने अहिंसात्मक और प्रपत्तिवाद लिए। इसी से उनके (कबीर) तथा निर्गुणवाद बदले और दूसरे सन्तों के वचनों में कहीं भारतीय अद्वैतवाद की झलक मिलती है। कहीं योगियों के नारी चक्र' की, कहीं सूफियों के प्रेम तत्व की कहीं पैगम्बरी कट्टरवाद खुदावाद की ओर कहीं अहिंसावाद की। अतः तत्व की दृष्टि से न तो हम उन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते है और न एकेश्वरवादी। दोनों का मिलाजुला भाव इनकी वाणी में मिलता है।'

वस्तुतः कबीर की वाणी में अद्वैतवाद और एकेश्वरवाद के मिले-जुले भाव का मात्र आभास ही, कहीं-कहीं मिलता है, वे एकेश्वरवादी ही थे। पर उनके ईश्वर, जिसे उन्होंने अधिकतर 'राम' कहकर रमण किया है, "दाशरथि रामः" न होकर उससे ऊपर और परे रहने वाला तत्व है। 'राम' से उनका अभिप्राय निर्गुण निराकार ब्रह्म से ही है। तभी तो वे बार-बार कहते सुने जा सकते हैं कि -

"निर्गुण राम निरगुण राम जपहु रे भाई।'

कुछ लोगों की धारणा है कि कबीर दार्शनिक चेतना खुदावाद या मुस्लिम एकेश्वरवाद से प्राणित हैं, पर वस्तुतः वे भारतीय ब्रह्मवादी भावना से ही अनुप्राणित रहे। डॉ. श्यामसुन्दर दास के अनुसार - " निर्गुण भावना भी उनके लिए स्थूल भावना है जो मूर्तिपूजकों की सगुण भावना के विरोधी पक्ष का प्रदर्शन मात्र करती है। उनकी भावना इससे अधिक सूक्ष्म है। वे 'राम' को सगुण निर्गुण दोनों से परे मानते हैं।' नाथ पंथियों ने भी इसी दृष्टि से ब्रह्मा को "राफ्टर" कहा है और इस दृष्टि से कबीर इन्हीं से अधिक प्रभावित हुए कहते हैं -

"एक कहौ तो है नहीं, दोय कहीं तो गार।
है जैसा वैसा रहे, कहै कबीर विचार '

कबीर ने राम अर्थात् ब्रह्म को संसार से अतीत और सारे संसार में सूक्ष्म रूप से परिव्याप्त दोनों रूपों में ही वस्तुतः स्वीकार किया है। इसी कारण उसे रूप-रंग रहित मानते हुए भी संसार के सभी रंग रूप उसी के ही स्वीकार करते हैं। इसी परात्पर के साथ साधक का सम्पर्क भी सध जाता है। सभी सांसारिक स्वरूपों में उसकी सहज प्रतिष्ठा स्वीकारते हुए ही कबीर जी ने कहा है कि -

"कह्या न उपजै उपजा नहिं जांणै भाव अभाव बिहूना।
उदै अस्त जहाँ मति-बुद्धि नाहीं सहजि राम त्यों लीना।'

उसे सर्वव्यापक सब में समान स्तर पर रमण करने वाला स्वीकार करके ही कबीर ने सगुणवादियों के विष्णु या रामकृष्ण के रूप में सीमित अर्थों भावों वाली सगुणोपासना का विरोध किया है। वे सगुणोपासना के विरोधी थे बल्कि सगुणवादियों द्वारा परब्रह्म को सीमित कर डालने की प्रक्रिया के विरुद्ध थे। उन्होंने 'निरगुण ब्रह्म' या 'अलख निरंजन' कहकर परब्रह्म की व्यापकता को ही प्रतिपादिक किया है ताकि उसके नाम पर होने वाले झगड़े समाप्त हो सकें। तभी तो कबीर जब राम, गोविन्द बिठ्ठल, माघव, केशव, हरि, नृसिंह आदि शब्दों सम्बोधनों का प्रयोग करते हैं, तो उसका अर्थ अवतारवादी दृष्टि से न लिया जाकर व्यापक ब्रह्म ही लिया जाता है। स्वंय कबीर ने कहा है -

" दशरथ सुत टिहुं लोक बखाना, राम नाम का परम है आना।'

कबीर के ब्रह्म या राम न तो अद्वैतवादियों के सर्वथा निष्क्रिय ब्रह्म हैं और न इस्लाम आदि से प्रभावित हैं। ये एक ओर तो विशुद्ध चैतन्य स्वरूप हैं, जबकि उपाधियुक्त चैतन्य भी हैं। द्वैत अद्वैत से परे और इस प्रकार उनके अपने चिन्तन, मनन और अनुभव की देन है। युग की भावना के पूर्ति करने वाले तो हैं ही, युग-युगान्तरों से ऊपर एवं परिव्याप्त हैं।

कबीर की दार्शनिक चेतना में आत्मा या जीव तत्व का उल्लेख ब्रह्म तत्व से अलग नहीं मिलता। ब्रह्मा का ही समग्र अंश होने के कारण जीव या आत्मतत्व भी वस्तुतः परात्पर और अविनाशी ही है। वह ब्रह्मतत्व ही सत्य और नित्य है। वह भिन्न प्रतीत होते भी भिन्न नहीं, माया जन्य उपाधियों के कारण ही विभिन्नता का आभास देता है। कबीर जी ने अपनी इन्हीं मान्यताओं के अलोक में कहा है कि -

"आतम राम अवर नहीं दूजा।'

अर्थात् आत्मा और राम अलग या दो नहीं है। कबीर ने जगत की सत्ता भी ब्रह्म ही में मानी है। ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की सत्ता को वे स्वीकार नहीं करते। ब्रह्म से ही जीव आदि की उत्पत्ति और अन्त में लय भी होती है।

"पाणी ही ते हिम भया, हिम हवै गया बिलाई।
जो कुछ था सोइ भया, अब कुछ कह्या न जाई।'

सौ चर्म चक्षुओं से दिख पड़ने वाला नाना नाम रूपात्मक जगत उस पर ब्रह्म से उत्पन्न हो उसी में समा जाता है, अतः यह अनित्य है, स्वप्न मात्र है, स्वप्न होने के कारण विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता, अपनाया भी नहीं जा सकता -

"संसार ऐसा सुषिन जैसा जीवि न सुषिन समान '

जीव स्वप्नों पर विश्वास तो नही करता पर मायाजन्य मोह के कारण उनके चक्कर में पड़ ही जाता है। यह चक्कर ही दुःखों का कारण बनता है। यों कबीर माया को प्रभु की आद्यशक्ति भी कहते हैं। यह भी मानते हैं कि माया शक्ति से ही ब्रह्म ने सृष्टि को उपजाया है और यह भी कहा है कि -

"तू माया रघुनाथ की खेलण चली अहैड़।'

अतः स्पष्ट है कि कबीर माया के अविधा रूप को ही अपने काव्यों में अपना कर चले हैं। रजोगुण, सतोगुण, तमोगुण आदि सभी को कबीर माया ही मानते हैं। उसके अनेक रूप हैं, जिन्हें न पहचान पाने के कारण ही लोग दुःख भोगते रहते हैं। स्वयं ब्रह्म या उसका परमभक्त ही उसकी वास्तविकता को पहचान सकता है।

कबीर माया को अत्यधिक मोहिनी शक्तिशाली मानते हैं. इसी कारण उसके प्रभावों से बच पाना कठिन होता है। वह अपने प्रकार के विकार उत्पन्न करके मानव मन को भटकाए रखती है। उसका प्रभाव शरीर त्याग के बाद भी बना रहता है। फलस्वरूप आवागमन से छुटकारा पाकर मुक्त होना असम्भव हो जाता है। इसी कारण कबीर ने माया बंधन से छुटकारा पाने के दार्शनिक विचारों का भी प्रतिपादन किया है। उनकी मान्यता है कि राम की अनन्य भक्ति और शरणागति से ही माया मोह के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है। उनकी यही मान्यता है कि जो व्यक्ति राम की शरण में चला जाता है, माया के प्रयत्न करने पर भी वह उसके फंदे में नहीं फंसता। माया अपना फंदा फेकती है और राम भक्ति के प्रताप से वह स्वतः ही छिन्न-भिन्न हो जाता है।

कबीर की दार्शनिक चेतनाओं के अंतर्गत उपरोक्त तत्वों एवं तथ्यों पर विचाराभिव्यक्ति के अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे तत्व भी मिलते हैं, जिनमें विचारणीय दार्शनिक एवं पारिभाषिक एवं तात्विक शब्दों का प्रयोग भी अनेकशः किया है। ये दोनों शब्द भारतीय दर्शन में नवीन या अपरिचित नहीं है पर कबीर ने उनका उल्लेख भी आत्मसात करने के बाद अपने ही ढंग से किया है। 'शून्य' को भारतीय दार्शनिकों ने आमतौर पर ज्ञाता ज्ञेय, ग्राहक ग्राह्य से परे की वस्तु मानकर ब्रह्म के अर्थ में इसका प्रयोग किया है। उसे मात्र स्वानुभूति का विषय ही बताया है। उसे अवर्णनीय अलेख्य आदि भी कहा है। अर्थात् जो ब्रह्म मन वाणी से अतीत अगोचर है, वही वास्तव में 'सुन्न' या 'शून्य' है। इस प्रकार 'सहज' की अवधारणा भी भारतीय दर्शन में परम्परागत रूप में मिलती है। साथ ही प्रादुर्भूत होने वाले तत्व को यहाँ 'सहज' कहा है। उसे स्वयंवेध भी कहा जाता है। उसे मात्र अनुभूति का विषय स्वीकारा गया है। चाक्षष दर्शन या बिम्ब का नही। कबीर इन मान्यताओं से प्रभावित थे। ज्ञानमार्गी होते हुए भी कबीर ने 'सहज' ज्ञान का प्रतिपादन भी इसी दृष्टि से किया है। वे सहज को राम मानते हुए, जीव को सार तत्व और प्रेमस्वरूप स्वीकारते हुए उससे घुल-मिल जाने की प्रेरणा देते हैं -

"सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चिन्ह कोई।
जिन सहजैं हरिजी मिलें, सहज वही जै सोई।'

कबीर का सहज भी यद्यपि आगम्य है, पर वह प्रेमस्वरूप होने के कारण प्राप्य भी है। आजपाजाप का संधान करने के बाद जब चित्त की संकल्प - विकल्प की अवस्था समाप्त या संयमित हो जाती है, तभी सहज की अनुभूति सम्भव होती है। इस स्थिति में पहुंचकर ही उस "शून्य" को भी अनुभव किया जा सकता है जो समस्त संकल्प-विकल्पों से परे और देश कालातीत एकमात्र परम तत्व है।

"अजपा जपत सुन्नि अभिअन्तर, यहु तत जाने सोई।'

सहज शून्य में निमग्न व्यक्ति को ही कबीर परमयोगी मानते हैं। उनकी मान्यता है कि प्रभु की अनुभूति का महारस पाने में समर्थ व्यक्ति की आत्मज्ञानी या तत्वज्ञानी है। उसी को सद्गुरु की कृपा से आत्मस्वरूप का प्रतिबोध हो पाता है। सद्गुरु से ही व्यक्ति या शिष्य को वह 'शब्द' अर्थात् दीक्षारूप में मंत्र प्राप्त होता है, जिससे एक चेतन शक्ति स्वतः ही साधक के भीतर क्रियाशील हो जाती है। इसी को कबीर की दार्शनिक शब्दावली में "शब्द बाण मारना" भी कहा गया है। शब्द शक्ति से ही अनहदनाद में अवलीन होकर आत्मा परमात्मा (सहज) में तादात्म्य प्राप्त कर लेती है।

कबीर मूलतः साधक हैं। पर साधनारत कबीर की वाणी में स्वतः ही दार्शनिक तत्वों का समावेश होता गया है। उनकी साधना अनेक पद्धतियों का समन्वय होते हुए भी वस्तुतः स्वतः सम्भूत, अपनत्वभरी एवं अद्वितीय भी है। उनकी साधना पद्धति में औपनिषदिक ज्ञान, नादानुसंधान, योग के विविध रूप और, भक्ति का सुन्दर समन्वय हुआ स्वीकारा जाता है पर प्रेम-तत्व वस्तुतः समूची साधना पर इस प्रकार प्रतिच्छादित है कि वहाँ सभी कुछ अंतोगत्वा प्रेममय ही अधिक हो गया है। उनकी साधना में अद्वैतवादी चेतना के अनुसार आत्मा के यथार्थ स्वरूप की अनुभूति और अवस्थिति ही 'ज्ञान' का वास्तविक अर्थ है। इसी कारण वे अपने को या हम उन्हें ज्ञानमार्गी कहते हैं।

अद्वैत साधना में कबीर ने योग-ज्ञान साधना पर भी यों तो बल दिया है, पर उसके नाम पर होने वाले ब्रह्माचारों एवं आडम्बरों के वे प्रबल विरोधी थे। सुरति निरति को ही उन्होंने सच्चे योगी और योगसाधना के साधन बताया है। सहज शून्य में समाहित रहने को ही वे योगी और उस अवस्था की प्राप्ति को ही योग मानते हैं। सुरसिनिरति के अतिरिक्त अनाहत नाद (अनहद नाद की खोज, ब्रह्म रंध्र नाभि) में प्राण एवं चित्त की प्रतिष्ठापना, अजपाजाप एवं सहजशून्य समाधि आदि को भी कबीर ने योग साधना के अंगभूत तत्व स्वीकारा है। कबीर की वाणी में सुरति निरति का अर्थ है पूर्णरूपेण व अच्छी प्रकार से ब्रह्म में निमग्नता। यह निमग्नता मन उलटने अर्थात् अंतर्मुखी वृत्तियों के जागरण एवं तल्लीन होने से ही आ पाती है। इसके लिए अजयाजाप अर्थात् प्रत्येक कार्य करते और सांस लेते समय राम नाम का स्मरण भी परम आवश्यक है। इस प्रकार हर पल क्षण रामार्पित रहना ही कबीर की दार्शनिक शब्दावली में अजपाजाप है। इसी को उन्होंने "सुरति समानि निरति में अजपा मोहै जाप" भी कहा है।

कबीर की दार्शनिक चेतना पर ज्ञानयोग के रहते हुए भी प्रेम तत्व का प्रभाव सर्वाधिक एवं परम व्यापक है। उनकी दार्शनिक साधना को ज्ञानयोग प्रेम की कल-कल निनाद करती हुई पावन त्रिवेणी भी कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में ज्ञानयोग दोनों वस्तुतः यहाँ प्रेममय होकर रह गये हैं। प्रेम के साथ विरह और मिलन के भाव या अवस्थाओं का स्वतः आ जाना पूर्णतया स्वाभाविक है। कबीर की दार्शनिक चेतना में प्रेम ही वह मधुर चाशनी या मधुमति भूमिका प्रस्तुत करता है कि जो उस सब को सहज ग्राह्य बना दिया करती है।

प्रेम को कबीर ब्रह्म के समान ही अकथनीय मानते हैं :

"अकथ कहानी प्रेम की कही कछु न जाई।
गूंगे केरि सरकरा, बैठे ही मुसकाई।'

सारांश यह है कि कबीर की साधना में जिन दार्शनिक चेतनाओं का यत्र-तत्र समावेश मिलता है, वे व्याख्येय तो अवश्य हैं, पर नीरस, शुष्क एवं दुर्बोध्य कतई नहीं है। उनमें पावन गंगा स्थान जैसा ही तरलायित आनन्द का भाव है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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